अपनों से अपनी बात— आत्मबोध, आत्मनिर्माण और आत्मविकास की राह पर चल पड़ें

September 1972

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जीवात्मा के सामने दो क्षेत्र खुले पड़े है, एक श्रेय और दूसरा प्रेय। दोनों में से वह जिसे चाहे उसे प्रधान रूप से चुन सकता है। दोनों का संतुलन मिला सकता है। यही बुद्धिमता की कसौटी है। जो सामने चुनौती की तरह पड़ी रहती है। भूलभुलैया और यथार्थता में से किसे चुना गया, इसी प्रकार जीवन लक्ष्य की, दूरदर्शिता की परीक्षा है। जो उत्तीर्ण हो जाते हैं, वे अनंत ऐश्वर्य और आनंद प्रदान करने वाली अध्यात्म विभूतियाँ प्राप्त करते हैं— स्वर्ग और मुक्ति के अधिकारी बनते हैं। आत्मसाक्षात्कार का ईश्वरीय अनुग्रह का, अजस्रशक्ति वर्चस्व का लाभ प्राप्त करके इस सुरदुर्लभ मानव अवतरण को धन्य बनाते हैं और जो भटक जाते हैं, उन्हें चिरकाल तक पश्चाताप की आग में जलना पड़ता है।

भ्रम-जंजाल वह है कि जिसमें अप्रबुद्ध प्राणी आमतौर से भटकते रहते हैं। मछली आटे की गोली पर बेतरह टूट पड़ती है, बिना आगे-पीछे सोचे उसे निगल जाती है। उस भूल का परिणाम प्राणघातक पीड़ा के रूप में सहना पड़ता है। बहेलिया जाल को ढ़ककर दाना बिछाता है, जिन्हें सतर्कता बरतना नहीं आता वे पक्षी उन्हें खाने के लिए दौड़ पड़ते हैं, बड़ी मात्रा में सहज ही, मनमाना आहार पाने की आतुरता उन्हें जाल में फँसा देती है और उस नादानी का फल उन्हें जान गँवाने के रूप में भुगतान पड़ता है। सँपेरा मधुर ध्वनि बजाकर साँपों को बिल में से बाहर निकालता है और उन्हें मोहित करके पिटारों में आजन्म कैदी बनाकर बंद कर लेता है। हिरन की भी यही दुर्गति होती है। पुराने जमाने के वधिक वीणा की मधुर ध्वनि बजाने में प्रवीण होते थे, दौड़ते, उछलते हिरन अपनी चौकड़ी भूलकर उसे सुनने में तन्मय हो जाते थे। इस अवसर का लाभ उठाकर बधिक उन्हें पकड़कर वध कर डालते थे। शोभा-सौंदर्य पर मुग्ध होने वाले भ्रमर का कमलपुष्प में बंद होना और फिर हाथी द्वारा उसे उदरस्थ कर लिया जाना प्रसिद्ध है। शीरे की चसक के लिए आतुर मक्खियाँ किस तरह बेमौत मरती हैं, इसे कौन नहीं जानता। ऐसी ही आसुरी माया, अबोध मानव प्राणी को भटकाती हैं। वह भ्रांति और यथार्थता के बीच अंतर नहीं कर पाता और उसी दल-दल में गहरा घुसता चला जाता है, जिससे निकलने के लिए यह मनुष्य जीवन जैसा सुरदुर्लभ अवसर मिला था।

सुख की आकांक्षा जीव को स्वभावतः रहती है। वह आगे बढ़ना चाहता है, ऊँचा उठना चाहता है, अधिक पाना चाहता है और अपना क्षेत्र विस्तृत करना चाहता है। यह आकांक्षाएँ उचित भी हैं और आवश्यक भी। इनकी प्रेरणा से ही उत्कर्ष की दिशा में प्रगति होती है; पर दुर्भाग्य वहाँ अड़ जाता है जहाँ इन प्रयोजनों को पूरा करने का सही रास्ता नहीं मिलता और फिसलन की ओर प्राणी भटकता, घिसटता चला जाता है। कदाचित लक्ष्य-निर्धारण के अवसर पर थोड़ी सतर्कता बरती जा सके, तो तुरंत के तनिक से आकर्षक व्यामोह से सहज ही बचा जा सकता है जो जीवन-लाभ की महान उपलब्धियों से वंचित ही किए रहता है।

इंद्रिय सुखों के पीछे मानसिक बचपन लालायित होकर अंधी-दौड़ लगाता है। पतंग लूटने में अति उत्साही अक्सर छतों से गिरकर हाथ-पांव तोड़ते और जान गँवाते देखे जाते हैं। जिनके सामने जीभ का चटोरापन, जननेंद्रिय की खुजली, आलस्य, आराम, सजधज का बचकाना प्रदर्शन, उद्धत अहंकार का पोषण, संपत्ति संग्रह में बड़प्पन का अनुभव, परिवार में अविवेकपूर्ण मोह, विनोद में अतिरुचि जैसे प्रसंग ही सब कुछ हैं, उन्हें आत्मिक उत्कर्ष की बात सूझती ही नहीं। सूझती भी हो तो उन्हीं प्रसंगों में इतनी व्यस्तता रहती है कि जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कुछ पुरुषार्थ कर सकना संभव ही नहीं रहता। न उसके लिए समय ही बचता, न मनोयोग लगता है, न साधनों को उसके लिए प्रयुक्त करने का उत्साह उमड़ता है । ऐसी दशा में आत्मोन्नति की हलकी-फुलकी कामना, कल्पना मस्तिष्क के किसी कोने में पड़ी हुई भी हो तो उससे कोई महत्त्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। छुट-पुट पूजा-पत्री द्वारा आत्मिक-प्रगति की महान प्रक्रिया न सफल हो सकती है और न संभव।

विवेक द्वारा जब आत्मिक और भौतिक उपलब्धियों की तुलनात्मक विवेचना की जाती है तब पता चलाता है कि एक तराजू के एक पलड़े में काँच है और दूसरे में काँचन। शरीरगत इंद्रियलिप्सा, वासना और मनोगत लोभ, मोहजन्य तृष्णा, जिनके व्यक्तित्व पर आच्छादित हो गई है, जिन्हें इन दो के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं उनके लिए आत्मोन्नति का कोई महत्त्व भले ही न हो, पर जिन्होंने महामानवों के उज्ज्वल चरित्र, महान कर्त्तव्य और उनके अनुदानों के प्रति उमगती लोकश्रद्धा का यदि मूल्यांकन किया है तो प्रतीत होगा कि पेट और प्रजनन के लिए मरते-खपते रहने वाले नर-कीटकों की तुलना में आध्यात्मिक उपलब्धियों का महत्त्व कितना अधिक है। आंतरिक संतोष, उल्लास एवं अजस्रबल की अनुभूति आत्मतत्त्व की अभिवृद्धि से ही संभव है। सोचने की, पढ़ने-लिखने की, परिवार, उपार्जन, शासन एवं अगणित साधनों की जो सुविधाएँ मनुष्य को मिली हैं, वे किसी और प्राणी को नहीं मिलीं, केवल एक ही जीव को इतना मिलना अकारण नहीं है। ईश्वर ने मनुष्य को अपने सहायक-सहयोगी के रूप में सृजा है और आशा की है वह उसकी सृष्टि को सुंदर, समुन्नत, सुव्यवस्थित बनाने में योगदान करेगा। अन्य प्राणियों में अतिरिक्त जो भी अनुदान हैं वे मात्र इसी प्रयोजन के लिए है; पर यदि उस दिशा से मुँह मोड़ लिया जाए तो अंतरात्मा ईश्वरीय प्रयोजन को पूरा न करने की आत्मप्रताड़ना से निरंतर पीड़ित रहेगी। वह आंतरिक विक्षोभ जीवन की हर दिशा में फूटेगा और हर घड़ी क्षुब्ध, उद्विग्न, अशांत एवं खिन्न रहना पड़ेगा। इस अंतःविद्रोह को रोग, शोक, दारिद्रय, विक्षोभ, क्लेश-कलह, असंतोष, अनाचार के रूप में फूटता हुआ देखा जा सकता है। प्रचुर संपदा और सुख-साधन होते हुए भी मनुष्य तब तक सुखी नहीं रह सकता, जब तक वह जीवन लक्ष्य को पहचाने नहीं और अपनी दिशा जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए निर्धारित न करे।

विवेक का हृदय होते ही मनुष्य अपने आपको एक ऐसे चौराहे पर खड़ा पाता है, जहाँ उसे दिशा-निर्धारण करने की आवश्यकता अनुभव होती है, हवा के साथ उड़ते हुए पत्ते की तरह जहाँ परिस्थितियाँ ले जाएँ, वहीं जा पहुँचना अपरिपक्वता का चिह्न है। किधर चलना चाहिए, क्या करना चाहिए, क्या बनना और क्या पाना चाहिए? इन प्रश्नों का हल स्वतंत्र चेतन से, दूरदर्शी विवेक-बुद्धि के साथ किया जाना चाहिए। लोग क्या कहते हैं और क्या करते हैं यदि इस आधार पर अंधानुकरण भर करते रहा गया तो समझना चाहिए, सुरदुर्लभ अवसर के साथ मखौल करने वालों की पंक्ति में अपने को भी खड़ा किया जा रहा है।

भौतिकवादी जीवन लक्ष्य अपनाने वाला घोर परिश्रम और अनीति आचरण करने के उपरांत थोड़ी-सी संपत्ति एवं सत्ता उपार्जित कर सकता है, पर दुर्बुद्धि उसका सदुपयोग नहीं करने देती फलतः प्राप्त संपदाएँ अगणित उलझनें उत्पन्न करती हैं और वे इतनी जटिल होती हैं कि उनका हल करने के असफल प्रयास में अपने को ही गँवा गला देना पड़ता है। इंद्रियलिप्सा बिजली की चमक जैसी कौंधती है और भोग को प्राप्त हो, विलीन हो जाती है। कामनाएँ जब तक पूरी न हों तब तक वे बहुत आकर्षक लगती हैं; पर जैसे ही वे प्राप्त हुई कि नीरस लगने लगीं। न कोई वासनाएँ भोगने से तृप्त हुआ और न किसी को तृष्णा से संतोष हुआ। यह एक प्रकार की अग्नियाँ हैं जो मनुष्य को केवल जलाती ही रहती हैं। आग में घी डालने से वह बुझती नहीं भड़कती ही है। विषय भोगों से लेकर वैभव-वर्चस्व तक जैसे जितनी अधिकता प्राप्त होगी, वह उतना ही अतृप्त और उतना ही अशांत दिखाई पड़ेगा। लोभ और मोह में अंधा हुआ मनुष्य प्राप्त करने में तो एक हद तक सफल हो जाता है, पर उसे सदुपयोग करना तनिक भी नहीं आता। फलतः संपदाएँ उसे शूलती-हूलती रहती हैं और उत्तराधिकारियों के लिए हराम की कमाई के साथ जुड़ीं रहने वाली विपत्तियों की मेघमाना सिद्ध होती हैं। जो प्राप्त करना था, उससे विमुख रहा गया और पापों की भारी पोटली लादकर अंधकारमय भविष्य की ओर प्रयाण किया गया, यही है भौतिक जीवन की उपलब्धि। भूसी कूटने पर मिलता कुछ नहीं— कूटने वाले के हाथ में छाले भर स्मृति चिह्न रह जाते हैं। वासना और तृष्णा की मृगमरीचिका में भटकने वाले को मिलता कुछ नहीं— सुरदुर्लभ अवसर को कृमि-कीटों की तरह गँवा देने का पश्चात्ताप भर शेष रहता है। इतना ही नहीं, साथ ही पाप-पोटली के फल भुगतने के लिए चिरकाल तक चलने की नारकीय यंत्रणा भी गले बँध जाती है।

इसी भौतिक जीवन को जिया जाए तो कहना होगा कि बुद्धिमान कहलाने वाले ने अबुद्धिमत्ता की रीति-नीति अपनाई। समझदारी का तकाजा यह है कि शरीर और मन के खिलौनों को सजाने-रिझाने में ही सारी शक्ति खरच न कर दी जाए; वरन अपने आपे के हित-अनहित पर भी कुछ विचार किया जाए। आत्मसंतोष की, आत्मनिर्माण की, आत्मकल्याण की भी बात सोची जाए। इस तथ्य पर अधिकतम गहराई से विचार कर सकना इस बात का चिह्न है कि— प्रज्ञा का प्रकाश हो चला। सद्बुद्धि उदय हुई और आत्मज्योति का आलोक उभरा।

जीवन संपदा का उपयोग दो ही दिशा में होता है। एक को तमसाच्छन्न— भौतिक-आसुरी कहते हैं और दूसरी को ज्योतिर्मय— आत्मिक-दैवी कहा जाता है। इनमें से किसे अपनाया जाए, किस मार्ग पर चला जाए, इसका निर्णय करने में प्रत्येक मनुष्य पूर्णतया स्वतंत्र है। हाँ, वह अपने निर्णय के भले-बुरे परिणाम से नहीं बच सकता, इस संदर्भ में वह पराधीन है। विष खाना या अमृत पीना अपनी इच्छा पर निर्भर है; पर जब वह कदम उठा लिया गया तो मृत्यु या अमरता की प्रतिक्रिया की अविच्छिन्नता को समझकर चला जाए तो फिर रुदन-क्रंदन के लिए विवश होने की आवश्यकता न पड़े। सन्मार्ग पर चलकर ही सुखद सत्परिणाम संभव है, सद्बुद्धि के सहारे ही आंतरिक संतोष एवं आनंद मिल सकता है, इस आस्था का नाम ही आस्तिकता है। नास्तिकता इस विश्वास का नाम है कि दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों की रीति-नीति अपनाकर भी उसके दुखद प्रतिफल से बचा जा सकता है। स्वतंत्र चेतना की प्रशंसा इस बात में है कि वह देवपथ का वरण करे और महान बनने की आकांक्षा प्रदीप्त करके आत्मवादी रीति-नीति अपनाने के लिए साहसपूर्वक अग्रसर हो। अंततः यही निर्णय सर्वोपरि बुद्धिमता का चिह्न सिद्ध होता है। जिन्होंने देव-पथ चुना उन्हीं ने जीवन लक्ष्य की पूर्ति के साथ जुड़े हुए अजस्र आनंद का लाभ लिया है।

यह एक भयावह भ्रांति है कि जीवन लक्ष्य की पूर्ति छुट-पुट पूजा-पाठ करने या धार्मिक कर्मकांडों की लकीर पीट लेने से हो सकती है। साधना-उपासना भी एक सीमा तक ही इस प्रयोजन में सहायक हो सकती है। स्पष्ट है कि उपासनात्मक उपचारों को ‘साधन’ कहा जाता है, साध्य नहीं। साध्य है आत्मोत्कर्ष और उसके लिए चिंतन एवं कर्त्तृत्व से प्रखर, परिष्कृति का समावेश। जीवन लक्ष्य इसी का दूसरा नाम है। स्वर्गमुक्ति इसी के प्रतिफल हैं। आत्मसाक्षात्कार एवं ईश्वर दर्शन इस मनः स्थिति का नाम है। यदि अंतरंग और बहिरंग व्यक्ति को उत्कृष्टता की रीति के साथ जोड़ा न जा सके तो समझना चाहिए कि भजन-पूजन के सारे क्रियाकलाप बालक्रीड़ा जैसे निरर्थक और उपहासास्पद ही सिद्ध होंगे।

आत्मवादी जीवनक्रम का आरंभ यहाँ से होता है कि हम काय-कलेवर और कूटस्थ आत्मा की भिन्नता समझें और उनके स्वार्थों का वर्गीकरण करना सीखें। माया, मोहित, अज्ञानी जीव अपने आपे को शरीर एवं मन से विनिर्मित काय-कलेवरमात्र मानकर चलता है। अपने शुद्ध-बुद्ध रूप को एक प्रकार से पूर्णतया भूला रहता है। इंद्रियों की वासना, मन की तृष्णाएँ ही उसे जीवन लक्ष्य प्रतीत होती हैं। आकांक्षाएँ, संपत्ति संग्रह, अहंकार के पोषण और कुटुंबियों के व्यामोह में ये इतनी घुली रहती हैं कि और कुछ सोचने के लिए न मन को उत्साह रहता है, न शरीर को अवकाश। जब “अहं” का स्वरूप ही विस्मृत हो गया और कलेवर को ही आपा मान लिया गया तो स्वभावतः शरीर की वासना और मन की तृष्णा ही जीवनक्रम पर आच्छादित रहेगी। आत्मचिंतन, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण विकास की बात तब सूझेगी ही नहीं और सूझेगी भी तो अत्यंत फूहड़ ढंग से। आत्मवाद का अर्थ पूजा-पाठ को सीमित कर देना, उसमें जीवन के समग्र परिष्कार की आवश्यकता को अविच्छिन्न न मानना एक प्रकार से परले सिरे की भ्रांति है।

शारीरिक स्वस्थता के लिए व्यायाम का भी अपना स्थान है; पर आहार-बिहार की मर्यादाओं का उल्लंघन करके कोई चाहे कि हम मात्र व्यायाम के सहारे बलवान बन सकते हैं तो यह उसकी भूल है। व्यायाम अपने आप में कितना ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो, पर वह समग्र नहीं है। जप, तप एक प्रकार के आध्यात्मिक व्यायाम हैं। वे करने ही चाहिए; पर यह न भूल जाना चाहिए कि चिंतन और कर्त्तव्य की महत्ता आहार-विहार से भी बढ़कर है। यदि उनकी उपेक्षा की गई तो हाथ कुछ भी लगने वाला नहीं है। आज यही हो रहा है। धर्म और अध्यात्म क्षेत्र में मंत्र जाप, स्तोत्र, पाठ, तीर्थ-दर्शन, स्नान-ध्यान, कथा-कीर्तन, आसन-प्राणायाम जैसे कर्मकांडों का महत्त्व आकाश-पाताल जितना बताया जा रहा है और कहा जा रहा है कि इतने भर से ही समस्त आत्मिक और भौतिक मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाएँगी। इस मूर्खतापूर्ण शिक्षा का परिणाम यह हुआ कि लोग आत्मनिर्माण की महान प्रक्रिया को तिलांजलि देकर सस्ते कर्मकांडों से आत्मलाभ प्राप्त करने की आशा करने लगे। परिणाम यह हुआ कि आज अध्यात्मवाद की उपलब्धियाँ नगण्य हैं। 56 लाख साधु बाबाओं से लेकर करोड़ों भजनानंदी और कर्मकांडी लोगों में से उँगलियों पर गिनने जितने भी प्राणवान ऋषितुल्य व्यक्ति दिखाई नहीं पड़ते। व्यायाम करने वाले पहलवान बन जाते हैं, व्यापार करने वाले धनवान, पढ़ने वाले विद्वान, फिर क्या कारण है कि आत्मिक प्रयोजनों में संलग्न व्यक्ति सर्वथा छूँछ दृष्टिगोचर हो? किसान का श्रमधान्य से कोठे भरता है, मजदूर अपना वेतन लेकर घर में घुसता है, व्यवसायी को अपना लाभ प्रत्यक्ष दिखता है। फिर आत्मवादी को मरने के बाद परलोक में कुछ मिलने की आशा पर लटकाए रहा जाए, यह कहाँ तक उचित है। वस्तुतः अध्यात्म संसार का सबसे बड़ा लाभदायक व्यापार है। उसे जिसने अपनाया वह महामानव बना, लोकश्रद्धा उस पर निछावर हुई, संपदा और सफलता उसके पीछे-पीछे छाया की तरह फिरी,  इतिहासकारों ने उसके गुणगान करके अपनी लेखनी को धन्य बनाया, असंख्य भूले-भटकों ने उसके प्रकाश में अपना पथ-प्रशस्त किया। स्वयं का अंतस्थल दिव्य विभूतियों से इतना ओत-प्रोत रहा कि उपलब्ध आनंद को दोनों हाथों से चारों ओर उलीचकर संपर्क-क्षेत्र को चंदन बन जैसा सुरभित बनाया। आज ऐसे आत्मवादी व्यक्ति ढूँढ़े नहीं मिलते, इसका एकमात्र कारण वह भ्रांत दर्शन है, जिसने लोगों को पूजापरक कर्मकांडों को सब कुछ बताया है। काश, लोगों ने अध्यात्म का यथार्थ स्वरूप समझा होता और उन्हें वास्तविकता समझाई गई होती तो एक रुपये की लाटरी का टिकट खरीदकर लखपति बनने के सपने देखने वाले शेखचिल्ली शायद इस तरह भेड़ियाधसान न मचाते, तब शायद आज का कागज के बने गगनचुंबी रावण की तरह धर्म घटाटोप भी दिखाई न पड़ता; पर जो कुछ थोड़ा बहुत रह जाता उसमें शक्ति होती और उतनी-सी छोटी चिनगारियाँ भी बहुत कर गुजरने की भूमिका संपादित कर रही होतीं।

हमें हजार बार समझना चाहिए और लाख बार समझाना चाहिए कि अध्यात्मवाद जीवन-नीति को ही कहते हैं। पूजा, उपासना उसका शोभा-शृंगारमात्र हैं। इस दिशा में आज तक जिनने भी कुछ कहने लायक प्रगति की है, उन्होंने अनिवार्य रूप से आत्मबोध, आत्मशोधन और आत्मपरिष्कार की प्रक्रिया पूरी की है। हमें यदि खिलवाड़ का ही शौक हो तो हम तंत्र-मंत्रों के विधि-विधान में सीमित रह सकते है, यदि कुछ पाना हो तो कदम आगे बढ़ाने ही होंगे।

कहा जा चुका है कि आत्मबल संपादन के लिए, आत्मिक-प्रगति के लिए, पहला कदम आत्मबोध के रूप में उठाया जाना चाहिए। यह समझा ही नहीं, अनुभव भी किया जाना चाहिए कि शरीर और मन हमारे वाहन-उपकरणमात्र हैं। अपना यथार्थ स्वरूप आत्मा है। आत्मा ईश्वर का अंश है— परमेश्वर का उत्तराधिकारी राजकुमार। उसे अपना स्तर आत्मगौरव के अनुरूप ही बनाना चाहिए। वह सोचना वही करना चाहिए जो विश्वसम्राट के युवराज की गरिमा के अनुरूप हो। आत्मा के स्वार्थ, आत्मा के कर्त्तव्य, नर-पशुओं के स्तर के नहीं हो सकते, उन्हें देवोपम होना चाहिए। मनुष्य शरीर ईश्वर ने जिस विशेष प्रयोजन के लिए दिया है, उसी में उसे लगना लगाया जाना चाहिए। यदि इस बात का ध्यान बना रहे तो ओछी रीति-नीति नहीं अपनाई जा सकती। पेट और प्रजनन की आवश्यकता तो कीट-पतंग भी पूरी कर लेते हैं, मानव जीवन का उद्देश्य उससे ऊँचा है।

यह बात समझ ली जाए तो शरीर और मन को वाहन-उपकरण की तरह सन्मार्ग पर चलने के लिए सहायक के रूप में प्रयुक्त किया जाएगा। उनकी गुलामी करके लोभ, मोह की घिनौनी कीचड़ में फँसते जाने से साहसपूर्वक इनकार किया जाएगा। आत्मभूमिका में जागृत व्यक्ति विनाश के गर्त में गिरने के लिए दौड़ी जा रही अंधी भेड़ों के पीछे नहीं चलता; वरन अपने दूरदर्शी यथार्थवादी विवेक-चिंतन के आधार पर अपना मार्ग-निर्धारण स्वयं करता है और स्वयं ही अपने साहस के बलबूते उस दिशा में चल पड़ने का साहस बटोरता है। वह जानता है कि मार्गदर्शन तो जीवित या दिवंगत महामानवों से ही ग्रहण किया जाना चाहिए। नर-पशु तो कितनी ही बड़ी संख्या में क्यों न हों, भले ही वे अपने स्वजन, संबंधियों में ही भरे पड़ें हों, दया के पात्र हैं उन्हें तो प्रकाश दिया जाना चाहिए, भटकने से बचाकर रास्ते पर लाया जाना चाहिए। संपर्क निकटता के कारण उन्हें यह अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए कि उच्च आदर्शों से गिराकर निरुद्देश्य जीने वाले नर-कीटकों के रास्ते पर चलने के लिए बाध्य विवश करें।

जीवन के आत्मवादी क्षेत्र में प्रवेश करने वाले को आत्मबोध का प्रकाश ग्रहण करना चाहिए। निरंतर यह विचार करना चाहिए कि वह स्वयं क्या है, क्यों है? किस रीति-नीति को अपनाने में अपनी भलाई है। विवेकशीलता, दूरदर्शिता और यथार्थता को अपनाने का साहस आत्मबोध की एकमात्र देन है। जिसे अपने आपे का ज्ञान हो गया होगा, वह अज्ञानग्रस्त भीड़ का नेतृत्त्व अस्वीकार करेगा। प्रचलित परंपराओं और मान्यताओं से नहीं; वरन उच्च आदर्शों से ही प्रभावित होगा उन्हें ही स्वीकार अंगीकार करेगा। अपने को अल्पमत में पाने कि उसे चिंता नहीं होती और न इसकी परवाह रहती है कि कोई उसका उपहास करता है या स्तवन, न वह विरोध को देखता है, न समर्थन को। मात्र उसे उच्च आदर्श के लिए जीवन संपदा को नियोजित करने की चिंता होती है और इस प्रयोजन को वह विरोध, अवरोध की घनघोर घटाओं को चीरता हुआ भी पूरा करके रहता है। आत्मबलसंपन्न महामानवों में से हर किसी को इस प्रथम परीक्षा में होकर गुजरना पड़ता है, जिसे आत्मबोध हो गया वह इस दिशा में प्रयाण करता हुआ ही दिखाई देगा।

आत्मबोध को आत्मबल के रूप में देखा, परखा जा सकता है। आत्मबल जितनी मात्रा में उदय होता जाता है, उतने ही उसके प्रयास आत्मनिर्माण की दिशा में अग्रसर होते हैं। जन्म-जन्ममांतरों के कुसंस्कार आज के घिनौने वातावरण, दुष्प्रवृत्तियों के प्रवाह अंधड़ ने अपनी मनोभूमि को भी आच्छादित कर रखा हो, यह नितांत स्वाभाविक है। सुधार यहीं से आरंभ होता है, निर्माण का प्रथम केंद्र यहीं है— संसार को सुखी, समुन्नत और सुंदर बनाने का शुभारंभ अपने को सुधारने की प्रक्रिया के साथ आरंभ करना होता है। जीवन-साधना विशुद्ध रूप से एक संग्राम है, जिसे लड़े बिना आगे बढ़ने का कोई उपाय नहीं।

गीता के कृष्ण, महाभारत के अर्जुन को गांडीव उठाने के लिए ललकारते हैं। स्वयं पाँचजन्य बजाकर युद्ध घोषणा करते हैं। यह एक ऐतिहासिक प्रसंग नहीं; वरन हर आत्मवादी को अनिवार्य रूप से अपनाने के लिए प्रस्तुत ईश्वरीय मार्गदर्शन है। अपने कुसंस्कारों को, अवांछनीय आचरणों को, कुत्सित आकांक्षाओं की मूढ़विश्वासों को, भ्रष्ट अभ्यासों को बारीकी से ढूँढ़ना, खोजना पड़ेगा और उसकी सूची बनानी पड़ेगी। इन मल आवरण विक्षेपों से कैसे निपटा जाए, उन्हें निरस्त कैसे किया जाए, इसकी समग्र एवं सुव्यवस्थित योजना तैयार करनी होगी। अंतरंग पर अधिकार किए बैठे सौ कौरवों से निपटने के लिए पाँच पांडवों को जो करना पड़ा उसी में अपने मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और शरीररूपी पाँचों योद्धाओं को जुटाना पड़ेगा। जिस किसी के भी आत्मा में जब किसी भी परमात्मा का प्रकाश आता है, तब उसे महाभारत करने के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। आत्मपरिष्कार उसका प्रथम कर्त्तव्य हो जाता है।

जिन मान्यताओं और गतिविधियों में अवांछनीयता अनुभव की जाए, उनके कारण हो सकने वाली हानियों का सविस्तार चिंतन करना चाहिए और उन्हें डायरी में नोट कर लेना चाहिए। इसी प्रकार व्यक्तित्व में घुसी हुई दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों को त्याग देने पर जो अपना परिष्कृत स्वरूप निखरेगा उसकी देव प्रतिमा ज्ञानचक्षुओं के सम्मुख प्रस्तुत करनी चाहिए। दिव्य जीवन कितनी सिद्धियों और विभूतियों से संपन्न होता है, उसका सुंदरतम चित्र गढ़ना चाहिए और उसमें अपने को घुलाकर यह सोचना चाहिए कि जब हम उस दिव्य स्थिति में होंगे तो अपने लिए कितनी शांति अर्जित करेंगे और अपने संपर्क को किस दिव्य आलोक से प्रकाशित करेंगे। इस प्रकार का चिंतन, आंतरिक महाभारत की सफलता का पथ-प्रशस्त करता है। अवांछनीयता के दुष्परिणामों पर सत्प्रवृत्तियों के सत्परिणामों पर जिनका तर्कपूर्ण, तथ्यपूर्ण उदाहरण सहित, भावसिक्त चिंतन जितनी गहराई के साथ किया जाएगा उतना ही यथार्थवादी दृष्टिकोण परिष्कृत होगा और आत्मशोधन की दिशा में योजनाबद्ध रूप से बढ़ चलना संभव हो जाएगा। बैल को, घोड़े को, जिस तरह ठीक तरह काम करने का अभ्यास कराया जाता है और सख्त-सुस्त व्यवहार किया जाता है, उसी तरह मन से भी बरतना पड़ता है। साधना, तपस्या, तितीक्षा इसी का नाम है। अपनी आकांक्षाओं अभिरुचियों और आदतों को परिष्कृत करने के प्रयास ही आत्मसुधार या आत्मनिर्माण कहलाते हैं, साधना-समर में विजय प्राप्त वीरवर्ती ही आत्मोत्कर्ष की मंजिल पूरी करते हैं।

आत्मविकास जीवन लक्ष्य प्राप्ति की तीसरी मंजिल है। अपनी लिप्सा, लालसा में निमग्न रहना, प्रजनन आकर्षण के फलस्वरूप जिन स्त्री, बच्चों के साथ मोह जुड़ गया है उन्हीं के लिए मरते खपते रहना, यही है संकीर्ण स्वार्थपरता का अवरुद्ध जीवन। इसी को भवबंधन कहते हैं, मायाबद्ध जीव की दयनीय दुर्दशा का जो चित्रण किया गया है, उसे इसी बाधित जीवन की दुखद प्रतिक्रिया समझना चाहिए। मुक्ति का अर्थ है— लोभ और मोह से, स्वार्थ और संकीर्णता से, तृष्णा और वासना से छुटकारा। इसके लिए तत्त्ववेत्ताओं ने भक्तिभाव का, प्रेम प्रकाश का, सेवा-साधना का मार्ग बताया है। उदारता, करुणा, आत्मीयता का विस्तार जब होता है तो स्वभावतः दूसरों का दुख अपना दुख प्रतीत होता है और दूसरों के सुख में अपने सुख की अनुभूति होती है। ऐसी मनःस्थिति में व्यापकता और उदारता की मात्रा बढ़ती चली जाती है। आत्मविस्तार के साथ अपने पराए का भेदभाव मिटता जाता है और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का आदर्श व्यवहार में अधिकाधिक प्रविष्ट होता चला जाता है। तब मनुष्य को स्वार्थी न रहकर परमार्थी बनना पड़ता है। अपने विलास-वैभव पर नियंत्रण करना पड़ता है और परिवार के लिए उतना ही करना पर्याप्त लगता है जो कर्त्तव्य की माँग है। परिवार को सुयोग्य बनाया जाए ठीक है; पर उनके लिए धन-संपदा छोड़कर मरना अपनी क्षुद्रता का परिचय देना है, इससे उत्तराधिकारी हरामखोर और व्यसनी बनते हैं। औलाद को श्रमजीवी बनने देना चाहिए। उनके भरण-पोषण की उचित आवश्यकता पूरी करने के बाद जो समय, श्रम,ज्ञान, प्रभाव, स्नेह, साधन बचता है, उसे लोक-मंगल के लिए देश, धर्म, समाज, संस्कृति के लिए, संसार के पिछड़ेपन और अज्ञान को दूर करने के लिए खरच किया जाना चाहिए। इस दिशा में जिसका जितना साहस, त्याग, उत्साह और कर्त्तृत्व बढ़ चला, समझना चाहिए आत्मविकास की कसौटी यही है कि ‘स्व’ की परिधि को अधिकाधिक बढ़ाते चला जाए। दूसरों के शरीर में भी अपना ही आत्मा प्रतिष्ठापित दिखाई पड़े। जो सुख-सुविधा और उन्नति अपने लिए सोची, चाही और बढ़ाई जाती है उसी को दूसरों के लिए बढ़ाना भी आवश्यक प्रतीत होने लगे तो समझना चाहिए कि आत्मविस्तार की, आत्मोन्नति की, आत्मविकास की प्रक्रिया संपन्न हो रही है।

आत्मबोध, आत्मनिर्माण और आत्मविकास की त्रिविधि आत्मोत्कर्ष प्रक्रिया अपनाने के लिए जो साधना करनी पड़ती है, उसका क्रम अहर्निश चलता है। जागने से लेकर सोने तक का प्रत्येक क्षण इस प्रयास में लगाना पड़ता है कि चिंतन में उत्कृष्टता का और कर्त्तृत्व में आदर्शवादिता का परिपूर्ण समावेश रहे। अपनी कोई भाव तरंग उच्च गौरव से गिरी पिछड़ी न रहे, अपनी कोई हलचल ऐसी न हो जो ईश्वर के पुत्र की गरिमा के माथे पर कलंक-कालिमा लगाए। उचित-अनुचित का, श्रेय और प्रेय का निरंतर अंतर करते रहने वाली, सन्मार्ग पर अग्रसर करने वाली ऋतंभरा प्रज्ञा को जिन्होंने सर्वोपरि प्रतिष्ठा प्रदान की है वस्तुतः वे ही आत्मज्ञानी हैं। आत्मोत्कर्ष उन्हीं का हो सकता है जिन्होंने अपने सोचने और करने की समस्त हलचलों में उच्चस्तरीय तत्त्व दर्शन का समावेश कर सकने में सफलता प्राप्त की है। इस महान प्रयास में पूजा, उपासना भी एक अंग है। भोजन में नमक शक्कर का जितना स्थान है, उतना ही मूल्य जप भजन का भी है। क्षुधा तो आहार से पूरी होती है, आत्मकल्याण तो जीवन-साधना की तत्परता पर निर्भर रहता है।

हमें आत्मकल्याण की राह ढूँढ़नी चाहिए। आत्मबल संपादित करना चाहिए और आत्मप्राप्ति के अजस्र आनंद का लाभ लेकर मानव जीवन को धन्य बनाना चाहिए।

इस प्रकार का आत्मवादी चिंतन यदि अंतःकरण में स्थान प्राप्त कर सके तो समझना चाहिए ज्ञान चेतना सार्थक हो गई। यदि कर्त्तृत्व में दिव्य क्रियाकलाप का समावेश हो सके तो समझना चाहिए सुरदुर्लभ मानव-काया का ईश्वरीय अनुदान सार्थक हो गया। असत् से सत् की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर, यदि हम चल सके तो ही जीवन की महान उपलब्धि को धन्य माना जा सकेगा।


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