परमात्मा का सजीव और साकाररूप यह विश्व है। चैतन्यशक्तिसत्ता को अंतःकरण में अनुभव किया जा सकता है, आँखों से देखा नहीं जा सकता, इसलिए उसे निराकार कहते हैं। भावना के क्षेत्र में उदात्त मनोवृत्तियों के रूप में उसकी अनुभूति होती है और शरीरधारियों में सत्प्रवृत्तियों को ईश्वरीय चेतना का प्रकाश कह सकते हैं। पर यह सारा क्षेत्र निराकार ही है। निखिल ब्रह्मांड का सृजनकर्ता— "संचालक, महातत्त्व दृश्यमान नहीं। इसी प्रकार सद्भावनाएँ भी देखी नहीं जा सकती हैं।"
परमात्मा का साकाररूप देखना हो तो यह विश्व ही परमेश्वर माना जा सकता है। मूर्तियाँ और प्रतिमाएँ ध्यान साधना की एकाग्रता के लिए मनुष्य की अपनी सूझ-बुझ है। देवता या अवतारों के जैसे चित्र दिखाए या बताए जाते हैं, वे भी मानवीय कल्पनाएँ हैं। विभिन्न देश, धर्म के लोगों ने अपने रूप और स्वभाव वाले परमात्मा बनाए हैं; उनमें इतनी भिन्नता है कि उनमें कौन वास्तविक है यह निर्णय कर सकना शक्य नहीं।
ईश्वर की सभी प्रतिमाएँ सही हैं और सभी गलत। सही इसलिए है कि जिसमें श्रद्धा और सद्भावना का समन्वय हो वह कल्पनाकृति सही ही कही जानी चाहिए। गलत इसलिए है कि ईश्वर मनुष्य आकृति का ही हो यह क्या आवश्यक है? उसके लिए सभी जीव-कलेवर एक से हैं, वह मनुष्य का ही रूप क्यों बनायेगा। फिर मनुष्यों में भी भिन्न प्रकार की आकृति-प्रकृति क्यों धारण करेगा? यदि वस्तुतः उसका आकार होता तो सर्वत्र एक-सा ही अनुभव में आता। सूर्य, चंद्र आदि सर्वत्र एक समान ही देखे जाते हैं। रूपधारी परमेश्वर को मानवीय कल्पनाकृति ही कहना चाहिए। अवतारों की प्रतिमाएँ भी अवास्तविक हैं। उस अवतारकाल के वास्तविक-चित्र उपलब्ध नहीं। आकृतियों की भिन्नता का होना यही बताता है कि भक्तिभावना द्वारा ध्यान, उपासना, प्रयोजन सिद्ध करने के लिए उपयुक्त माध्यम के रूप में उन्हें गढ़ा गया है। उनमें मूर्तिकार, शिल्पियों की कला को ही प्रत्यक्ष और वास्तविक कहा जा सकता है।
तब क्या ईश्वर का कोई स्वरूप है नहीं। क्या वह साकार नहीं है। निश्चितरूप से वह निराकार होने की तरह साकार भी है। इस विश्व में जो कुछ दृश्यमान हो रहा है, उसे भगवान ही कहना चाहिए। यों जड़ पदार्थ भी ब्रह्ममय है। उनके भीतर काम करने वाली परा प्रकृति-अणुसंचार-प्रक्रिया— "उसी महाशक्ति का स्पंदन है। चेतन प्राणियों में वह और भी स्पष्ट है। ज्ञान और इच्छाशक्ति के रूप में उसका दर्शन हर प्राणधारी में किया जा सकता है।" उसका और भी स्पष्ट-उत्कृष्ट दर्शन ऋतंभरा प्रज्ञा— "धर्मचेतना, निस्वार्थ आत्मीयता और कर्त्तव्यनिष्ठा के रूप में देखा जा सकता है। जहाँ कहीं भी जितने अंशों में यह उत्कृष्टता विद्यमान है, वहाँ उतने ही अधिक प्रखर परमेश्वर के अंश का दर्शन किया जा सकता है। अवतारों में उनकी गरिमा कलाओं के आधार पर नापी गई है। कोई अवतार कितनी कला के हुए है कोई कितनी के। यह अंतर बताता है कि अवतारी आत्माओं में श्रेष्ठता की ऊर्जा कितनी ऊँची थी।"
समग्र ब्रह्म का दर्शन न संभव है न आवश्यक न उपयोगी। ईश्वरीय रचना में तो विनाश और विकृति की भी बड़ी मात्रा है, जिसे असुरता कहते हैं। देवत्त्व को संघर्ष की चेतना सजग रखने और सत्प्रवृत्तियों की अपनी क्षमता तीक्ष्ण रखने के लिए चुनौती के रूप में यह विकारी असुरता भी विद्यमान है। उसे ब्रह्म की परिधि से बाहर नहीं किया जा सकता। उतने ब्रह्म अंश के साथ, तो उचित व्यवहार संघर्ष और विग्रह के रूप में ही किया जा सकता है। ईश्वरदर्शन मानव प्राणी की— "अन्य प्राणधारियों की सत्प्रवृत्तियों के रूप में करना चाहिए। उस दिव्य प्रेरणा से संपंन प्रकाश को ही परमेश्वर का साकार स्वरूप कह सकते हैं। गायत्री मंत्र में उसी सविता देवता को वरेण्य-वंदनीय कहा गया है।"