दर्शन पर्याप्त नहीं, भगवान को साथी और सेवक बनाएँ।

September 1972

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परमेश्वर का कलेवर यह विश्व-ब्रह्मांड है। उसकी प्रतिमा देखनी हो— "क्रियाकलाप देखना हो तो इस विराट-विश्व को देखना चाहिए। यह जो कुछ दृश्यमान है परमेश्वर का कलेवर है"— "कर्तव्य है"— "उसी में ओत-प्रोत है।"

यदि परमेश्वर के प्राण का स्पर्श करना हो तो वे इंद्रियों से नहीं, अंतःकरण की अनुभूति के रूप में ही उपलब्ध होगा। सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों के रूप में उसकी झाँकी अपने भीतर की जा सकती है। जितनी ही उत्कृष्टता, निर्मलता, सहृदयता, उदारता, आत्मीयता अपने में हो उसी अनुपात से भगवान के अंश अपने में विद्यमान अनुभव किए जो सकते हैं।

उपरोक्त पाँच सत्प्रवृत्तियों को—  "परमेश्वर के प्रतिनिधि पाँच देवता कह सकते हैं। पाँच पांडव यही हैं। इन्हीं को आजीवन आंतरिक असुर कौरवों से लड़ना पड़ता है।' जब असुरता के उन्मूलन का हृदयमंथन आवेशपूर्वक हो रहा हो तो समझना चाहिए। जीवरूपी अर्जुन ने गीता का ज्ञान स्वीकार कर लिया और वह सच्चा कृष्णभक्त होकर उनके इच्छित महाभारत का पात्र बन गया।

सत्प्रवृत्तियों का अंतःकरण के राज्य पर आधिपत्य तब होता है, जब दुष्प्रवृत्तियों के प्रति रोष और घृणा ही नहीं संघर्षात्मक प्रक्रिया भी प्रखर कर दी जाए। प्रतिरोध के अभाव में तो वे जड़ जमाए ही बैठी रहेंगी, हटने का नाम नहीं लेंगी। सुई की नोंक बराबर जमीन देने को तैयार नहीं थी। अस्तु संघर्ष के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। महाभारत रचे बिना, आंतरिक शत्रुओं से लड़े बिना और कोई रास्ता नहीं।

हृषीकेश पांचजन्य बजाते हैं और पार्थ ने गांडीव उठाया हो तो समझना चाहिए। परमेश्वर का अभीष्ट प्रयोजन पूरा होने की व्यवस्था बन गई। इस महाभारत की युद्धस्थली ने ही अर्जुन को अपने साथ पाया है। तब अर्जुन को कृष्ण का पूजन आह्वान नहीं करना पड़ा। उलटे कृष्ण ही उसका रथ चलाने और सफलता का पथप्रशस्त करने आए थे। प्रार्थना अनुरोध अर्जुन को नहीं करना पड़ा सारा स्तोत्र-पाठ तो कृष्ण ने किया। गीता अर्जुन ने नहीं पढ़ी— "कृष्ण ने सुनाई। भक्त और भगवान के बीच अनादिकाल से यही क्रम चला है और अनंतकाल तक यही चलता रहेगा।"

भगवान का दर्शन विराट-विश्व के रूप में देखा जा सकता है। उसकी लीलाएँ देखनी हों तो प्रकृति के हर्षोल्लास भरे कर्तृत्व को गंभीरतापूर्वक देखना चाहिए। उनकी निकटता— का रसास्वादन करना हो तो फिर सत्प्रवृत्तियों के रूप में अपनी अंतरात्मा टटोलनी चाहिए। उसमें जितनी प्रखरता पाई जाए, समझना चाहिए उतना ही तेजस्वी परमेश्वर अपने भीतर सजग और सक्रिय हो रहा है।

इसमें भी और आगे बढ़कर परमेश्वर को अपने साथी, सहायक और सेवक के रूप में प्राप्त करना हो तो उनकी इच्छा को समझना चाहिए, ज्ञान को ग्रहण करना चाहिए और संकेत पर चलने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। अर्जुन ने यही किया था। भगवान अधर्म का विनाश और धर्म का विकास करने के प्रयोजन से ही अवतार लेते हैं। अपने अंतःकरण में यदि इसी ईश्वरीच्छा के अनुरूप परिस्थिति उत्पन्न कर ली जाए, तो भगवान का अवतरण इसी भूमि में तत्काल संभव हो सकता है।

अंतःकरण में समाविष्ट असुरता का उन्मूलन आवश्यक है। समाज में फैले अनाचार के प्रतिविद्रोह वाँछनीय है। जो इस झंझट भरे काम को करने के लिए तैयार है वह पक्का अर्जुन है। उसका दर्शन करने भगवान स्वयं ही आते हैं। साथ रहते और सेवक बनते हैं।



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