अंतःकरण में ईश्वर का दर्शन

September 1972

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ईश्वर का सबसे निकटवर्ती स्थान हमारा अंतःकरण है, यदि हम उसे वहाँ देखें और ढूंढ़ें तो बाहर भटकने की अपेक्षा उसे अधिक सरलतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं।

न केवल दर्शन; वरन उसके साथ वार्तालाप, परामर्श भी हो सकता है। इसके लिए अंतःकरण से बढ़कर ईश्वर के साथ इकांत मिलन का और कोई स्थान नहीं है। यदि चाहें तो उसकी छाती-से-छाती लगाकर राम- भरत की तरह यहीं मिल सकते हैं और उत्कृष्ट की आत्मारूपी राधा का परमात्मारूपी कृष्ण से संगम-समर्पण भी यहीं हो सकता है।

विवेक की आँख खोलकर देखें तो उत्कृष्टता की प्रतिमा के रूप में यहीं हँसता, मुस्कुराता मिलेगा। मानवीय आदर्शों की महिमामयी महत्ता से संपत्र, उज्ज्वल और प्रकाशवान अपना आत्मा ही परमेश्वर है। मलीनताओं का आवरण उठाकर यदि उसके सत, चित और आनंदस्वरूप का— सत्यं, शिव, सुंदरम के भवन-प्रकाश का दर्शन करें तो प्रतीत होगा कि दूर समझा जाने वाला भगवान वस्तुतः अपने अति निकट है। कषाय और कल्मषों से ढ़का रहने के कारण ही वह दीखता न था।

विश्वात्मा के रूप में उसकी आत्मा अपने भी भीतर ज्योतिर्मय हो रही है। समस्त प्राणियों में ओत-प्रोत वह दिव्य सत्ता अपने भीतर भी विराजमान है। सबको अपने में और अपने को सब में देखने का दृष्टिकोण जैसे ही विकसित हुआ कि बदली हटते ही प्रकट होने वाले सूर्य की तरह भगवान सामने आया। व्यक्तिवादी संकीर्णता की बदली ही उस दिव्य दर्शन से हमें वंचित किए रहती है।


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