आलोचना से डरें नहीं— उसके लिए तैयार रहें

September 1972

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दूसरा कोई समीक्षा करे तो स्वभावतः बुरा लगेगा। निंदनीय स्थिति किसी की स्वीकार नहीं । उसे सुनने से कष्ट होता है और आमतौर से आलोचना बुरी लगती है।

यह अप्रिय के स्थान पर प्रिय भी हो सकती है, यदि हम वस्तुतः अच्छे हों, अच्छे व्यक्ति को द्वेषवश लांछन लगाने का दुस्साहस कोई यदा-कदा ही करता है। आमतौर से निंदात्मक आलोचना हमारे दोष-दुर्गुणों की ही होती है। नमक-मिर्च लगाने की तो लोगों को आदत है पर जो कहा जाता है, उसमें कुछ सार जरूर होता है। आलोचना का लाभ यही है कि यह देखें कि जो कुछ निंदापरक कहा जा रहा है, उसमें कितना तथ्य और सत्य है। जो वास्तविकता हो उसे समझने का प्रयत्न करना चाहिए। अपना चेहरा अपने को दिखाई नहीं पड़ता, उसे देखना हो तो दर्पण का सहारा लेना पड़ेगा। आलोचक हमारे लिए दर्पण की तरह उपयोगी हो सकते हैं। और जहाँ कुरूपता है वहाँ सुधार के लिए प्रयत्न करने की प्रेरणा दे सकते हैं।

यदि गलतफहमी या द्वेषवश आलोचना की गई है, तो उसे हँसकर उपेक्षा से टाल देना चाहिए। जिसमें वास्तविकता न होगी, ऐसी बात अपने आप हवा में उड़ जाएगी। मिथ्या निंदा करने वाले क्षण भर के लिए ही कुछ गफलत पैदा कर सकते हैं पर कुछ ही समय में वस्तुस्थिति स्पष्ट हो जाती है और सूर्य  पर कीचड़ उछालने वाले को स्वतः ही उस दुष्कृत्य पर पछताना पड़ता है। मिथ्या दोषारोपण से कभी किसी का स्थायी अहित नहीं हो सकता। क्षणिक निंदा-स्तुति का कोई मूल्य नहीं। पानी की लहरों की तरह वे उठती और विलीन होती रहती हैं।

प्रशंसात्मक आलोचना सुनने का यदि वस्तुतः अपना मन ही हो, तो सचमुच ही अपने को ऐसा बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। जिससे दूसरे लोग विवश होकर प्रशंसा करने लगें। मुख से न कहें तो भी हर किसी के मन में उच्च चरित्र व्यक्ति के बारे में जो श्रद्धा-सद्भावना अनायास हो जाती है, उसे तो कोई रोक ही नहीं सकता। इसके अतिरिक्त अपनी अंतरात्मा संमार्गगामी गतिविधियों पर संतोष और प्रसन्नता अनुभव करती हैं। यह आत्मप्रशंसा सब से अधिक मूल्य वाली है। अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने और शेखी बघारने की आत्मप्रशंसा बुरी है, पर अंतःकरण जब अपनी सत्प्रवृत्तियों को देखते हुए संतोष व्यक्त करता , तो उस आत्मप्रशंसा की अनुभूति रोम-रोम पुलकित कर देती है।

दूसरों के मुँह निन्दात्मक आलोचना सुनना यदि अपने को सचमुच बुरा लगता हो तो उसका एक ही तरीका है कि हम अपने आप अपनी आलोचना करना आरम्भ करें। जिस प्रकार दूसरों के दोष दुर्गुण देखने और समझने के लिए अपनी बुद्धि कुशाग्र रहती है; वैसा-ही छिद्रान्वेषण अपना करना चाहिए। अपनी निष्पक्ष समीक्षा आप कर सकना यह मनुष्य का सबसे बड़ा साहस है। अपने दोषों को ढूँढ़ना, गिनना और समझना चाहिए। साथ ही यह प्रयत्न करना चाहिए कि उन दुर्गुणों को अपने व्यक्तित्व में से अलग कर दिया जाए। निर्दोष और निर्मल व्यक्तित्व विनिर्मित किया जाए। जिस प्रकार हम दूसरों के पाप और दुर्गुणों से चिढ़ते हैं और उनकी निंदा करते हैं वैसी ही सख्ती हमें अपने साथ भी बरतनी चाहिए और यह चेष्टा करनी चाहिए कि निंदा करने का कोई आधार ही शेष न रहे और अप्रिय आलोचना के वास्तविक कारणों का ही उन्मूलन हो जाए।

अपने आप से लड़ सकना शूरता का सबसे बड़ा प्रमाण है। दूसरों से लड़ सकने को तो निर्जीव तीर-तलवार भी समर्थ हो सकते हैं, पर अपने से लड़ने के लिए सच्ची बहादुरी की जरूरत पड़ती है।

हम अपनी आलोचना आप करें, ताकि बाहर वालों को निंदात्मक आलोचना करने का अवसर ही न मिले। हम प्रशंसा के योग्य रीति-नीति अपनाएँ, ताकि हर दिशा से प्रशंसा के प्रमाण अपने आप बरसने लगें।


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