विद्युत वैज्ञानिक की दृष्टि में पृथ्वी एक चुंबकीय शक्ति से भरा पूरा गोला है। रासायनिक पदार्थों का अस्तित्त्व अवश्य है पर उनकी क्षमता, कार्य-प्रणाली, परिवर्तन-पद्धति, सम्मिश्रण से रूपांतरण की प्रक्रिया जैसी हलचलों के पीछे वह विद्युतशक्ति ही काम करती है, जिसे प्रत्येक पदार्थ का प्राण कहना चाहिए। यदि इसका अपहरणकर लिया जाए, तो वस्तु अपनी मौलिक विशेषताएँ खो बैठेगी और मृततुल्य बन जाएगी।
यह तथ्य न केवल वस्तुओं के संबंध में है,अपितु जीवित प्राणियों के संबंध में भी है। जीवन और मृत्यु के बीच अंतर करने वाले तत्त्व को अध्यात्म की भाषा में ‘प्राण’ कहा जाता है । भौतिकविज्ञानी उसे बिजली की ही एक किस्म मानते हैं।
यह शरीरविद्युत जिसके शरीर में जितनी अधिक मात्रा में संचित होती है, वह उतना ही अधिक तेजस्वी, सुंदर, सक्रिय, स्फूर्तिवान, ओजस्वी, प्रतिभावान दिखाई पड़ता है। शरीर की रोग-निरोधकशक्ति एवं मस्तिष्क की सूक्ष्मदर्शिता, दूरदर्शिता, बुद्धिमत्ता इसी विद्युत पर निर्भर है।
स्वभाव के मिठास को आमतौर से आकर्षण कहा जाता है। अंग की कोमलता में भी जिस सौंदर्य की झाँकी होती है, उसमें भी शरीर शास्त्रीय दृष्टि से विद्युत कंपन की ही विशेष थिरकन समाई रहती है। किसी की आँखों में, किसी के होठों में, किसी की ठोड़ी आदि में विशेष मनमोहकता रहती है, इसका तात्विक विश्लेषण करने पर मानवी शरीर की बिजली ही लहराती सिद्ध होती है। इसमें जब कमी होने लगती है, तो शरीर रूखा, नीरस, कुरूप, शिथिल, निस्तेज, दिखाई पड़ने लगता है। आँखों में दीनता, चेहरे पर उदासी छाई रहती है, इस विघटन को देखकर इसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि तेजस्विता की तरंगें शिथिल हो गई और अभीष्ट-ऊर्जा का अभाव हो गया।
शरीर में रक्त-मांस की वृद्धि के लिए उपाय किए जाते हैं। पर इस तथ्य पर पहुँचने में भूल की जाती है कि आग मंदी पड़ जाने पर पकने और पचने की क्रिया ही नहीं, उमंग और उत्कर्ष का प्रत्येक पक्ष शिथिल पड़ जाता है। यह अभाव समस्त शरीर की दुर्बलता अथवा अंग विशेष की अशक्तता के रूप में प्रकट होकर मनुष्य को रुग्ण बनाता है। बीमारी में रोग-कीटाणुओं की खोज की जाती है। इनकी उपस्थिति कारण नहीं लक्षणमात्र है। जिस तरह निर्जीव प्राणरहित मांस में कीड़े पड़ जाते हैं, उसी प्रकार देह में विद्युत की अभीष्ट मात्रा में जहाँ कमी आई वहाँ उस अर्धमृत काया पर तुच्छ-से कीटाणु अपना अंग जमाते और वंश बढ़ाते चले जाते हैं। यदि शरीर में गर्मी की बिजली की आवश्यक मात्रा विद्यमान हो, तो उसके प्रचंड तेज में किसी विजातीय द्रव को, रोग-कीटक को जीवित रहने का अवसर नहीं रहता। बाहर के आक्रमणकारी कीटाणु उसमें प्रवेश करते ही जल-भुनकर नष्ट हो जाते हैं।
पृथ्वी की चुंबकीय शक्ति से जड़-चेतन जगत भर-पूरा लाभ उठाता है। मनुष्य ही नहीं अन्य प्राणी भी उससे लाभांवित होते हैं। पक्षी ऋतु-परिवर्तन के अनुरूप सुविधाजनक स्थानों में आते जाते रहते हैं। इसके लिए, उन्हें हजारों मील लंबी महासागरों को पार करती हुई, लंबी उड़ाने-उड़नी पड़ती है। बहुधा यह उड़ाने रात्रि में होती हैं। यह पक्षी किस प्रकार दिशाज्ञान प्राप्त करते हैं और कैसे अभीष्ट स्थानों तक पहुँचते हैं? इनका मार्गदर्शन कौन करता है? इसका उत्तर पृथ्वी की ध्रुवीय आकर्षणशक्ति से ही मिलता है। यह पक्षी ग्रीष्मांत में उत्तर से दक्षिण की ओर और बसंत में दक्षिण से उत्तर की ओर उड़ते हैं। अपनी अतींद्रिय चेतना के आधार पर, यह पक्षी पृथ्वी की चुंबकीय रेखाओं का ही सहारा लेते हैं और बिना भूले अपने अभीष्ट लक्ष्य तक जा पहुँचते हैं।
अपने भीतर देवत्त्व का आकर्षणतत्त्व भरे हुए महामानव धरती की तरह ही अदृश्यरूप से असंख्य मनुष्यों का सूक्ष्म मार्गदर्शन करते रहते हैं। प्रत्यक्ष में भले ही उनकी यह क्रिया दीख नहीं पड़ती, पर अतींद्रिय चेतना के आधार पर असंख्य मानवों को उस अदृश्य प्रेरक से ऐसा प्रकाश-प्रोत्साहन और साहस मिलता रहता है, जिसके सहारे वे लक्ष्य तक सफलतापूर्वक पहुँच सकें।
पक्षी ही क्यों— "अतिक्षुद्र जीव भी धरती की उस चुंबकीय क्षमता से अनायास ही प्रेरणा ग्रहण करते और प्रभावित होते रहते हैं। ‘टर माइट’ नामक एक कीड़ा अपने घर सदा पृथ्वी की चुंबकीय रेखाओं के समानांतर ही बनाता है।"
मनुष्य शरीर की गतिविधियाँ इसी व्यापक चुंबकीय प्रेरणा से प्रभावित हैं। जीवकोषों के सूत्र-विभाजन की आरंभिक और मध्यावस्था का चुंबकीय शक्ति रेखाओं के साथ आश्चर्यजनक तालमेल है। कोषों का विभाजन में क्रोमोज़ोम निरंतर सेलों के ध्रुवों की ओर ही चलता है।
विद्युत और चुंबक में परस्पर अत्यधिक घनिष्ठ संबंध है। डायनेमो की रचना स्पष्ट करती है कि चुंबकीय-क्षेत्र का परिवर्तन विद्युतधारा उत्पन्न करता है। इसी प्रकार यदि विद्युतधारा किसी लौहखंड में प्रवाहित की जाए, तो वह भी चुंबक बन जाता है। यह तथ्य बताते हैं कि— "ऊर्जा-क्षमता ही चुंबक के रूप में परिणत होता है। आत्मबलसंपंन व्यक्ति ही अपने में प्रभावात्मक आकर्षण पैदा करते हैं और आकर्षक-स्वभाव वाले शक्तिसंपंन बनते हैं। उसे अन्योन्याश्रय संबंध ही मानना चाहिए। एक को प्राप्त करने के उपरान्त दूसरी विशेषता अनायास ही उत्पन्न होती है"।
रक्तनलिकाओं में लौहयुक्त हीमोग्लोबिन भरा पड़ा है। यह लौह ही विश्वव्यापी चुम्बकत्त्व को अपनी ओर आकर्षित करता है और उस संचय के आधार पर शरीर का क्रियाकलाप चलाते रहने योग्य बिजली प्राप्त होती है। यदि यह लौहतत्त्व शरीर में कम पड़ जाए, तो मनुष्य निर्जीव और अनाकर्षक बनता चला जाएगा और जीवित न रह सकेगा।
हिन्दू शास्त्रों में, हिन्दू धर्मग्रन्थों में, जापानी परंपराओं में इस बात का प्रतिपादन है कि सिर उत्तर की ओर और पैर दक्षिण की ओर करके सोना चाहिए। इसके औचित्य की रीचेन बैक, डूरविले, क्लोरिक, अब्रावस, रेग-नाल्ट लिंप्रिस, मुलर प्रभृति अनेक मनःशास्त्रियों ने लंबी खोज की और उसे ही सही बताया। उनने यही निष्कर्ष निकाला है कि सही और गहरी नींद के लिए उत्तर की ओर— "उत्तरी ध्रुव की ओर मस्तिष्कीय चुंबक का रुख रहना चाहिए। उत्तर को सिर करके सोना ही ठीक है।"
डॉक्टर मौरिनेस्को ने अपने प्रयोगों में चुंबकीय उपकरण द्वारा तीसरी वोट्रकिल को धन ध्रुवीण करके कृत्रिम निद्रा उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की है। मस्तिष्क को अचेत करने वाले इन्जेक्शनों की तरह ही इस प्रयोग का प्रभाव सम्भव पाया गया। लोहे के पलंगों की अपेक्षा लकड़ी की चारपाई की- लोहे की छड़ी या टीन की चादर से बने मकानों की अपेक्षा लकड़ी मिट्टी या फूँस के पटाव को अधिक उपयुक्त इसलिये पाया गया कि ध्रुवीय विद्युत संचार का- आकाशीय विद्युत- फेराडेन्डेज का अनावश्यक संग्रह शरीर में न होने पावे। अनावश्यक संग्रह हर चीज का अहितकर होता है। चुम्बकत्व की अनावश्यक मात्रा शरीर और मस्तिष्क में ठूँसने वाले लौह उपकरण इस दृष्टि से यदि अनुपयुक्त माने गये हैं तो यह तर्कसंगत ही है।
पृथ्वी दृश्यरूप से मिट्टी, पानी, खनिज, वनस्पति आदि का समन्वय दीखती है, या सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर वह एक विशाल चुबक ही प्रतीत होती है । मानव शरीर भी यों रक्त, मांस, अस्थि, त्वचा आदि का समूह दीखता है, पर तात्विक दृष्टि से उसे भी एक चलता फिरता सजीव चुंबक ही कहना चाहिए।
शरीर का प्रत्येक कोषाणु एक विद्युत इकाई है। जिस तरह पौधे अपने पत्तों द्वारा आकाश से सांस वायु ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार यह कोषाणु आकाशीय वायु मंडल से ‘फ्रीक्वेन्सी आवृत्ति’ खींचते हैं। उन्हीं के आधार पर वे अपना वाइब्रेट (कंपन) एवं आसीलेट (दोलन) क्रम चलाते हैं।
स्विट्जरलैंड के डॉक्टर फिलिप्स आरोलस पेरा सेलसंस ने कितनी ही बीमारियों का कारणशरीरगत चुम्बकत्त्व की विकृति एवं विशृंखलता को सिद्ध किया है। ऐसे रोग जिनका कारण डॉक्टर ठीक से समझ नहीं पा रहे थे और चिकित्सा के अनेक प्रयोगों में असफल रह रहे थे, डॉक्टर फिलिप्स ने रुग्ण केंद्रमूलों में चुंबक की आवश्यक मात्रा पहुँचाकर उन रोगों से मुक्ति दिलाई।
चुंबकत्त्व का उत्तरी ध्रुव जीवाणु-क्रिया को नियंत्रित करता है और दक्षिणी ध्रुवशक्ति पोषण की आवश्यकता पूरी करता है। अस्वस्थता को इन दो वर्गों में वर्गीकृत करके यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि चुंबक की दोनों धाराओं में से किसका, कहाँ और कितना उपयोग किया जाए?
‘मेडीकल वर्ल्ड न्यूज’ पत्रिका में शिकागो की वायो मैगनेटिक रिसर्च फाउण्डेशन द्वारा किए गए। इस संदर्भ के अनुसंधानों का विस्तृत विवरण छपा है। हंगरी निवासी डॉ. जीन बारगेथी के प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकला है कि विषाणुओं से निपटने और कोषाणुओं की अशक्तता को दूर करने में चुंबक के प्रयोग आश्चर्यजनक रीति से सफल हो रहे हैं। इस चिकित्सा पद्धति का स्वतन्त्र नामकरण किया गया है—’वायोमैगनेटिक्स’।
‘फेट’ पत्रिका में जीसेफ एफ. गुडवेज का एक लेख छपा है, उसमें उन्होंने चुंबकत्त्व के प्रभाव परिणामों पर विस्तृत प्रकाश डाला है। इसी विवरण में उन्होंने डॉक्टर के. ई. मेकलीन के निजी प्रयोग की चर्चा की है और कहा है कि वे प्रतिदिन 3600 ग्रास चुंबकीय-क्षेत्र का अपने शरीर पर प्रयोग करने के कारण स्वास्थ्य को अक्षुण्ण रखने में सफल रहे हैं। वे 64 वर्ष की आयु में भी 45 वर्ष जैसे लगते हैं।
प्रख्यात चिकित्सा विज्ञानी फ्रांसिस विक्टर व्रोसाइस और डॉक्टर हार्वर्ड डी स्टेंगल ने चुंबक चिकित्सा के अनेक उदाहरणों का विवरण प्रस्तुत करते हुए, बताया है कि उसकी उपयोगिता और संभावनाएँ विश्व की किसी भी चिकित्सा प्रणाली से कम नहीं हैं।
मस्तिष्कीय विकृतियों में साधारणतया औषधियों का उपचार कुछ विशेष कारगर सिद्ध नहीं हुआ है। मूढ़ता, मंद बुद्धि, आवेश, आदतों की जकड़न से लेकर मृगी और उन्माद तक के औषधि उपचार यों होते तो रहते हैं, पर उनका प्रभाव अति स्वल्प ही देखा जाता है। इस क्षेत्र में जो थोड़ी बहुत सफलता मिली है उसका श्रेय विद्युत चिकित्सा को ही है। बिजली के झटके देकर अक्सर सनक और उन्माद का इलाज मानसिक अस्पतालों में किया जाता है और उनमें सफलता भी मिलती है। डॉ. के. हिलाल ने मस्तिष्कीय मूढ़ता और विकारग्रस्तता के लिए चंबक का प्रयोग करके, यह पाया कि इस माध्यम से उन कोषों को अधिक सुविधापूर्वक स्पर्श किया जा सकता है, जो इस प्रकार की रुग्णता के लिये उत्तरदाई है।
मनुष्य शरीर में बिजली की उपस्थिति न तो स्वल्प है और ने महत्वहीन। बालों में कंघी करके उतनी भर रगड़ से उत्पन्न चुंबक को देखा जा सकता है। बालों से घिसने के बाद कंघी को लोहे की पिन से स्पर्श करें, तो उसमें चुंबक के गुण विद्यमान मिलेंगे। निर्जीव बालों में ही नहीं सजीव मस्तिष्क में भी बिजली की महत्त्वपूर्ण मात्रा विद्यमान है। अन्य बिजलीघरों की तरह वहाँ भी बनाव-बिगाड़ का क्रम चलता रहता है। इस मरम्मत में चुम्बकीय चिकित्सा का आशाजनक उपयोग किया जा सकता है।
हमें शरीर एवं मन को सजीव, स्फूर्तिवान तेजस्वी बनाने के लिए, अपनी विद्युतशक्ति को सुरक्षित रखने का ही नहीं, इस बात का भी प्रयत्न करना चाहिए कि उसमें निरंतर वृद्धि भी होती चले। क्षतिपूर्ति की व्यवस्था बनी रहे। यह प्रयोजन, प्राणायाम, षट्चक्र-वेधन, कुण्डलिनी योग एवं शक्तिपात जैसी साधनाओं से संभव हो सकता है।