मरने के बाद भी आत्मा का अस्तित्व रहता है

September 1972

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मरणोत्तर जीवन की बात ईसाई और मुसलमान नहीं मानते। उनका कहना है कि मरने वाले मनुष्य की आत्मा को प्रलयकाल तक कब्र में दबा रहना पड़ता है। अंत में न्याय होता है, तब कर्मफल स्वर्ग-नरक के रूप में मिलता है। जब नई सृष्टि रची जाती है, तब फिर एक बार जन्म मिलता है। इस प्रकार हर सृष्टि में केवल एक बार मनुष्य को नर-तन धारण करने का अवसर मिलता है। जब एक सृष्टि में एक ही बार जन्म मिलता है और वह भी बीत चुका तो एक प्रकार से वह अवसर समाप्त ही हुआ। अब किसी रूप में वह अपना अस्तित्व प्रकट न कर सकेगा, यह उपरोक्त धर्मों की मान्यता का सार है।

नास्तिक मान्यताएँ इससे भी आगे बढ़ी-चढ़ी हैं। वे पंचतत्त्वों की अमुक्त संमिश्रण-प्रक्रिया के साथ जन्म और उसके विलगन के साथ मृत्यु मानते हैं। शरीर ही जीव है। शरीर के न रहने पर जीव का भी अस्तित्व नहीं रहता।

क्या उपरोक्त मान्यताएँ सही हैं? इसे शास्त्रकारों, आप्तपुरुषों, सूक्ष्मदर्शियों द्वारा प्रतिपादित तथ्यों को छोड़कर यदि प्रत्यक्ष प्रमाणों के आधार पर देखें, परखें, तो भी वे मान्यताएँ सही सिद्ध नहीं होती। ऐसे अगणित प्रमाण आए दिन मिलते रहते हैं, जिनसे मरणोत्तर जीवन का अस्तित्व सिद्ध होता है।

पूर्वजन्मों की स्मृतियाँ लिए हुए कितने ही बालक जन्मते हैं और वे यह बताते हैं कि इससे पूर्वजन्म में वे कहाँ, किस स्थिति में जीवनयापन कर चुके हैं। खोज-बीन करने पर सही प्रमाणित होता है कि यह कोई चालाकी, कौतूहल, मिली भगत, बात का बतंगड़ नहीं था; वरन ठोस वास्तविकता थी। वे बालक ऐसी घटनाएँ—  "स्मृतियाँ बताते हैं, जो अन्य लोगों को विदित ही नहीं थीं। इस प्रकार के पूर्वजन्मों की स्मृति से संबंधित प्रमाण मरणोत्तर जीवन की पुष्टि करते हैं।"

इसके अतिरिक्त सूक्ष्मशरीर से प्रेतयोनि में बने रहने के प्रमाण भी मिलते हैं। मरने के बाद भी आत्मा अपने संबंधियों से संपर्क बनाने का इच्छुक रहता है। आह्वान करने की पद्धति मालूम होने पर वह संपर्क घनिष्ठ भी हो जाता है और उसमें ऐसे तथ्य जुड़े रहते हैं जिनके कारण इस संपर्क की वास्तविकता में कोई संदेह नहीं रह जाता। प्रेतयोनि का अस्तित्व भी मरणोत्तर जीवन की पुष्टि करता है। स्थूलशरीर न सही  सूक्ष्मशरीर सही आत्मा का अस्तित्व तो विद्यमान रहा ही। कब्र में कैद रहने वाली— "अस्तित्व प्रकट न कर सकने वाली बात-शरीर के साथ आत्मा की समाप्त हो जाने वाली बात जो एक प्रकार से मिथ्या ही सिद्ध हो गई।"

मरणोत्तर जीवन की मान्यता अध्यात्म दर्शन का एक बहुत बड़ा आधार है। शुभ-अशुभ कर्म, जो इस जीवन में भोगे नहीं जा सकते आगे भोगने पड़ेंगे, यह कर्मफल सिद्धांत नैतिकता का प्रमुख आधार है। एक ही जन्म मान लेने से तो जो कर्मफल इस जन्म में नहीं मिला, उसे समाप्त हुआ ही मानना पड़ेगा। कयामत के समय भी स्वर्ग-नरक की बात भी बेतुकी सी है। उसमें कर्मफल नहीं, अमुक संप्रदाय को मानने-न मानने पर ही स्वर्ग-नरक की व्यवस्था है। ऐसी दशा में वह मान्यता इस जन्म में न मिले कर्मफल को अगले जन्म में मिलने वाले प्रतिपादन का समर्थन नहीं करती। ऐसी दशा में अध्यात्म मान्यताओं द्वारा नैतिकनिष्ठा बनाने में योगदान नहीं मिलता। यदि इतना भी प्रयोजन सिद्ध न हो तो फिर अध्यात्म दर्शन की उपयोगिता ही क्या रह गई।

मरणोत्तर जीवन की प्रामाणिकता पर ही कर्मफल आगे मिलने का सिद्धांत पुष्ट होता है और आत्मा की अमरता से संबंधित अनेक उच्चआदर्शों की दीर्घकालीन दूरदृष्टि रखकर अपनाने का अवसर मिलता है। इसलिए मरणोत्तर जीवन की प्रामाणिकता का प्रतिपादन होना ही चाहिए। पुनर्जन्म और प्रेत अस्तित्व के प्रमाण इस दृष्टि से अध्यात्म दर्शन की परिपुष्टि ही करते हैं। प्रेतात्मा के अस्तित्व संबंधी कुछ प्रामाणिक विवरण नीचे प्रस्तुत हैं।

रिचमांड, कैलीफोर्निया पुलिस अधिकारी, ने टेलीफोन पर किसी व्यक्ति की सूचना सुनी— "पैनपाब्लो के मैकडोलाल्ड एवे. यू में जल्दी पहुँचिए। स्टीम लाइनर ने अभी-अभी एक ट्रक को बुरी तरह उलट दिया। ड्राइवर की छाती चूर हो गई और दूसरे व्यक्ति घायल हुए हैं।"

टेलीफोन सुनते ही पुलिस उस स्थान पर पहुँची, पर देखा और पूछा तो पता चला कि, यहाँ ऐसी कोई घटना नहीं घटी है। पुलिस ने समझा किसी ने ऐसे ही मजाक करके उन्हें व्यर्थ परेशान किया है।

पुलिसदल लौटने को ही था कि उसके सामने ही एक दुर्घटना घटी। स्टीम लाइनर दौड़ता हुआ आया और सामने से आ रहे एक ट्रक से भिड़ गया । ड्राइवर की छाती चूर-चूर हो गई और उसकी चपेट से कई व्यक्ति बुरी तरह घायल हुए।

घटनाक्रम वही था, जो टेलीफोन पर सुना गया था। पर आश्चर्य यह रहा कि वह दुर्घटना पुलिस के पहुँचने पर उसके सामने हुई, जबकि उसका पूर्ण विवरण पहले ही सुन और जान लिया गया था। यह पता नहीं चल सका कि यह पूर्वकथन करने वाला व्यक्ति आखिर था कौन?

भारत के भूतपूर्व वायसराय लार्ड डफरिन जब इंग्लैंड में थे, तब एक बार उनके एक मित्र ने आयरलैंड में आमंत्रित किया। वे एक एकांत बंगले में ठहरे हुए थे कि यकायक उनकी नींद उचट गई और भारी बेचैनी अनुभव हुई। वे उठे और खिड़की से बाहर झाँका तो दिखाई दिया। उस जंगल में कोई कराह रहा है। सहायता की दृष्टि से वे आगे बढ़े। देखा कि कोई व्यक्ति पीठ पर एक संदूक लादे जा रहा है। उन दिनों मेडीकल कालेजों में चीर-फाड़ के लिए काम आने वाली लाशें चोर-डाकू कहीं से लाकर वहाँ बेच जाते थे। डफरिन ने उसे ललकारा और पूछा— "इस बक्से में क्या है, इसे कहाँ ले जा रहे हो।"

वह रुका डफरिन पास पहुँचे। उनने एक ऐसा विकराल और वीभत्स चेहरा देखा जैसा उन्होंने पहले कभी भी नहीं देखा था। इसके बाद वह अंतर्ध्यान हो गया। इस घटना ने उन्हें बुरी तरह डरा दिया।

कुछ समय बाद डफरिन की नियुक्ति फ्राँस में। ब्रिटेन के राजदूत के रूप में हुई। एक दिन उन्हें ब्रांड होटल के किसी राजनैतिक समारोह में सम्मिलित होना था। वे सेक्रेटरी सहित पहुँचे, तो देखा कि लिफ्ट ऊपर ले जाने के लिए वह आयरलैंड के जंगल वाला वीभत्स आदमी खड़ा है। वे उलटे पैरों लौट आए और होटल मैनेजर से उस लिफ्टमैन के बारे में पूछने के लिए गए। इतने में क्या हुआ कि लिफ्ट जब पाँचवीं मंजिल पर पहुँचने को थी तब सहसा उसका रस्सा टूटा, लिफ्ट नीचे गिरी और उस पर सवार सभी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति कुचल कर मर गए। लार्ड डफरिन की इस प्रेत अनुभूति को फ्राँस के सभी समाचारपत्रों में मोटी हैडिंग देकर छापा।

अमेरिका के प्रख्यात लेखक और पुलित्सर पुरस्कार विजेता और मैकिनले कैंटोर ने अपनी सन् 1945 की प्रेत-संघर्ष संबंधी अनुभूतियाँ पुस्तकाकार छपाई हैं। उसमें एक रोचक वर्णन यह भी है कि उन्हें द्वितीय महायुद्ध के दिनों लंदन जाना पड़ा। वहाँ केसिगटन के एक ऐसे मकान में उन्हें रात काटनी पड़ी जिसका ‘भुतहा’ होना प्रख्यात था। वे यथार्थ का पता लगाने के लिए उसी मकान में ठहरे । हुआ यह कि रात को तीन बजे से कोई उनका कंबल खींचने लगा। वे ओढ़ने के लिए उसे ऊपर खींचते, किंतु नीचे से कोई उसे अपनी ओर जोरों से खींच लेता। इस प्रकार कंबल के आधार पर प्रेत और मिकैंटोर के बीच रस्साकशी घंटों चलती रही। यह सब तब हुआ जब कमरे की चटखनी भीतर से बंद थी दूसरे उसमें किसी मनुष्य को प्रवेश करने की कोई गुंजाइश नहीं थी।

कुछ देर बाद कैंटोर ने देखा कमरे में प्रकाश छाया हुआ है और इसमें एक मानव मूर्ति तैर रही है। उनने कमरे से बाहर बरामदे में बहुत से लोगों के चलने-फिरने, हँसने-रोने की आवाजें भी सुनीं। रात बीतने पर वे कमरा खोलकर बाहर निकले और अपने रात वाले अनुभव सुनाते हुए उस मकान के भुतहा होने की पुष्टि की।

प्रेत केवल डरावने या कष्टदायक ही नहीं होते उनमें से कितने ही बड़े उदार और सहायक भी होते हैं। उनकी सहायता से कई बार आश्चर्यजनक लाभ होते हैं—

"लंदन की एक महिला रोजमेरी ब्राउन परलोक वेत्ताओं के लिए पिछली तीन दशाब्दियों से आकर्षण का केंद्र रही हैं। वे संगीत में पारंगत हैं। बहुत शर्मीले स्वभाव की हैं भीड़-भाड़ से, सार्वजनिक आयोजनों से दूर रहती हैं और अपनी एकांत संगीत-साधना को शब्द ब्रह्म की साधना के रूप में करती है।"

आश्चर्य यह है कि उनका कोई मनुष्य संगीत शिक्षक कभी नहीं रहा। उन्हें इस शिक्षा में अदृश्य मनुष्य सहायता देते रहे हैं और उन्हीं के सहारे वे दिन-दिन प्रगति करती चली हैं। उनकी संगीत-साधना तब शुरू हुई जब वे सात साल की थी। उन्होंने एक सफेद बालों वाला— "काले कोट वाला आत्मा देखा, जो आकाश से ही उतरा और उसी में गायब हो गया। उसने कहा मैं संगीतज्ञ हूँ, तुझे संगीतकार बनाऊँगा । कई वर्ष बाद उसने विख्यात पियानोवादक स्वर्गीय फ्राजलिसट का चित्र देखा। वह बिलकुल वही था, जो उसने आकाश में से उतरते और उसे आश्वासन देते हुए देखा था।"

बचपन में वह कुछ थोड़ा-सा ही संगीत सीख सकी। पीछे वह विवाह के फेर में पड़ गई और जल्दी ही विधवा भी हो गई। उन दिनों उसकी गरीबी और परेशानी भी बहुत थी; फिर वही मृतात्मा आई और कहा संगीत-साधना का यही उपयुक्त अवसर है। उसने कबाड़ी के यहाँ से एक टूटा पियानो खरीदा और बिना किसी शिक्षक के संगीत-साधना आरंभ कर दी। रोजमेरी ब्राउन का कहना है कि उसका अशरीरी अध्यापक अन्य संगीतविज्ञानियों को साथ लेकर उसे सिखाने आता है। उनके मृतात्मा शिक्षकों में बाख, बीठों, फेंन, शोर्ये, देवुसी, लिश्ट, शूवर्ट जैसे महान संगीतकार सम्मिलित हैं, जो उसे ध्वनियाँ और तर्ज ही नहीं, सिखाते उसकी उँगलियाँ पकड़कर यह भी बताते हैं कि किस प्रकार बजाने से क्या स्वर निकलेगा। गायन की शिक्षा में भी वे अपने साथ गाने को कहते हैं। वे यह सब प्रत्यक्ष देखती हैं, पर दूसरे पास बैठे हुए लोगों को ऐसा कुछ नहीं दीखता।

रोजमेरी ने एक जीवित शिक्षक को परीक्षक के रूप में रखा है। वह सिर्फ देखता रहता है कि उसके प्रयोग ठीक चल रहे हैं या नहीं। ऐसा वह इसलिए करती है कि कहीं उसकी अंतःचेतना झुठला तो नहीं रही है; उसके अभ्यास सही हैं या गलत। पर वह दर्शकमात्र अध्यापक उसके प्रयोगों को शत-प्रतिशत सही पाता है रोजमेरी लगभग 400 प्रकार की ध्वनियाँ बजा लेती हैं। बिना शिक्षक के टूटे पियानो पर बिना निज की उत्कट इच्छा के यह क्रम इतना आगे कैसे बढ़ गया, इस प्रश्न पर विचार करते हुए अविश्वासियों को भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि इस महिला के प्रयासों के पीछे निस्संदेह कोई अमानवीय शक्तियाँ सहायता करती हैं।

रोजमेरी का जीवन गरीबी और कठिनाइयों से भरा था। वह एक स्कूल में रसोईदारिन का काम करती थी, उसी में से उसने समय निकाला और अपने अदृश्य सहायकों की सहायता से संगीत-साधना का क्रम चलाया। लोगों ने उसके कथन में यथार्थता पाई तो उन्होंने स्वर्गीय आत्माओं द्वारा निर्देशित कुछ संगीत निर्देशावलियाँ नोट कराने का अनुरोध किया। उसने यह स्वीकार कर लिया। फलतः 3000 शब्दों की एक संगीत निर्देश माला प्रकाशित हुई। नाम है उसका—   "टेन कमाँडमेन्टर फारम्युजिशि येशन्स। इन निर्देशों के आधार पर जो ग्रामोंफोन रिकार्ड (एल.पी.) बने हैं, उनने स्वर्गीय आत्माओं के संगीत से परिचित लोगों को इस सादृश्य ने बहुत प्रभावित किया है।"

कई व्यक्ति रोजमेरी के प्रयास के पीछे कुछ ढोंग ढूँढ़ते हैं, पर उन्हें तब चुप हो जाना पड़ता है, जब वह धन या यश की कामना से सर्वथा दूर रहकर अपनी एकांत शब्द-साधना में निमग्न रहती हैं। ढोंग तो किसी प्रयोजन के लिए होता है, किंतु यहाँ तो वैसा कुछ भी नहीं है। उल्टी वह तो डरती रहती है कि कहीं उसे पागल न समझ लिया जाए। मनोविज्ञानवेत्ताओं ने उसके अर्धचेतन में संगीत तथ्य के छिपे होने और उसके जागृत होने की बात चलाई पर वह भी फिट नहीं बैठी; क्योंकि उसे स्वयं की इच्छा से या वंश-परंपरा से यह शौक नहीं मिला, यह तो किन्हीं दूसरों ने उसके गले मढ़ दिया है और वे ही वलात् उसे जोते रहते हैं।

मनोविज्ञानशास्त्र के सुप्रसिद्ध शोधकर्त्ता श्री मारिस वार्व नेल की मान्यता है कि रोजमेरी को अतींद्रिय श्रवण और दर्शन की विलक्षण शक्ति प्राप्त है और वह उसी के सहारे प्रगति कर रही है।


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