दिव्य अग्नि का अभिवर्ध्दन, उन्नयन

September 1972

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यज्ञ को भारतीय धर्म और संस्कृति का पिता माना गया है। अग्निहोत्र की परम पवित्र, श्रेष्ठ सत्कर्मों में गणना है, पर उससे वायु शुद्धि, रोग, निवृत्ति, मनोबल की वृद्धि, प्राण वर्षा, वातावरण में सततत्व प्रवाह आदि अनेकों लाभ भी हैं। यह यज्ञ का स्थूलरूप है। जिस ज्वलंत अग्नि का हवनकुंडों में पूजन किया जाता है, उसे प्रतीकात्मक प्रक्रिया ही समझना चाहिए।

अग्नि का, यज्ञ का, यज्ञ कुंड का, सूक्ष्म— "दिव्य रूप भी है। वह मानवी पिंड में वैश्वानर के रूप में विद्यमान है, उसका केंद्र मूलाधार स्थित कुंडलिनी शक्ति है। यही अग्निसंपर्क शरीर में प्राणरूप संव्याप्त होकर जीवन का संचार करती है। अंतःकरण में इसी दिव्य ज्योति की आभा जाज्वल्यमान रहती है। अग्निपूजा का आध्यात्मिक स्वरूप इसी दिव्य अग्नि की साधना-अर्चना है।"

ब्रह्मरंध्र में अवस्थित सहस्रारचक्र को ब्रह्मांड अग्नि कहा गया है। कहीं-कहीं इसी की चंद्रमा के रूप में भी चर्चा है। सूर्य या चंद्र दोनों ही प्रकाश के प्रतीक हैं। दोनों ही ऊर्जा, प्रदान करते हैं। सूर्य इसलिए कहते हैं कि इसमें प्रचंड-ऊर्जा विद्यमान है। चंद्र इसलिए कहते हैं कि उसमें शांति और शीतलता का अमृत भरा है। इसे शिव कहते हैं और कुंडलिनी को शक्ति। कुंडलिनी-साधना को इसलिए शिव-शक्ति की संयोग प्रक्रिया कहा गया है।

पौराणिक अलंकार में जिस तत्त्व को शिव और शक्ति कहते हैं, उसी को वैदिक भाषा में सोम और अग्नि कहते हैं। शिव का दूसरा नाम सोम और शक्ति को ही अग्नि कहते हैं। आगम और निगम दोनों ही शास्त्रपक्ष इसी प्रकार का प्रतिपादन करते हैं।

यज्ञ का सूक्ष्मस्वरूप कुंडलिनी अग्नि में सोमरूपी अमृत-घृत का हवन करना है। आत्मारूपी अग्नि और सोमरूपी ब्रह्म का समन्वय, लय, समर्पण ही आत्मयज्ञ है। उसी में मानवी महत्ता का विस्तार एवं जीवन लक्ष्य की पूर्ति सन्निहित है।

मानवीय काया में स्थित कुंडलिनीरूपी अग्नि और ब्रह्मरंध्र अवस्थित सोम का वर्णन शास्त्रकारों ने इस प्रकार किया है।

द्वयं वा इदं न तृतीयमस्ति। आर्द्रंचैव शुष्कं

च यदार्द्रं तत् सौम्यं यच्छुंष्क तदाग्नेयम्।

 — शतपथ1/6/3(23)

यह संसार दो पदार्थों से मिलकर बना है 1. अग्नि  2. सोम। इनके अतिरिक्त तीसरा कुछ नहीं है।

अग्निर्वा अहः सोमोरात्रिरथ यदन्तरेण तद्

विष्णुः।

 — श.प. 3। 4। 4। 15

अग्नि और सोम के मिलन को विष्णु कहते हैं।

इमौ ते पक्षावजरौ पतत्रिणौ याभ्यां रक्षां स्यपंहंस्यग्ने। ताभ्यां पतेम सुकृतामु लोकं यत्र ऋषयो जग्मुः प्रथमजाः पुराणाः।

 — यजु. 18।52

हे अग्नि! तेरे दोनों पंख फड़फड़ाते हैं। उनसे पाप और तम का हनन होता है। इन्हीं पंखों के सहारे हम उस पुण्यलोक तक पहुंचते , जहाँ पूर्ववर्ती ऋषि पहुँचे थे।

इन्दुर्दक्षः श्येनऽऋतावा हिरण्यपक्षः शकुनो भुरण्युः। महान्त्सधस्थे ध्रुवऽआ निषत्तो नमस्ते अस्तु मा मा हिंसीः

  — यजु. 18।53

हे अग्नि! तू सोमरस से परिपूर्ण है। तू दक्ष है। तू ही ऋतुयुक्त है। तेरे अमृतसिक्त पंख हैं। तू शक्तिशाली है। पोषक है तू मस्तिष्क में ध्रुवकेंद्र बनकर विराजमान है। तुझे नमस्कार। तू हमें जलाना मत।

अग्निर्ललाटं यमः कृकाटम्।

 — अथर्व 9।12।1

तुम्हारे ललाट में वह अग्नि उत्पन्न हो, जो शिवरूप बनकर काम विकृतियों को भस्म कर सके।

पुरुषो यज्ञः। पुरुषसंम्मितो यज्ञः।

  —शत. 3।1।4।23

मनुष्य ही यज्ञ है। यज्ञ का स्वरूप मनुष्य पर निर्भर होता है।

एक एवाग्निर्बहुधा समिद्ध।

— ऋ.8/58/2


उस एक ही अग्नि में अनेक प्रकार से हवन किया जाता है।

शिरोवा एतद् यज्ञस्य यदातिथ्यम्

 —ऐतरेय ब्रा.3।6

इस यज्ञ का आतिथ्य स्थल सिर है।

सोम एवं शिव को प्रकरण विशेष से इंद्र भी कहा गया है। इंद्र और अग्नि संयोग का तात्पर्य भी वही है—

ता हि मध्यम्भराणामिन्द्राग्नी अधिक्षितः ।

ता उ कवित्वना कवी पृच्छयमाना सखीयते संधी तमरनुतं नरा नभन्तामन्येके समे॥

 — ऋ. 8।40।3

यह इंद्र और अग्नि संघर्ष बनकर साथ-साथ निवास करते हैं।

यह दोनों ही भावुकता भरे कवि हैं। यह सखा बनकर कर्म में प्रवृत्त होते हैं।

या नु श्वेताववो दिव उच्चरात उपद्युभिः।

इन्द्राग्न्योरनुव्रतमुहाना यन्ति सिन्धाबो यान् त्सीं बन्धादमुंचतां नभन्तामन्यके समे।

—ऋ. 8।40।8

इंद्र और अग्नि दोनों शुभ्र वर्ण हैं, यह दीप्ति बनकर नीचे से ऊपर को चढ़ते हैं। इनके प्रताप से ही शक्ति नदियाँ गतिशील हैं। द्युलोक में पहुँचकर फिर नीचे को चलते हैं। उन्हें यह दोनों ही असीम बनाते हैं।

शरीर व्यापी अग्नि— "विश्वव्यापी महाअग्नि का ही एक स्फुल्लिंग है।" इसलिए उसे ब्रह्म का अंश ही कहा जाता है। जीव को ईश्वर का अंश ही कहा जाता है, इस ब्रह्माग्नि— "आत्माग्नि, की ही प्रार्थना, उपासना, आराधना करने से साधक वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है, जो इस विश्व में पाने योग्य है, इन्हीं तथ्यों के निम्नांकित संकेत ध्यान देने योग्य है"—

अयमग्नि ब्रह्म।

— यजु. 17।14

ब्रह्म ह्यग्निः।

— शतपथ 1।5।1।11

अग्नियो ब्राह्मणः।

 — ता.ब्रा. 15।4।8

तैन. 2।7।3।1

ब्रह्म ह्यग्निस्तस्मादाह ब्राह्मरणेति।

—  शपतथ. 1।4।2।8

मनुष्य शरीर में विद्यमान यह आत्मारूपी अग्नि ब्रह्म ही है।

येन ऋषयस्तपसा सत्रमायन्निन्धानाऽअग्निं स्वराभरन्तः। तस्मिन्नहं निदधे नाके अग्निं यमाहुर्मनवस्तीर्णवर्हिषम्।

—यजु.15।49

इस आंतरिक अग्नि को ऋषि लोग अपने तप-बल से प्रदीप्त करते हैं और उसे स्वर्गलोक तक पहुँचाकर मस्तिष्क को प्रकाश से भरते हैं। यही दिव्य अग्नि है।

अग्निः पूर्वेभिर्ऋर्षिभिरीडयो नूतनैरुत। स देवाँ एह वक्षति॥

  —ऋ 1।1।2

प्राचीन और अर्वाचीन सभी ऋषि अग्नि का आश्रय लेते हैं। क्योंकि वही देवताओं को धारण करती है।

अग्निर्ऋषिः पवमानः पांचजन्यः पुरोहितः।

तमीमहे महागयम्॥

—ऋ. 9।66।20

यह अग्नि— "ऋषि है। पवित्र करने वाली है । पंचकोशों का मार्ग दर्शक है। इस महाप्राण की हम शरण जाते हैं।"

तामग्ने अस्मे इषमेरयस्व वैश्वानर द्युमतीं जातवेदः।

यया राधः पिन्वसि विश्ववार पृथुश्रवो दाशुषे मर्त्याय।

—ऋ॰ 7।5।8

हे अग्नि! हमारे भीतर वे उदात्त आकांक्षाएँ पैदा करो, जिनसे प्रभावित होकर तुम प्रसन्न होते हो और कीर्ति एवं सिद्धियाँ प्रदान करते हो।

अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य।

आ दाशुषे जातवेदो वहात्वमद्या देवाँ उपर्बुधः।

 

हे अग्नि! मेरे जीवन की ऊषा बनकर प्रकटो। अज्ञान के अंधकार को दूर करो। ऐसे आत्मबल प्रदान करो, जिससे देवों का अनुग्रह खिंचा चला आवे।

त्वदग्ने काव्यास्त्वन्मनीषास्त्वदुक्था जायन्ते राध्यानि।

त्वदेति द्रविणं वीरपेशा इत्थाधिये दाशुषे मर्त्याय॥

—ऋ॰ 4।11।3

हे अग्नि! आप सत्य को धारण करने वाले उदार व्यक्ति के अंतःकरण में कवित्व जैसी करुणा भर देते हो। तुम्हारी ऊष्मा से ही साहसी लोग सिद्धियाँ और सफलताएँ प्राप्त करते हैं।

अग्ने तवश्रवो वयो महि भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो।

बृहद्भानो शवसा बाजमुक्थ्यं दधासि दाशुषे कवे॥

—ऋ॰ 10। 140। 1

हे अग्नि! शरीर में संव्याप्त होकर आपकी प्रशंसनीय ज्वालाएँ, हर दिशा में चमकती हैं। भावविभोर उदात्त व्यक्ति को आप ही उत्थान की प्रेरणा और प्रतिभा प्रदान करती हैं।

यत् ते पवित्रमर्चिषि, अग्ने विततमन्तरा।

ब्रह्म तेन पुनीहि नः

—  ऋग्वेद 9।67।23

हे अग्नि देव! जो पवित्र और विशाल ब्रह्म तेरी ज्वाला में लस-लस कर रहा है, उससे हमें पवित्र करो।

इदं वर्चो अग्निना दत्तमागन्

भर्गो यशः सह ओजो वयो बलम्।

त्रयस्त्रिंशद् यानि च वीर्याणि,

तान्यग्निः प्र ददातु मे॥

—अथर्व 16। 37। 1

मुझे अग्नि द्वारा क्या कुछ नहीं मिल रहा? प्रकाश तेज, यश, प्रभाव, पराक्रम, और बल— "सभी मेरे अन्दर आ रहे हैं। मुझ पर अग्नि की कृपा बनी रहे और मुझे तैंतीस प्रकार के सभी वीर्य प्राप्त होते रहें।"

अग्ने भ्यावर्तिन्नभि मा निवर्त्तस्वायुषा वर्चसा

प्रजया धनेन। सन्या मेधया रय्या पोषेण।

—  यजु. 12। 7

हे अग्नि! आयु, वर्चस, प्रज्ञा, धन, दान, मेधा, रति, पुष्ट बनकर अपना अनुग्रह हमें प्रदान करें।

यह आत्मानि जैसे-जैसे प्रखर होती जाती है, वैसे-वैसे उसका स्तर और पद बढ़ता जाता है। चार वर्ण चार आश्रम क्रमिक पदोन्नति के आधार पर ही विकसित होते हैं यह उन्नति, ऋषि, राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि के रूप में होती है। देववर्ग में गणना करते समय इसी को वरुण, मित्र, विश्वेदेवा, और इन्द्र के नाम से पुकारते हैं। ब्रह्म अग्नि के भी यही चार स्तर हैं, जो पदार्थों, जीवों और व्यक्तियों को उनकी पात्रता के अनुरूप उपलब्ध होते रहते हैं। अग्नि के चार स्वरूपों का ऋग्वेद में इस प्रकार वर्णन आता है—

त्वमग्ने वरुणो जायसे यत् त्वं मित्रो भवसि यत्समिद्धः।

त्वे विश्वे सहसस्पुत्र देवास्त्वमिन्द्रो दाशुषे मर्त्याः।

 — ऋ॰ 5। 3। 1

इस अग्नि के चार स्वरूप हैं। जब वह उत्पन्न होती है तब ‘वरुण’ कहलाता है। जब प्रदीप्त होता है, तब उसे मित्र कहते हैं। जब प्रचंड होता है तब विश्वेदेवो कहलाता है और अन्त में इंद्र बनकर होता के लिए परम ऐश्वर्य प्रदान करता है।

अपनी स्वार्थपरता, अहंता, संकीर्णता एवं पशुता को जो इस दिव्य अग्नि में होम देता है वह बदले में इतना प्राप्त करता है जिससे नर को नारायण की पदवी मिल सके। वेद कहता है-

देवासस्त्वा वरुणो मित्रो अर्यमा सं दूत प्रत्नमिन्घते

विश्व सो अग्ने जयति त्वया धनं यस्ते ददाश मत्योेः।

— ऋ॰ 1। 36। 4

हे अग्नि! जो अपना आपा तुम्हें सौंप देता है, वह उदात्त भावनाओं वाला व्यक्ति बदले में तुम्हारे समर्पण अनुदानों को प्राप्त करता है।


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