अस्वस्थता की टहनी नहीं— जड़ उखाड़ें

September 1972

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बहुत दिनों तक यह समझा जाता रहा कि बाहर की परिस्थितियों तथा व्यक्तियों से मनुष्य प्रभावित होता है और उसी के अनुसार उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है। अभी भी बहुत लोग ऐसा ही समझते हैं। शारीरिक स्थिति के बारे में भी यह सोचा जाता है कि जलवायु का, आहार-विहार का प्रभाव ही मनुष्य को आरोग्य और रुग्णता प्रदान करता है। किसी व्यक्ति को बीमार देखकर आमतौर से यही पूछा जाता है कि उसने क्या खाया-पिया, सर्दी-गर्मी से कितना प्रभावित हुआ, क्या किया, कैसे रहा आदि। उन्हीं उत्तरों को रोग का कारण मान लिया जाता है। इसी प्रकार किसी स्वस्थ-सबल व्यक्ति को देखकर, उसकी खुराक, दिनचर्या, व्यायामविधि, परिस्थिति आदि के बारे में पूछताछ होती है, इसलिए कि उसी का अनुसरण करके अपना स्वास्थ्य भी वैसा ही बना लिया जाए।

पर यह भ्रम अब धीरे-धीरे दूर होता जा रहा है। बाहर का प्रभाव भीतर पर, के स्थान पर विज्ञान ने चिंतन को नई दिशा दी है— भीतर के आधार पर बाहर का ढाँचा। इस वैज्ञानिक नए दृष्टिकोण को अपनाकर हम अध्यात्म के सनातन सिद्धांत को ही स्वीकार करते हैं। अध्यात्म ने सदा यही कहा है, जैसा अंतरंग होगा वैसा बहिरंग विनिर्मित होगा। विज्ञान और अध्यात्म का एकीकरण ही समग्र सत्य को जनसाधारण के सामने प्रस्तुत करेगा और उसी से ज्ञान की परिधि विस्तृत होगी।

शक्ति का स्रोत कभी स्वर्गस्थ देवी-देवताओं में माना जाता था। अब समझा गया है कि परमाणु का मध्यकेंद्र ‘नाभिक’ इस जड़ जगत की हलचलों का सृजेता है, शक्ति का भंडार अणुकेंद्र है। विज्ञान इससे भी आगे बढ़ा है और कहा है कि अणु की उपलब्ध शक्ति उसकी अपनी नहीं; वरन सूर्य-ऊर्जा एवं ब्रह्मांड किरणों की है। लोक-लोकांतरों से धरती पर बरसने वाली रेडियो-तरंगें मात्र, शब्द-संदेश ही प्रवाहित नहीं करती, वरन अपने साथ अगणित प्रकार के शक्तिपुंज भी संजोए रहती हैं। उन्हीं का दूध पीकर परमाणुरूपी बछड़ा उछलता-कूदता है।

पदार्थ का छोटा रूप अणु है, इसलिए पदार्थ बड़ा है इस परिभाषा को बदलकर विज्ञान ने यह कहा है कि अणुओं के समन्वय से पदार्थ बना है, इसलिए महत्ता दृश्य पदार्थ की नहीं, अदृश्य परमाणु की है। बाहर का प्रभाव भीतर या भीतर का प्रभाव बाहर, इस विवाद में विज्ञान और अध्यात्म दोनों ने एक स्वर से एक ही साक्षी दी है—  "भीतर का प्रभाव बाहर, सूक्ष्म की प्रतिक्रिया स्थूल।"

शरीर विज्ञान भी इसी तथ्य को प्रतिपादित करता है। आहार-विहार और ऋतु-प्रभाव की महत्ता अब नहीं रही; क्योंकि एक-सा आहार-विहार, ऋतु-प्रभाव उपलब्ध करने वाले लोगों में कुछ स्वस्थ होते हैं, कुछ अस्वस्थ। यह आधार बाहर ही होता तो प्रभाव सब पर एक-सा पड़ता। शीत के कारण सबको जुकाम नहीं होता। हिम-प्रदेशों में रहने वाले लोग धड़ल्ले से रहते हैं और कभी सर्दी, जुकाम के शिकार नहीं होते। आंतरिक दुर्बलता या रुग्णता ही वह कारण है, जो तनिक से ऋतु-प्रभाव या आहार-विहार के बहाने शरीर की स्थिति बेतरह बिगड़ती रहती है।

वस्तुतः रोग के बीज जहाँ तक देखने का संबंध है— कोशिकाओं में दृष्टिगोचर होते हैं। वहीं से अंकुर फूटते हैं और जब वे डाल पात से लद जाते हैं, तो हकीम डॉक्टर की समझ में आते हैं। बाह्यस्तर पर रुग्णता प्रकट होने से बहुत पहले ही वह भीतर ही भीतर पलती रहती है। जब बात बेकाबू हो जाती है, जीवन कोष-विजातीय द्रव को निरस्त करने में असमर्थ हो जाते हैं, तभी वह चीख, पुकार बीमारी का लक्षण बनकर बाहर आती है।

कोशिकाओं की रुग्णता, मनुष्य की मनोभूमि, चिंतनशैली और साहसिकता पर निर्भर रहती है। आशंकाग्रसित, घबराने वाले, चिंतातुर व्यक्ति छोटी कठिनाई को बड़ा करके देखते हैं और तिल का ताड़ बनाते हैं। उसी प्रकार कितने ही अशुभ चिंतक लोग बैठे-ठाले भविष्य के अंधकारमय कल्पना-चित्र बनाते रहते हैं और अपने गढ़े हुए उस “हौआ” को देख-देखकर काँपते रहते हैं। कई व्यक्ति द्वेष, दुर्भाव के आदी होते हैं और छिद्रांवेषी प्रवृत्ति के कारण हर व्यक्ति में कुटिलता हर परिस्थिति में अवांछनीयता ढूँढ़ते रहते हैं और अपने मानसिक क्षोभ को बढ़ाते रहते हैं। इस प्रकार के कितने ही मनोविकार अंतःकरण में भर जाते हैं। छल, क्रोध, लोभ, स्वार्थ, अहंकार की मात्रा बढ़ जाने से भी अंतःचेतना बेतरह विकृत हो जाती है और उसका बुरा प्रभाव स्वस्थ कोशिकाओं को दुर्बल बनाता चला जाता है और अंततः वे छोटे कारण सामने आते ही रुग्ण हो जाती हैं। यही भीतरी रुग्णता समयानुसार बड़ी और कष्टसाध्य बीमारी के रूप में प्रकट होती है।

रुग्णता का विश्लेषण करते हुए अरोग्य विज्ञान ने कहा है कि शिराओं को धमनियों से मिलाने वाली रक्तवाहिनियों में, कोशिकाओं में, आरोग्य का रहस्य सन्निहित है। शरीर के अरबों-खरबों कोषों को आहार और प्राणवायु पहुँचाना इन्हीं का काम है, विभिन्न मलों का विसर्जन भी इन्हीं का काम है, इनके भीतर ऐसा रासायनिक अनोखापन है कि उसे देखकर चकित रह जाना पड़ता है। एक ओर से ऑक्सीजन सम्मिलित लाल रक्त-प्रवाह, दूसरी ओर से कार्बन डाई-ऑक्साइड मिश्रित नीला खून। इसकी मध्यवर्ती दीवारों में होकर ऊतक बनाने वाले एमीनो अम्ल, शक्तिदायक शर्करा, चिकनाई, अम्ल, खनिज, विटामिन आदि रक्त में पहुँचते हैं।

इन कोशिकाओं की स्वस्थता पर समस्त शरीर की स्वस्थता निर्भर है। रुग्ण पहले यही होती है। प्रत्यक्ष रोग लक्षण तो बहुत बाद में शरीर के वाह्यस्तर पर उभरते हैं। रुग्णता से संघर्ष पहले इसी क्षेत्र में होता है। जब स्थिति बेकाबू हो जाती है, तभी बीमारी बाहर उभरती हुई दिखाई देती है।

स्वीडन के शरीर विज्ञानी व्राने मार्क ने ऐसे उपकरण तैयार किए हैं, जो कोशिकाओं की स्थिति का निरूपण करते हैं। उनसे रोग प्रकट होने से पूर्व ही यह पता चल जाता है कि काया के भीतरी परत में क्या हो रहा और क्या बाहरी परत में होने जा रहा है। बाहरी लक्षण प्रकट हो उससे पूर्व ही चिकित्सा का आरंभ उपयुक्त है। कई रोग, कोशिकाओं में मुद्दतों पहले पलते रहते हैं और जब वे परिपक्व होकर बाहर प्रकट होते हैं, तब स्थिति काबू से बाहर हो चुकी होती है, तब साधारण दवा-दारु कुछ काम नहीं करती।

कोशिकाओं पर विशेष प्रभाव डालने वाले रसायनों में एक है— “हिस्टे माइन” यह शरीर में ही पैदा होता है। इसके प्रभाव से कोशिकाएं फैलती हैं और उनमें होकर रक्त का अधिक प्रवाह संभव हो जाता है। जब हम तेज धूप में बैठते हैं, तो अल्ट्रा वायलेट ऊर्जा के कारण शरीर में— हिस्टेमाइन की उत्पत्ति बढ़ जाती है। कोशिकाएँ फैलती हैं और चमड़ी पर सुर्खी आ जाती है। अनावश्यक मात्रा में यह तत्त्व देह में बनने लगे तो एलर्जी, जुकाम, छाजन जैसे रोग उत्पन्न होने लगते हैं।

हिस्टेमाइन के प्रभाव को दबाने वाली दवाएँ भी उसी तत्त्व से बनती हैं जो अक्सर जहरीली होती है। एक बीमारी को दबाने के लिए दूसरी उत्पन्न होने का खतरा इस प्रकार की दवाओं में हमेशा बना रहता है। कोशिकाओं की निरोधक शक्ति बढ़ाने के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता डॉक्टर लीनस पोलिंग ने विटामिन सी. की उपयोगिता पर बहुत जोर दिया है।

रोगों का दूसरा कारण विषाणुओं का, वायरसों का आक्रमण बताया जाता है। प्रयोगशालाओं में अनेक जाति के वायरस खोज निकाले गए हैं और उनके मारण निवारण के लिए कतिपय रसायन विनिर्मित किए गए हैं। कहा जाता है कि ये विषाणु वायुमंडल में चोर, तस्करों की तरह घूमते रहते हैं और जहाँ भी दाव लगता है घुस पड़ते हैं और डकैतों द्वारा संपत्ति की लूट करने की तरह आरोग्य का हरण कर लेते हैं। इन दस्यु तस्करों की खोज जितनी लंबी हो रही है, उतनी ही उनकी संख्या शैतान की आँत की तरह बढ़ती जाती है और उनकी जातियाँ-उपजातियाँ विदित होती हैं। उनके मारण-निवारण के अस्त्र-शस्त्र भी नित नए निकलते हैं। आज जो अमोघ उपचार माना गया था, कल वह निरर्थक घोषित कर दिया जाता है। वायरसों के साथ युद्ध करने में अन्वेषक ही मात खाते जा रहे है। विषाणु मूंछों पर ताव देते हुए जहाँ के तहाँ विराजमान है। वे एक कदम पीछे हटने का नाम नहीं लेते जबकि एक से एक बढ़-चढ़कर तेज ‘एन्टीबायोटिक’ दवाओं का नित नया आविष्कार होता चला जा रहा है।

विषाणु (वायरस) विज्ञान की परिभाषा के अनुसार एक प्रकार के जीवित कण हैं जो विघटन और विनाश में तत्पर रहते हैं। वे इतने छोटे होते हैं कि एक मिलीमीटर स्थान में दस हजार बैठ सकते हैं। जरा-सा ‘न्यूक्लिक ऐसिड’ और चारों ओर प्रोटीन का घेरा यही है। इनकी छोटी-सी संरचना; पर विघातक क्षमता इतनी कि जिस पर आक्रमण कर दें, उसके प्राण लेकर ही छोड़ें। इनकी आकृति कई तरह की होती है, कुछ गोल, कुछ आड़े, तिरछे, लंबे, चौकोर और कुछ डूबे उलझे से।

विषाणु परजीवी होते हैं-मनुष्य, पशु-पक्षी, घास-पात, फल-फूल, कीट-पतंग जिस तक भी इनकी पहुँच हो जाए, अधिकार जमा लेते हैं। धीरे-धीरे उसी को खाते चूसते अपनी वंशवृद्धि करते रहते हैं और देखते-देखते अपना परिवार बढ़ाकर इतना विस्तृत कर लेते हैं कि शिकार को खोखला करना सरल हो सके। उनकी वंशवृद्धि का क्रम आश्चर्यजनक है। वे एक घंटे में एक लाख भी प्रजनन कर सकते हैं।

यह रावण की तरह अमरता का वरदान लेकर आए हैं, जिस पर सवार थे वह जब तक जीवित रहे तब तक मजे से खाते हैं। मर जाने पर उसे छोड़कर किसी दूसरे पर सवार होते हैं। कोई न मिले तो वे अकेले भूखे-प्यासे सहज ही मुद्दतों पड़े रहते हैं। आसानी से मरते नहीं।

डॉक्टर स्टैनली ने तमाखू के पौधे चौपट करने वाले ‘विषाणु’ पकड़े। उन्हें सुखाया, सुखाने के बाद चीनी के दानों की शक्ल में बदला। इसके बाद एक बोतल में बंद करके रख दिया। दस वर्ष बाद उन्हें निकाला तमाखू के पत्तों पर छोड़ा। जल्दी ही वे सक्रिय हो गए और प्रयोग वाली पौधों को उन्होंने जल्दी ही सफाचट कर दिया।

अब तक लगभग 300 तरह के विषाणु पहचाने और परखे जा चुके हैं। उनकी गतिविधियाँ लिपिबद्ध कर ली गई हैं और उनकी करतूतों का पूरा शास्त्र बन गया है। अभी इस शोध में बहुत कुछ परिवर्तन होना बाकी है।

कभी-कभी वे इतने उग्र, प्रबल और आँधी-तूफान की तरह आक्रमणकारी हो जाते हैं कि उनकी रोक-थाम कठिन हो जाती है और चिकित्सक हार मान लेते हैं। कुछ दिन पहले उत्तर भारत में माओ फ्लू फैला था। उसने घर-घर हमला किया और आदमी-आदमी को पछाड़ा। कई बार ‘इन्फ्लुएंजा’ ऐसे ही विकराल रूप में फैल चुका है। चेचक, हैजा, प्लेग, मलेरिया आदि महामारियों की जब बाढ़ आती है, तो रोके नहीं रुकती।

मनुष्यों की तरह पशु-पक्षियों पर भी इनका धावा होता है। गाय-भैंसों में बीमारी फैलती है तो उनकी भारी संख्यकाल के गाल में चली जाती है। मुर्गियों की बीमारी आई ,तो बस मुर्गीखानों को झाड़ बुहारकर रख जाती है। कुछ दिन पूर्व मैसूर के कयासानुर जंगल के बंदरों पर वह चढ़ दौड़ी, देखते-देखते बंदरों का वंश नाश ही उस इलाके में हो गया। खोज की गई तो पता चला कि साइबेरिया से उड़कर भारत आए, पक्षियों पर सवार होकर यह विषाणु आए थे और यहाँ आकर उनने बंदरों पर चढ़ाई कर दी। ये बिना टिकट सफर करते हैं। रेल, मोटर का इंतजार नहीं देखते। जो भी आदमी, जीव-जन्तु इनकी पकड़ में आ जाए उसी पर सवारी गाँठ लेते हैं और जब तक चाहते हैं, चढ़े रहते हैं। उतरने का नाम ही नहीं लेते।

विषाणुओं को मारने की कितनी दी दवाएँ बनी हैं। उनसे बचने के उपाय ढूँढ़ने में कितने ही शोध संस्थान लगे हैं। भारत में पूना का ‘वाइरस-रिसर्च सेंटर’ अधिक बड़ा और साधनसंपन्न संस्थान है। रोग-निवारक औषधियों की पहुँच सर्वत्र नहीं होती; पर यह वायरस तो हर कहीं जा पहुँचते हैं। दवाओं के प्रभाव को भी वे बहुत बार निष्फल कर देते हैं। आक्रमण और आत्मरक्षा के इस देवासुर संग्राम में अभी तक रक्षात्मक सफलता की तुलना में आक्रामक विभीषिका का ही पलड़ा भारी रहा है।

प्रश्न यहाँ भी यही पैदा होता है कि यह विषाणु सर्वत्र हवा में फैले हुए हैं और साँस या छूत द्वारा कहीं भी पहुँच सकते हैं, तो फिर सब पर इनका आक्रमण समानरूप से क्यों नहीं होता। एक ही घर-परिवार के लोगों में से एक पर ही वे क्यों आक्रमण करते हैं; जबकि छूत या साँस के द्वारा वे वहाँ रहने वाले सभी पर आक्रमण कर सकते हैं। क्षय का रोगी उसी घर में रहता और मरता भी उसी घर में है। छूत से बचने का भी गरीबी के कारण वहाँ कोई प्रबंध नहीं होता फिर भी अन्य लोगों पर उस रोग का आक्रमण नहीं होता। यह भेदभाव क्यों?

इसी प्रकार जिस दवा से एक रोगी के वायरस मर गए, उसी का प्रयोग दूसरे पर क्यों असफल होता है? एक ही मर्ज के लिए तरह-तरह की औषधियाँ क्यों प्रयोग करनी पड़ती है और फिर भी वे असफल क्यों रहती हैं? यह ऐसे प्रश्न हैं, जिनका समाधान विषाणुओं को ही सर्वशक्तिमान मान लेने से नहीं हो सकता।

वास्तविकता यह है कि अपनी सुरक्षा शक्ति मूलतः इतनी प्रबल है कि उसके सही और शुद्ध होने पर किसी भी वायरस का कोई असर नहीं हो सकता। जीवन कोषों की रचना ही ऐसी है कि उन्हें बेध सकना विषाणुओं के लिए सरल नहीं। उन्हें रोका भी नहीं जा सकता। साँस लेते समय शुद्ध-अशुद्ध कणों की कैसे तो पहचान हो सकती है और कैसे, उन्हें अलग किया जा सकता है? उसी प्रकार छूत तो इतनी व्यापक है कि कहीं से भी किसी भी प्रकार लग सकती है। बचाव और निवारण के लिए, जो उपाय सोचे गए हैं वे पर्याप्त नहीं। इन विषबीजों से बचाव तो अपनी जीवनीशक्ति को ही सुरक्षित रखकर किया जा सकता है। उसी केंद्र पर हमारा ध्यान केंद्रित होना चाहिए।

आहार-विहार, रहन-सहन प्रकृति के अनुकूल रखा जाए, तो असंयम से उत्पन्न उपद्रवों से बचा जा सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि कायिक ढाँचे को चरमरा देने वाले मनोविकारों की विभीषिका को समझा जाए। अंतःकरण निर्मल और प्रफुल्ल रखने की यदि आदत डाली जा सके तो समझना चाहिए; स्वास्थ्य की तीन-चौथाई सुरक्षा बन गई। एक-चौथाई को भी प्रकृति के अनुरूप जीवनचर्या अपनाकर पूरा किया जा सकता है। निरोग रहने की कुंजी अपने हाथ में है। यदि हम सच्चे मन से चाहें और सही तरीका अपनाएँ, तो निरोग रहना भी संभव है और दीर्घ जीवन भी।


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