साँस मत लो— "इस हवा में जहर है"

September 1972

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वाशिंगटन के बाजारों में ‘गैस मास्क’ पहने हुए नवयुवकों का एक जुलूस निकला। प्रदर्शनकारियों के हाथ में तख्तियाँ थी “साँस मत लो। इस हवा में जहर है।”

डिव्राइट नदी पर स्थित एक इस्पात मिल के दरवाजे पर वहाँ की स्त्रियों ने धरना दिया। यह स्त्रियाँ गले में तख्तियाँ बाँधे बैठी थीं, हमारे “सुंदर परिवार को जहर पिलाकर मत मारो।”

कनेक्टिक्ट के कालेज में छात्रों ने एक जुलूस निकाला उसमें एक गाड़ी पर पेट्रोल इंजन रखा हुआ था। उस पर बड़े-बड़े पोस्टर लगे थे— "हवा को जहरीली बनाकर अगणितों को मौत की आग में धकेलने वाला शैतान यही है।" इंजन को भारी भीड़ के सामने गड्ढा खोदकर दफनाया गया, उसकी कब्र बनाई गई और उस पर लिखा गया— ”शैतान का संतरी।”

ब्रिटिश वैज्ञानिकों का कथन है कि पिछले दिनों लगभग साढ़े तीन खरब टन कार्बन डाइ ऑक्साइड छोड़ी गई है। यह विषैली गैस जलवायु में बुरा असर भर रही है। सूर्य की गरमी धरती पर तो आ जाती है, पर उस गैस की अधिकता उसे वापिस जाने से रोकती है। क्रम यही रहा तो इस शताब्दी के अंत तक वायुमंडल का तापमान दो अंश सेन्टीग्रेड बढ़ जाएगा। इससे ध्रुवों की बरफ पिघल सकती है। उससे समुद्र में पानी बढ़ेगा और सागरतट पर बसे हुए अनेक नगर पानी में डूब जाएगें और बड़ी मात्रा में उपजाऊ जमीन उसी में विलीन हो जाएगी।

श्रीमति राइखेल कार्सन ने अपनी पुस्तक ‘साइलेंट स्प्रिंगों’ में कृमिनाशक घोल डी.डी.टी. के अंधाधुंध प्रयोग से उत्पन्न खतरे की ओर सर्वसाधारण का ध्यान खींचा है और कहा है कि कीड़ों के साथ ही मनुष्यों को भी न मार डाला जाए। इस विष की थोड़ी मात्रा भी मनुष्य के शरीर में जाकर दूरगामी दुष्परिणाम उत्पन्न करती है।

उन्होंने जहाँ तापमान बढ़ने, ध्रुवों के पिघलने से जलप्रलय की बात कही है, वहाँ इसके ठीक विपरीत एक दूसरी संभावना भी व्यक्त की है कि यदि बढ़े हुए धूलि कणों की छतरी के नीचे सूर्य की गर्मी न आ सकी और वह ऊपर ही रुकने लगी, तो तापमान घट जाने से हिमप्रलय भी हो सकती है और गर्मी के अभाव में जीवधारियों के लिए संकट भी उत्पन्न हो सकता है।

जर्मनी के फेडरल रिपब्लिक में हिसाब लगाया गया है कि उस देश के उद्योग हर साल 2 करोड़ टन विषाक्त द्रव्य हवा में उड़ाते हैं। इनमें कोयले की गैस, तेल की गैस तथा जमीन खोदकर इन पदार्थों को निकालते समय उड़ने वाली गैसें मुख्य हैं। कार्बन मोनोक्साइड 20 लाख टन, सल्फ्यूरिक ऑक्साइड 25 लाख टन, नाइट्रस ऑक्साइड 30 लाख टन और हाडड्रो कार्बन की 25 लाख टन मात्रा धूलि बनकर आसमान में उड़ती है और उसकी प्रतिक्रिया प्राणियों के लिए विघातक होती है।

सन् 1963 की उस घटना को न्यूयार्क निवासी भूले नहीं हैं; जिसमें वायु के दबाव से विषाक्त धुंध छाई रही और 400 व्यक्तियों के देखते-देखते दम घुट गए। सन् 52 के दिसंबर में लंदन में भी इसी धुंध ने कहर ढाया था और महामारी की तरह अनेकों को रुग्ण बनाया था, अनेकों को मौत की गोद में सुलाया था।

औद्योगिक कारखाने निरंतर, कार्बन डाई ऑक्साइड, सल्फर ऑक्साइड, डाइ ऑक्साइड, क्लोरीन, जली हुई रबड़ जैसे लगभग 300 प्रकार के विष उत्पन्न करते हैं। यह हवा में छा जाते हैं और उस प्रदेश में साँस लेने वालों को उसी हवा में साँस लेने के लिए विवश रहना पड़ता है। बेचारों को यथार्थता का पता भी नहीं चलता कि इन शहरों में दीखने वाली चमक-दमक के अतिरिक्त यहाँ वायु में विषाक्तता भी है, जो स्वास्थ्य की जड़ें निरंतर खोखली करती चली जाती है।

अमेरिका की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा तथा राष्ट्रीय केंसर संस्था ने औद्योगिक नगरों के वायुमंडल का विश्लेषण करके पता लगाया है कि उसमें जो पायरीन जैसे इस प्रकार के तत्त्वों की भरमार है, वह मनुष्यों और जानवरों में कैंसर उत्पन्न करते हैं।

गत बीस वर्षों में फेफड़ों के केंसर की चार सौ प्रतिशत वृद्धि हुई है। डाक्टरों का कहना है कि मोटर-गाड़ियों तथा कारखानों की चिमनियों से निकलने वाला धुँआ इसका प्रमुख कारण है। अमेरिका की वायुदूषण संस्था ने पता लगाया है कि उस देश के कारखाने हर रोज एक लाख टन प्राणघातक सल्फर डाइ ऑक्साइड गैस उगलते हैं। नौ करोड़ मोटरगाड़ियों से निकलने वाली ढाई लाख कार्बन मोनो ऑक्साइड का दैनिक योगदान इसके अतिरिक्त है। मोटरों के धुँए में ‘ट्रट्राइथाइल लेड’ मिला होता है वह मनुष्यों के स्नायुमंडल में अस्त-व्यस्तता और दिमाग में गड़बड़ी उत्पन्न करता है। पेट्रोल में शीशे की मात्रा बढ़ती जाने से यह विषाक्तता और भी अधिक बढ़ी है।

अमेरिका तथा योरोप के कतिपय देशों में पशु-पक्षियों की प्रजनन क्षमता में भारी कमी आई है। अमरीकी कृषि विभाग ने अपने रोग निरोधक कार्यक्रमों में डी.डी.टी. आदि प्रभावी कीटनाशकों पर अस्थायी रोक लगा दी है और उस हानि से बचने का उपाय खोजा जा रहा है जो इन रसायनों के प्रयोग से उठानी पड़ती है।

लॉरेल (मेरीलेण्ड) स्थित ब्यूरो आफ स्पोर्ट फिशरीज एण्ड वाइल्ड लाइफ संस्थान के तत्त्वावधान में दो वैज्ञानिकों ने इस संबंध में विशेष खोज की है। इनके नाम है आर.डी.पोर्टर और एस.एन. वायमेयर, उन्होंने कुछ पक्षियों पर परीक्षण किये। उनके भोजन में इतनी अल्प मात्रा इन कृमिनाशक रसायनों की मिलाई जिससे प्रत्यक्षतः उन पर कोई घातक प्रभाव न पड़े। लगातार दो वर्ष तक उस परीक्षण के तीन परिणाम निकले (1) घोंसलों में से उनके अंडे गुम होने लगे (2) स्वयं पक्षी अपने अंडों का नाश करने लगे (3) अंडों के ऊपर का खोल बहुत पतला पड़ गया। यह पतलापन 10 प्रतिशत तक को गया। फलस्वरूप वे अण्डे तनिक से आघात से टूटने लगे। यहाँ तक कि मादा जब उन्हें सेने के लिये उठती-बैठती या करवट बदलती तो उतने में ही वे फट पड़ते।

आश्चर्य यह था कि पक्षी अपने आप अपने अण्डे खाने लगे। आमतौर से ऐसा कहीं अपवाद स्वरूप ही होता है कि कोई मादा अपने अण्डे बच्चों को खाती है। नासमझी या आपत्तिकाल की बात अलग है, सामान्यतया क्रूर या हिंसक समझे जाने वाले पशु-पक्षी भी अपने अण्डे बच्चों को प्यार करते हैं और उनकी रखवाली पर पूरा ध्यान देते हैं। पर यह पक्षी इतने भावना शून्य और आलसी हो गये कि खुराक ढूंढ़ने जाने का कष्ट उठाने की अपेक्षा घर में रखे इस भोजन से ही काम चलाने लगे। मातृत्त्व की प्रकृति प्रदत्त भावना और प्रेरणा को भी उठाकर उन्होंने ताक पर रख दिया।

यह प्रभाव था जो दो वर्ष के अंदर ही पक्षियों पर देखा गया और वह भी तब जबकि आहार में मिलावट की मात्रा 1.3 पी.पी.एम. (एक पी.पी.एम. बराबर है दस लाखवें भाग के) जितनी स्वल्प थी। अंडों की संख्या का घटना, उनका छोटा और हलका होना तो प्रत्यक्ष ही था। कई पक्षी ऋतुसेवन करने के बाद भी गर्भधारण करने से वंचित रहे, जबकि आमतौर से पक्षियों का ऋतुसेवन शत-प्रतिशत प्रजनन में ही परिणत होता है।

उनके स्वास्थ्य पर अथवा पीढ़ियों पर स्वल्प विषसेवन का क्या प्रभाव पड़ेगा, यह जानना अभी शेष है। फिर आशंका यह की जा सकती है कि आगे चलकर उनके स्वास्थ्य में अवाँछनीय दुष्परिणाम देखे जा सकते हैं और पीढ़ियों पर बुरा असर पड़ सकता है।

कृमिनाशक— 'पेस्टिसाइड'— "रसायनों का आजकल बहुत प्रचलन है। समझा जाता है कि इनके द्वारा फसलों और पेड़-पौधों की रक्षा होती है। पेड़-पौधों और फसलों का बचाव किया जाना चाहिए, पर साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि वह बचाव कही घातक तो नहीं बन रहा। अंधी दौड़ दौड़ने की अपेक्षा यही उचित है कि गुण दोषों का गंभीरतापूर्वक विवेचन किया जाए और ऐसा संतुलन कायम किया जाए; जिससे विघातक सुरक्षा के फंदे में फँसकर हम उलटे अपने पैरों में कुल्हाड़ी न मारने लगें। डी.डी.टी.-डाइएल्ड्रिन आदि क्लोरीन युक्त हाइड्रो कार्बन का प्रयोग इन दिनों जिस आवेश और उत्साह के साथ किया जा रहा है, उसमें उन हानियों को भुला दिया गया है, जो इन प्रयोगों के कारण मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों को उठानी पड़ रही है।"

प्रश्न पक्षियों का नहीं मनुष्यों का है। उन बेचारों पर तो सिर्फ परीक्षण किया गया है और देखा गया है कि कीड़ों से बचने के नाम पर जिस अनाज पर पेड़-पौधों पर यह कीटनाशक विष छिड़के जाते हैं वे घूम फिरकर मनुष्य के पेट में भी जाते हैं और वही प्रभाव डालते हैं, जो पक्षियों पर पड़ा। इस प्रकार धीमी गति से आत्महत्या करते हुए बेमौत मरने के लिए आगे बढ़ते चले जा रहे हैं, पुराने जमाने में भूत पलीतों की-ओझा तान्त्रिकों की कमान चढ़ी हुई थी, वे जिधर नचाते थे उधर लोग नाचते थे, अब वह पद विज्ञान और वैज्ञानिकों को मिल गया है। अनपढ़ों के अंधविश्वास को पढ़े-लिखों ने दूर किया अब इन पढ़े-लिखों में फैले हुए अन्धविश्वास को कौन दूर करेगा— "यह बहुत बड़ा प्रश्न है।"

रोम की राष्ट्रीय अनुसन्धान समिति के अनुसंधान निर्देशक श्री राबर्टो पैसिनो ने संरक्षण समस्याओं पर आयोजित एक सम्मेलन में ‘दी फैक्टस आफ इंडस्ट्रियलाइजेशन आन दी एनवाइरनमेन्ट’ विषय पर एक निबंध पढ़ा। इसमें उनने जलवायु दूषण से उत्पन्न समस्याओं से आक्रांत योरोप की दयनीय दुर्दशा का चित्र खींचा। उन्होंने कहा— "उद्योगीकरण की घुड़दौड़ में लोग यह भूल गए हैं कि उसके साथ जो खतरे जुड़े हुए हैं उनका भी ध्यान रखें। संपत्ति उपार्जन की इच्छा इतनी अनियंत्रित नहीं होनी चाहिए कि उसके बदले व्यापक जीवनसंकट का खतरा मोल लिया जाए। इस दृष्टि से ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रान्स, बेल्जियम जहाँ औद्योगीकरण देर से चल रहा है, स्थिति बहुत ही बुरी है। जर्मनी में सल्फरडाइ-ऑक्साइड गैस की मात्रा बढ़ जाने से 1,30,000 एकड़ वन संपदा नष्ट हो रही है और उससे 210000000 वार्षिक की क्षति हो रही है।" स्विट्जरलैंड में इन दिनों कपड़ा मिलों की संख्या चौगुनी हो गई है। फलस्वरूप स्विस झीलों की स्थिति भयावह बन गई है। इन बीस वर्षों में उनमें फास्फेट 10 गुना और प्लवक 30 गुना बढ़ गया है। फिनलैण्ड के हेलसिंकी-क्षेत्र का समीपवर्ती पानी पीने के लायक नहीं रहा इसलिए 160 मील दूर से अच्छा पानी लाने का प्रबंध करना पड़ा है। साइप्रस के समीपवर्ती समुद्र जल में प्रदूषण भर जाने से उसका पर्यटन उद्योग ठप्प होता चला जा रहा है। नीदरलैंड भी इसी मुश्किल में फँसता चला जा रहा है। उनने सुझाव दिया है कि जहाँ भी बड़े कारखाने खड़े किये जाएँ; वहाँ प्रदूषण की शुद्धि के लिए कम से कम तीन प्रतिशत पूंजी अलग से रखी जाए अंयथा आज की औद्योगिक प्रगतिकल एक भयंकर संकट बनकर सामने आएगी।

हवा के दूषण का 60 प्रतिशत हिस्सा मोटरों का और 30 प्रतिशत उद्योगों का है। अंतरिक्ष यात्रियों ने पृथ्वी से 70 मील ऊपर जाकर धरती को देखा तो लॉसऐन्जिल्स सरीखे औद्योगिक नगर गंदी धुंध से बेतरह ढके दिखाई पड़े।

अगले दिनों कारखाने अणुशक्ति से चलाने की बात सोची जा रही है, पर उसमें विकरण का दूसरे किस्म का खतरा है। उस दिशा में कदम बढ़ाते हुए इस खतरे को ध्यान में रखना होगा कि अणुशक्ति से उत्पन्न विकरण भी एक संकट है। एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाते हुए रेडियो एक्टिविटी की विषाक्तता में हजारों गुनी वृद्धि हो जाती ,है इस तथ्य को वैज्ञानिक भली-भाँति जानते हैं।

भारत की केंद्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के निर्देशक प्रो.एस.जे. आरसी वीना के अनुसार भारत में पश्चिमी देशों की तुलना में मोटरों की संख्या तो कम है, पर धुँए की मात्रा लगभग एक समान है। कलकत्ता के सर्वेक्षण से पता चला यहाँ के वायुमंडल में कार्बन मोनो ऑक्साइड गैस की मात्रा 35 है जबकि न्यूयार्क में 27 है। इसका कारण पुरानी और भोंडी बनावट की मोटरों द्वारा अधिक धुआँ फेंकना है। कारखाने की चिमनियाँ भी घटिया कोयला जलाती हैं और सफाई के संयंत्र न लगाकर वायु विषाक्त के अनुपात में और भी अधिक वृद्धि करती है।

वायुशुद्धि के लिए वृक्ष अत्यन्त उपयोगी हैं, वे गंदी हवा स्वयं पी जाते हैं और बदले में स्वच्छ हवा देते हैं पर उन बेचारों को भी बुरी तरह काटा जा रहा है। वन-सपदा नष्ट हो रही है और उनकी जगह नित नए कारखाने खुलते जा रहे हैं।

कृषि के लिए जमीन की बढ़ती हुई माँग को पूरा करने के लिए जंगलों का सफाया होता जा रहा है। इधर लकड़ी की जरूरत भी, जलाने के लिए, इमारती आवश्यकता तथा फर्नीचर के लिए बढ़ी है। लकड़ी के कोयले की भी खपत है। इस तरह बढ़ती हुई आवश्यकतायें वन-संपदा को नष्ट करने में लग गई हैं। पुराने वृक्ष कटते चले जा रहे हैं, नए लग नहीं रहे हैं। सन् 1962 में संसार के बाजारों में 1 अरब घन मीटर लकड़ी की जरूरत पड़ी। अनुमान है कि 1958 तक यह मात्रा दूनी हो जाएगी। यदि काटना जारी रहा और उत्पादन की उपेक्षा की गई तो वृक्षरहित दुनिया कुरूप ही नहीं, अनेक विपत्तियों से भरी हुई भी होगी।

वृक्ष और वनस्पति वर्षा में तथा नदी-नालों के प्रवाह में मिट्टी के बह जाने को रोकते हैं। जल के तेज बहाव को, बाढ़ों को नियन्त्रित करते हैं। इटली का दुखद उदाहरण हमारे सामने हैं। वहाँ कई शताब्दियों से वन-संपदा की बरबादी ही होती चली आ रही है। फलस्वरूप भूमि की भी भारी क्षति हुई। अकेली आर्वो नदी ही हर साल 2 करोड़ 60 लाख क्विन्टल मिट्टी बहा ले जाती है और समुद्र में पटक आती है। नवंबर, 66 की प्रलयंकर बाढ़ ने एक प्रकार से तबाही ही खड़ी कर दी। तब कहीं वन-संपदा की बर्बादी के खतरे को लोगों ने समझा। विशेषज्ञों ने बताया है कि यदि इटली को इस तरह बाढ़ों से बचना है तो उसे 86 लाख एकड़ में वृक्ष लगाने होंगे। अन्वेषण ने सिद्ध किया है कि वन-संपदा से युक्त भूमि में बाढ़ का खतरा 50 प्रतिशत कम रहता है, जहाँ काटने में ही उत्साह हो वहाँ कितनी ही वृक्ष-वनस्पतियों का वंश ही लुप्त होता चला जाता है। स्विट्जरलैंड के आर्गोविया प्रांत में इसी शताब्दी में लगभग 400 वन-संपदा की उपयोगी जातियों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया।

लॉसएंजेल्स के क्रीडांगन के समीप बहुत बड़े-बड़े सूचना पटल लगे हैं; जिनमें चेतावनी दी गई है— "‘डू नौट ब्रीद टू डीप’ अर्थात् यहाँ गहरी साँस मत लीजिए।"

टैक्सास विश्वविद्यालय का क्रीडांगन बढ़ाया गया। इसके लिए आस-पास के बहुत से वृक्ष काटे गए। इसका विरोध भी किया गया कि इस शिक्षाकेंद्र के लिए हरितमा की भी उपयोगिता है, उसे नष्ट न किया जाए, पर किसी ने सुना नहीं। सायप्रस के दर्जनों विशाल वृक्ष काटकर धराशायी कर दिए गए। जब वह उपवन वृक्षों का बूचड़खाना बन रहा था, तो एक स्नातक कटे हुए वृक्ष के कोंतर में एक दिन तक विरोध प्रदर्शन के लिए बैठा रहा उसके हाथ में पोस्टर था—”ट्रीज एण्ड पिपल बिलाँग टू गेदर” अर्थात् वृक्ष और मानव साथ-साथ जीते हैं। वृक्षों का मरण प्रकारांतर से मनुष्यों का ही मरण है।

वायुशुद्धि का दूसरा उपाय था हवन। उस प्रयोग में अणु विकरण तक को शुद्ध करने की शक्ति थी। गोपालन भी ऐसे संकटों से रक्षा करता था, पर सभ्यता के नाम पर अब हवन दकियानूसीपन कहा जाता है और गोपालन की जगह गौमरण को महत्त्व दिया जा रहा है।

वर्धा की मैत्री पत्रिका में केंद्रीय मंत्री श्री के.के. शाह के साथ रूसी वैज्ञानिक शिष्टमंडल की वार्त्ता का वह साराँश छपा है। जिसमें रूसी वैज्ञानिकों ने यह कहा था कि"गाय के दूध में एटमिक रेडियेशन से रक्षा करने की सबसे अधिक शक्ति है। अगर गाय के घी को अग्नि में डालकर उसका धुँआ पैदा किया जाए, जिसको भारतीय भाषा में हवन कहते हैं तो उससे वायुमंडल में एटमिक रेडियेशन का प्रभाव बहुत कम हो जाएगा। इतना ही नहीं गाय के गोबर से लिपे हुए मकान में रेडियेशन घुसना बहुत कठिन है।"

वायु को निरंतर गंदी बनाते जाने का और उसकी शुद्धि उपायों से विमुख रहने का हमारा रवैया अंततः अपने लिए ही घातक सिद्ध होगा।


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