सुख भगवान की दया, दुख उनकी कृपा

September 1972

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भगवान की दया सुखों और कृपा दुखों के बीच देखी जा सकती है, इन दोनों का समन्वय उचित ही हुआ है। सुख-दुख के दो पहियों पर ही जीवनरूपी रथ ठीक तरह चल सकता है। दोनों की सुविधा देकर भगवान ने हमारे ऊपर दया और कृपा की दुहरी अनुकंपा की है।

सुख इसलिए है कि उसके सहारे हमें हँसने, प्रमुदित होने का अवसर मिले और वैसे ही अवसर अधिक उपार्जित करने के लिए, अधिक प्रयास करने की प्रेरणा मिले। सत्कर्मों के सत्परिणाम पर हमारा विश्वास सुदृढ़ होता चला जाए। अपनी शक्ति और सामर्थ्य पर विश्वास बढ़े साथ ही यह देखता रहे कि ईश्वर का वरद्हस्त सिर पर है, वह हमें आगे बढ़ाने और सुखी रखने के लिए निरतर अनुग्रह की वर्षा कर रहा है।

दुख इसलिए है कि—  "हमें कठिनाइयों से जूझने का और उन्हें नगण्य समझने का अभ्यास बढ़े। साधारणतया कठिनाइयों की आशंका हमें उतना कष्टकर नहीं होती, छोटे बच्चे ठंडे पानी से नहाने में डरते हैं और पानी देखते ही रोते हैं, पर माता उनकी बात पर ध्यान नहीं देती और उसे पानी से नहला देती है, नहाने के बाद बच्चा समझता है पानी उतना कष्टकारक नहीं था; जितना समझा गया था।" डर निकल जाना अच्छा ही है; क्योंकि कठिनाइयों से रहित किसी का भी जीवन हो नहीं सकता। उनसे लड़ना उतना कठिन नहीं है। सच तो यह है कि जटिल परिस्थितियों से निपटने में मनुष्य के साहस, आत्मविश्वास, पौरुष, धैर्य जैसे अनेक सद्गुणों को विकसित करने का लाभ मिल जाता है, और मनुष्य इतना पराक्रमी बन जाता है कि आगे चलकर बड़े काम कर सके।

माता बच्चे को अनिच्छापूर्वक डॉक्टर के पास तब ले जाती है, जब उसके फोड़े का बढ़ता हुआ मवाद सारे हाथ को सड़ाता हुआ दीखता है। आपरेशन के समय थोड़ा कष्ट होगा तो जरूर, पर बच्चा उस थोड़ी देर की व्यथा को सहकर ही देर तक रहने वाली और सारे शरीर को विषैला कर देने वाली विभीषिका से बच सकता है। इस हित-कामना से ही छाती पर पत्थर रखकर अस्पताल ले जाती है। डॉक्टर को भी बच्चे से कोई द्वेष नहीं; वरन वह भी हितैषी और शुभचिंतक की भावना से ही आपरेशन करता है। यह प्रसंग अप्रिय तो है, पर क्या किया जाए, उसके बिना कोई अन्य उपाय भी तो नहीं। हाथ को सड़ने देना और महीनों-वर्षों दुख भोगना एक ओर, थोड़ी देर का कष्ट एक ओर, दोनों में से माता को भी और डॉक्टर को भी आपरेशन ही उचित दीखता है और वही होता भी है, बालक की इच्छा न होने पर भी—  "उसके रोने-चिल्लाने पर भी।"

एक को जेल जाते देखकर दूसरे के कान खड़े होते हैं। अकर्म करने के ढर्रे को रोकने के लिए उस दंड-विधान को प्रत्यक्ष देखने वालों को पुनर्विचार करना पड़ता है। कइयों के हाथ रुक भी जाते हैं। न्यायाधीश किसी को फाँसी भी देता है, तो उसमें उसकी लोकहित भावना ही काम करती है। सर्वसाधारण की अनीति का परिणाम देखकर भय करने का अवसर मिलता है। साथ ही उस अपराधी को जल्दी ही उस पाप से मुक्ति मिल जाती है अन्यथा वह भीतर-ही-भीतर घुमड़ता रहता है, तो सारी स्वस्थ मनोवृत्तियों का नाश कर देता है। न्याय और व्यवस्था के लिए यह दंड आवश्यक था। सो ही दिया भी गया। जीवन की सरसता उभयपक्षीय अनुभवों में है। मिठाई के साथ नमकीन भी रहे तो भोजन का मजा आवे। दिन ही नहीं रात भी आवश्यक है। बरसात ही नहीं गर्मी भी चाहिए। धूप-छाँह वाला मौसम ही तो सुख होता है। सुख हमें हताश नहीं होने देता और दुख अहंकार भरी मदोन्मत्तता पर नियंत्रण करता रहता है। सुख के प्रलोभन से मनुष्य सत्कर्म करता है और दुख के आतंक से कुकर्म करने से बचता है। सो दुख-सुख की कृपा और दया की खट्टी-मिट्ठी चटनी हमें रुचिपूर्वक चाटनी चाहिए।


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