मस्तिष्कीय स्तर मोड़ा और मरोड़ा जा सकता है।

September 1972

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मस्तिष्क की विचित्रता असंदिग्ध है। जीवित रहने के लिए आवश्यक क्रियाकलापों का प्रत्यक्ष संचालन यों विभिन्न अंग प्रत्यंगों द्वारा होता है, पर उसका मूलभूत आधार मस्तिष्क की संचार-प्रणाली है। अचेतन द्वारा शरीर की स्वसंचालित प्रणाली की साज-सँभाल रखी जाती है और चेतन द्वारा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के अंतःकरण चतुष्ट्य का संचालन होता है। मस्तिष्क की स्थिति के अनुरूप व्यक्तित्व का निर्माण होता है, प्रगति का पथप्रशस्त होता है। सोचने की विशेषता ने ही मनुष्य को क्रमशः समुंनत करते हुए इस स्थिति तक पहुँचाया है, जहाँ वह आज है। विज्ञान, शिल्प, दर्शन, अध्यात्म, कला, शिक्षा, चिकित्सा आदि ज्ञान की अगणित धाराएँ ही वे विभूतियाँ हैं जिनका संग्रह करके मनुष्य सामान्य न रहकर असामान्य बनता है। अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य जितना विकसित एवं साधनसंपंन दिखता है, उसे मस्तिष्कीय विकास का चमत्कार प्रतिफल ही कहना चाहिए।

इन मनः संस्थान का विकास ही दूसरे शब्दों में मानवी विकास कहा जा सकता है। उसका स्तर गिर जाना यदि जीवन का अधःपतन कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

मानसिक स्तर के परिवर्तन के संबंध में परंपरागत उपाय चल रहे हैं उनकी गति मंथर है। कान और आँख के माध्यम से जिस स्तर की जानकारियाँ प्राप्त होती हैं क्रमशः मनुष्य का रुझान उस ओर ढलना शुरू होता है। इसलिए प्रचारकों द्वारा लेखनी और वाणी का उपयोग किया जाता है। दृश्य और श्रव्य आधार उपस्थित किए जाते हैं। स्वाध्याय और सत्संग की आवश्यकता इसी प्रयोजन के लिए अनुभव की जाती है। चिंतन और मनन द्वारा व्यक्ति अपने आप भी अपने मानसिक स्तर को बढ़ाता है। इन दिनों मस्तिष्कीय विज्ञानवेत्ताओं का शोधकार्य यह चल रहा है कि परंपरागत मंथर उपायों के अतिरिक्त कुछ ऐसे उपाय प्राप्त किए जाएँ; जिनमें मस्तिष्कीय स्थिति में अभीष्ट परिवर्तन तुर्त-फुर्त किया जा सके आज इस स्तर की गतिविधियाँ जो अपनाने हुए हैं, वह कल दूसरी तरह की स्वेच्छापूर्वक अपना लें। आज के डाकू को कल संत बनाया जा सके।

स्वतंत्र चिंतन की विशेषता को नियंत्रित करने के उपाय यदि सचमुच हाथ लग जाएँ, तब फिर यह संभव हो सकेगा कि उस विज्ञान का ज्ञाता अपनी इच्छित दिशा में गतिशील होने की प्रेरणा अगणित मनुष्यों को दे सके। इस उपलब्धि में जहाँ सुधार की संभावनाएँ हैं, वहाँ यह खतरा भी है कि कोई अधिनायक समस्त प्रजा पर अपनी इच्छित विचारधारा थोपकर उसे सदा के लिए वशवर्ती बना ले।

मनोविज्ञान रसायनों के विशेषज्ञ डॉ. स्किनर का कथन है कि वह दिन दूर नहीं जब इस बीस करोड़ तंत्रिका कोशिकाओं वाले तीन पौंड वजन के अद्भुत ब्रह्मांड— "मान वीय मस्तिषक के दिए एक से एक अद्भुत  रहस्य को बहुत कुछ समझ लिया जाएगा और उस पर रसायनों तथा विद्युतधाराओं के प्रयोग द्वारा आधिपत्य स्थापित किया जा सकेगा"। यह सफलता अब तक की समस्त वैज्ञानिक उपलब्धियों से बढ़कर होगी; क्योंकि अन्य सफलताएँ तो केवल मनुष्य के लिए सुविधा-साधन ही उत्पन्न करती हैं, पर मस्तिष्कीय नियंत्रण से तो अपने आपको ही अभीष्ट स्थिति में बदल लेना संभव हो जाएगा। तब देवता या असुर किसी भी रूप में मनुष्य की सत्ता को बदला जा सकेगा।

जर्मनी के मस्तिष्क विद्याविज्ञानी डॉ. ऐलन जैन बसन और उनके सहयोगी मार्क रोजन वर्ग एक प्रयोग कर रहे हैं कि क्या किसी सुविकसित मस्तिष्क की प्रतिभा का स्वल्पविकसित मस्तिष्क में परिवर्तन किया जा सकता है? क्या समर्थ मस्तिष्क का लाभ अल्पविकसित मस्तिष्क को अनुदान के रूप में प्राप्त हो सकता है?

शिक्षण की प्रणाली पुरानी है। शिक्षित व्यक्ति अशिक्षित व्यक्ति को पढ़ा-लिखाकर सुयोग्य बनाते हैं और मस्तिष्कीय क्षमता विकसित करते हैं। विद्यालयों में यही होता चला आया है।

चिकित्साशास्त्री ब्राह्मी, आँवला, शतावरी, असगंध, सर्पगंधी आदि औषधियों की सहायता बुध्दि-वृद्धि का उपाय करते हैं मस्तिष्क-रासायनिक तत्त्वों का सार लेकर इंजेक्शन द्वारा एक जीव से लेकर दूसरे के मस्तिष्क में प्रवेश करने का भी प्रयोग हुआ, पर वह कुछ अधिक सफल न हो सका। अन्य जाति के जीवों का विकसित मस्तिष्क सत्त्व अन्य जाति के जीवों का शरीर ग्रहण नहीं करता। कई बार तो उलटी प्रतिक्रिया होने से उलटी हानि होती है । फिर क्या उपाय किया जाए। उसी जाति के जीव का मस्तिष्क उसी जाति के दूसरे जीव को पहुँचाएँ, तो लाभ कुछ नहीं क्योंकि उनकी संरचना प्रायः एक-सी होती है।

मस्तिष्क के तीन भाग मुख्य हैं— "एक समस्त क्रिया-प्रक्रियाओं का संचालक, दूसरा मांस-पेशियों का नियंत्रक, तीसरा साँस लेने, भोजन पचाने आदि स्वसंचालित प्रक्रिया का विधायक। इन तीनों में वह भाग अधिक महत्त्वपूर्ण है, जो मन और बुद्धि को संभालता है। इसी के विकास को मानसिक विकास माना जाता है। शेष मस्तिष्कीय क्रियाकलाप प्राणियों के शरीरों की स्थिति के अनुरूप अपना काम करते ही रहते हैं।"

कुछ प्राणियों के मस्तिष्क सुई की नोंक जितने छोटे होते हैं। कुछ के बहुत बड़े। व्हेल मछली का मस्तिष्क मनुष्य से भी बड़ा होता है। इतने बड़े शरीर की व्यवस्था बनाये रखने के लिए इतना बड़ा यंत्र भी होना चाहिए, पर उसमें भी बौद्धिक प्रतिभा वाला भाग अविकसित है।

प्राणशास्त्री विचिस्टन और मनोविज्ञान शोधकर्त्ता वेलेस्कोव मानसिक विकास की बहुत कुछ संभावना इस बात पर संभव मानते हैं कि अविकसित मस्तिष्क वालों का सान्निध्य विकसित मस्तिष्क वालों के साथ रहे। सरकस के पशुओं को सिखाने में जहाँ सधाने की पद्धति कम कारगर सिद्ध होती है, वहाँ उनका बौद्धिक और भावनात्मक विकास बहुत कुछ पशु-शिक्षक की स्थिति से जुड़ा रहता है। समीपता के कारण उनका सोचने का ढंग और भावना बहुत कुछ वैसी ही बनने लगती है।

राजाओं, सेनापतियों के घोड़े, हाथी उनका इशारा समझते थे और सम्मान करते थे। बिगड़े हुए हाथी को राजा स्वयं जाकर संभाल लेते थे। राणा प्रताप, नैपोलियन— "झाँसी की रानी के घोड़े मालिकों के इशारे ही नहीं उनकी इच्छा को भी समझते थे और उनका पालन करते थे। यह उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का अल्पविकसित बुद्धि वाले घोड़े हाथी आदि पशुओं पर पड़ा हुआ प्रत्यक्ष प्रभाव ही था"।

मस्तिष्क में से एक प्रकार की गंध सरीखी विशेष चेतन क्षमता निरंतर उड़ती रहती है। समीप रहने वाले लोग उस विशेषता से प्रभावित होते हैं। व्यक्तित्व जितना प्रभावशाली होगा— " मस्तिष्क जितना विकसित होगा, उसका संपर्क-क्षेत्र को प्रभावित करने वाला चुंबक भी उतना ही प्रभावशाली होगा। यदि तीव्र इच्छा और भावना के साथ इस शक्ति को किसी दूसरे की ओर प्रवाहित किया जाए, तो प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। मनस्वी लोगों की समीपता से अल्पबुद्धि वालों का मस्तिष्कीय विकास होने लगता है, भले ही वह मंदगति से क्यों न हो रहा हो।"

धातुपट्टी बाँधने-बंधवाने के झंझट से बचने के लिए एक दूसरा सरल रासायनिक तरीका निकाला जा रहा है, वह है रेडियो तत्त्वों से प्रभावित औषधियों को मनुष्य के रक्त में मिला देना। यह कार्य इंजेक्शन लगा कर अथवा मुख के द्वारा खिलाकर उसे खून में घोल दिया जाएगा। अब यह सारा रक्त ही एरियल का काम करेगा और प्रेषित प्रभाव तरंगों को पकड़कर रक्त में समाविष्ट करेगा। यह रक्त मस्तिष्क में पहुँचने पर मनुष्य को उसी प्रकार से सोचने के लिए मजबूर कर देगा जैसा कि रक्त में मिश्रित तरंगें उसे प्रेरणा देंगी। इस अपेक्षाकृत अधिक सरल विधि से वैज्ञानिक साधन किसी भी व्यक्ति को कुछ भी सोचने और कुछ भी करने के लिए पूर्णतया पराधीन बना देंगे।

जिस प्रकार अंतरिक्षयानों का नियंत्रण, निर्देशन धरती पर बैठे हुए वैज्ञानिक करते रहते हैं और यान उसके निर्देशानुसार अपनी गतिविधियों में हेर-फेर करता रहता है, ठीक उसी प्रकार यह प्रयत्न भी वैज्ञानिक-क्षेत्र में आरंभ हो गया है कि मनुष्य के मन मस्तिष्क को भी वैसी ही सूक्ष्मतरंगों द्वारा नियंत्रित किया जाए जैसे राकेटों को किया जाता है।

इन नए वैज्ञानिक अंवेषणों द्वारा मनुष्य को जीवित रोबोट बनाया जाएगा। वह संचालकों की इच्छानुसार चेतनायुक्त राकेट की भूमिका संपादित करेगा। प्रयोग अभी इस स्थिति में चल रहा है कि मनुष्य के सिर से एक विशेष प्रकार की धातुतारों से युक्त पट्टियाँ बाँध दी जाएँ और व्यक्ति के मस्तिष्क को एक प्रकार से रेडियो सुनते समय काम आने वाले एरियल की तरह बना दिया जाए। ट्रान्समीटर द्वारा फेंकी हुई शब्द किरणों को जिस प्रकार एरियल पकड़ता है और उसे रेडियो पर सुन लिया जाता है, उसी प्रकार वैज्ञानिक केंद्र द्वारा फेंकी गई तरंगों को मनुष्य के सिर पर बँधी हुई वह धातुपट्टी पकड़ेंगी और उसे मस्तिष्क में प्रवेश कर देंगी। बस चिंतन पर वही प्रेषित तरंगें छा जाएँगी और उसे जैसा सोचने के लिए निर्देश दिया गया था, वैसा ही सोचने के लिए विवश करेंगी। मनुष्य की स्वतंत्र चिंतन क्षमता समाप्त हो जाएगी और वह बौद्धिक पराधीनता से पूरी तरह ग्रस्त होकर वही सोचेगा, जो उसे सोचने के लिए बाध्य किया गया है।

क्या दूरवर्ती लोग बिना किसी तार रेडियो आदि के केवल मनः चेतना के आधार पर परस्पर संबंध स्थापित कर सकते हैं, उनके बीच विचारों का आदान-प्रदान हो सकता है? इस प्रश्न को किंवदंतियों पर आधारित नहीं छोड़ा गया है; वरन मनः शास्त्रियों ने इस संदर्भ को शोध का विषय भी बनाया है। उत्तरी केरोलिना के ड्यूक विश्वविद्यालय द्वारा डॉ. राइन के नेतृत्त्व में इस विषय पर ढूँढ़-खोज की गई और कैंब्रिज विश्वविद्यालय के डॉ. व्हाटले कैरिंगटन ने इस अंवेषण को हाथ में लिया। उन्होंने पाया कि यह चेतना एक सीमा तक हर किसी में होती है, पर जो लोग उसे विकसित कर लेते हैं वे अपेक्षाकृत अधिक सफल रहते हैं। किंहीं को जन्मजात रूप से यह प्राप्त रहती है और कुछ साधनाओं द्वारा इसे विकसित कर सकते हैं। प्रेम और घनिष्ठता की स्थिति में यह आदान-प्रदान किंहीं महत्त्वपूर्ण अवसरों पर अनायास भी हो सकता है।

भारत के अध्यात्मवेत्ता किसी समय इस दिशा में बहुत बड़ी खोज करने और सफलता प्राप्त करने में कृतकार्य हो चुके हैं। बुद्ध की प्रचंड विचारधारा ने अपने समय में लगभग ढाई लाख व्यक्तियों को अपनी विलासी एवं भौतिक महत्त्वाकांक्षी गतिविधियाँ छोड़कर उस कष्टकर प्रयोजन को अपनाने के लिए खुशी-खुशी कदम बढ़ाया, जो प्रचंड मानसिक विद्युत से सुसंपंन बुद्ध को अभीष्ट था। भगवान राम ने रीछ-बानरों को ऐसे कार्य में जुट जाने के लिए भावावेश में संलग्न कर दिया; जिससे किसी लाभ की आशा तो थी नहीं; उलटे जीवन-संकट स्पष्ट था। भगवान कृष्ण ने महाभारत की भूमिका रचीं और उसके लिए मनोभूमियाँ उत्तेजित कीं। पांडव उस तरह की आवश्यकता अनुभव नहीं कर रहे थे और न अर्जुन को उस संग्राम में रुचि थीं, तो भी विशिष्ट प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए मानसिक क्षमता के धनी कृष्ण ने उस तरह की उत्तेजनात्मक परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दीं। गोपियों के मन में सरस भावाभिव्यंजनाएँ उत्पन्न करने का सूत्र−संचालन कृष्ण ही कर रहे थे।

ईसा मसीह, मुहम्मद, जरथुस्त्र आदि धार्मिक-क्षेत्र के मनस्वी ही थे जिन्होंने लोगों को अभीष्ट पथ पर चलने के लिए विवश किया। उपदेशक लोग आकर्षक प्रवचन देते रहते हैं पर उनकी कला की प्रशंसा करने वाले भी उस उपदेश पर चलने को तैयार नहीं होते। इसमें उनके प्रतिपाद्य विषय का दोष नहीं उस मनोबल की कमी ही कारण है, जिसके बिना सुनने वालों के मस्तिष्क में हलचल उत्पंन किया जा सकना संभव न हो सका। नारद जी जैसे मनस्वी ही अपने स्वल्पपरामर्श से लोगों की जीवनधारा बदल सकते हैं। वाल्मीकि , ध्रुव, प्रहलाद, सुकन्या आदि कितने ही आदर्शवादी उन्हीं की प्रेरणा भरी प्रकाश-किरण पाकर आगे बढ़े थे। समर्थ गुरु रामदास, दयानंद , कबीर आदि मनस्वी महामानवों में अपने समय के लोगों को उपयोगी प्रेरणाएँ दी हैं और अभीष्ट पथ पर चलने के लिए साहस उत्पंन किया है। गान्धी जी की प्रेरणा से स्वतंत्रता संग्राम में अगणित व्यक्ति असाधारण त्याग-बलिदान करने के लिए किस उत्साह के साथ आगे आए, यह पिछले ही दिनों की घटना है।

शक्तिपात इसी स्तर की प्रक्रिया है; जिसमें मानुषी विद्युत से सुसंपंन व्यक्ति का तेजस दूसरे अल्पतेजस् व्यक्तियों में प्रवेश करके देखते-देखते समर्थ बना कर रख देती है। दीपक से दीपक जलने का पारस स्पर्श से लोहा सोना होने का, उदाहरण इसी प्रकार के संदर्भों में दिया जाता है।

वैज्ञानिक आधार पर मस्तिष्कीय नियंत्रण की प्रक्रिया यदि मनुष्य के हाथ लग गई, तो उससे सदा के लिए मानवी प्रजा को किसी अधिनायकवादी गुट के वशवर्ती हो जाने का खतरा है। अणुशक्ति के विनाशात्मक उपयोग की आशंका इसी कारण है कि उसका स्वामित्व अवाँछनीय लोगों में चला गया है। यदि वह प्रामाणिक हाथों में सीमित रही होती, तो उस वैज्ञानिक उपलब्धि से केवल हित-साधन ही होता।

मस्तिष्कीय नियंत्रण का विज्ञान विकसित होना चाहिए, पर उसका नियंत्रण सनातन महामानव ही कर सके, ऐसी व्यवस्था रहनी चाहिए। अच्छा यही है कि इस प्रतिस्पर्धा के युग में आत्मविज्ञान विकसित किया जाए और उस विद्या के विज्ञानी इस महाशक्ति का उत्पादन एवं उपयोग करने की दिशा में पहल करें।


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