परमार्थ के लिए अपने को खतरे में डालने वाले

September 1972

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अपने जीवन को जोखिम में डालकर भी दूसरों की सहायता और रक्षा करने वाले व्यक्ति भी इस दुनिया में कम नहीं हुए। वस्तुतः धर्म उन्हीं के सहारे खड़ा हुआ है। यह धरती ऐसे ही धर्मपरायण लोगों के आधार पर टिकी हुई है। यदि सभी लोग स्वार्थी, पेटू, लालची और रक्तपिपासु बन जाएँ, तो फिर इस संसार में ऐसा कुछ भी शेष न रहे जिसके लिए आत्मा यह जन्म लेने और जीवन जीने में प्रसन्नता का अनुभव कर सके। चंदन का वृक्ष अकेला ही अपने क्षेत्र को महका देता है, नदी अकेली ही अपने क्षेत्र की प्यास बुझाती है। उदार और परोपकारी मनुष्य अकेला हो तो क्या, उसका प्रकाश चंद्रमा की तरह अंधेरे में प्रकाश उत्पन्न करता है और भटके हुओं को राह दिखाता है।

फ्रांस की राज्य क्रांति में 34 हजार ऐसे नर-नारी पकड़े गए; जिन्हें राजतंत्र का सहायक और प्रजाद्रोही सिद्ध किया जा रहा था और उन्हें मृत्युदंड की सजा देने की तैयारी की जा रही थी। क्रांतिकारियों की सरकार यह निश्चय कर चुकी थी, पर उसे भी लोकमत को अपने पक्ष में रखने के लिए, यह उचित लगा कि इन बंदियों पर मुकदमा चलाया जाए, तब विधिवत उन्हें मृत्युदंड दिया जाए। मुकदमें की तैयारी आरंभ हो गई। और इन बंदियों के विरुद्ध सबूत इकट्ठे करने में अधिकारी लोग लगाए।

एक उदार व्यक्ति ने देखा कि इन में कुछ ही व्यक्ति अपराधी हो सकते थे। शेष तो प्रतिहिंसा एवं द्वेष वश पकड़े गये और उन्हें अकारण न्याय का ढोंग बनाकर मृत्युदंड दिया जाने वाला है। इनकी रक्षा के लिए कुछ उपाय हो सकता हो तो करना चाहिए। इस सुशिक्षित व्यक्ति को एक उपाय सूझा। उसने अशिक्षित देहाती का वेश बनाया और इमारत की सफाई करने वाले मेहतर की नौकरी प्राप्त करने में किसी प्रकार सफलता पा ली। उसने अपने को एक मूर्ख मेहतर के ढांचे में इस तरह फिटकर लिया कि किसी को उस पर कोई संदेह ही न हो सके। दिन में वह सफाई करता और रात को अदालत की फाइलों में लगे प्रमाणों की चोरी। यह सिलसिला उसने तब तक जारी रखा जब तक कि सभी के मजबूत सिद्ध हो सकने वाले सबूतों को वहाँ से हटा न दिया। कुछ कागज तो उसने पानी में गिरा कर ऐसे कर दिए जो पढ़े ही न जा सकें। इस उच्च परिवार के सुशिक्षित व्यक्ति का नाम था— "चार्ल्स डी ला वसेर"

जब सबूत पूरे हो गए और मुकदमा चला तो ठोस प्रमाणों के अभाव में एक-एक करके सभी बंदी छूटते चले गए और क्रांतिकारी सरकार की इच्छा पूरी न हो सकी। इन बचाए हुए लोगों में कितने ही ऐसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति भी थे, जिन्होंने आगे चलकर फ्रांस की जनता की। भारी सेवा की इनकी प्राणरक्षा इस चतुरता से करने वाला चार्ल्स वसेर हेय नहीं माना जाता। उसका छद्म भी न्याय और समाज के हित में ही था। फ्रांस के एक जनरल ट्रेक्ट को सैनिक अदालतों ने मृत्युदंड दिया। जनरल की पत्नी राजा के पास दया की अर्जी लेकर गई, पर राजा दौरे पर गया हुआ था। पाँच दिन बाद लौटने वाला था। सैनिक अदालत का हुक्म तुरंत अमल में आने वाला था, पर उसमें वकील को तर्क करने की गुँजाइश थी। साथ ही यह भी कायदा था कि कोई वकील जितने तर्क पेश करने हो एक बार में ही कर दे। अठारहवीं सदी में ऐसे कानून थे।

जनरल ट्रैक्ट के वकील लुई वर्नाडे ने बहस आरंभ की और इतनी लंबी चली कि पाँच दिन और पाँच रात लगातार उसे बोलते रहना पड़ा। इतनी लबी दलील बिना रुके करते रहने का यह वकीलों की दुनिया में अनोखा उदाहरण था। पाँच दिन बाद जनरल की पत्नी ने सम्राट से मिलकर अपने पति का मृत्युदंड माफ करा लिया; किंतु अदालत का समय बर्बाद करने के अपराध में वकील लुईस को खुद सजा भुगतनी पड़ी।

दूसरों की न्यायोचित सहायता के लिए अपना समय बुद्धि, धन और श्रम खर्च करना— "आवश्यक पड़ने पर उसके लिए कष्ट उठाकर भी दूसरों का दुःख हलका करना वस्तुतः यही तप है। ऐसे परमार्थ परायण व्यक्तियों को सच्चा तपस्वी ही कहा जाएगा।"


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