हारमोन स्रावों का उद्गम अंतःचेतना से

September 1972

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साधारणतया आहार-विहार का प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है। स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने वाले निरोग रहते हैं और असंयम बरतने वाले— "अखाद्य खाने वाले बीमार पड़ते हैं।" बीमारियों के कारण रोग-कीटाणुओं के रूप में— "ऋतु-प्रभाव या धातुओं, तत्वों के हेर-फेर में ढूँढ़े जाते हैं और उसी आधार पर चिकित्सा की जाती है। पर कई बार इन सब मान्यताओं को झुठलाते हुए ऐसे कारण उपस्थित हो जाते हैं कि अप्रत्याशित रूप से शरीर के किन्हीं अवयवों का या प्रवृत्तियों का यकायक घटना-बढ़ना शुरू हो जाता है।" कारण ढूँढ़ते हैं, तो समझ में नहीं आता, अँधेरे में ढेला फेंकने की तरह कुछ उपचार किया जाता है, तो उसका कुछ परिणाम नहीं निकलता।

ऐसी परिस्थितियाँ प्रायः हारमोन ग्रंथियों में गड़बड़ी आ जाने के कारण उत्पन्न होती हैं। शरीर के सामान्य अवयवों की संरचना और उनकी कार्यपद्धति का ज्ञान धीरे-धीरे बढ़ता आया है, इसलिये रोगों के कारण और निवारण के संबंध में काफी प्रगति की गई है। पर यह अंतःस्रावी ग्रंथियों की आश्चर्यचकित करने वाली हरकतें जबसे सामने आई हैं, तब से चिकित्साविज्ञानी स्तब्ध रह गए हैं, प्रत्यक्षतः शरीरगत क्रियाकलाप से इनका कोई सीधा उपयोग नहीं है। वे किसी महत्त्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति नहीं करतीं चुपचाप एक कोने में पड़ी रहती हैं और वहीं से तनिक-सा स्राव बहा देती हैं। वह स्राव भी पाचन अंगों द्वारा नहीं, सीधा रक्त से जा मिलता है और अपना जादू जैसा प्रभाव छोड़ता है।

हारमोन, शरीर और मन पर कितने ही प्रकार के प्रभाव डालते और परिवर्तन करते हैं। उनमें से एक परिवर्तन कामवासना का, मानसिक जागरण और यौन अंगों की प्रजनन क्षमता भी सम्मिलित है।

छोटी उम्र की लड़की और लड़के लगभग एक जैसे लगते हैं। कपड़ों से बालों से उनकी भिन्नता पहचानी जा सकती है अन्यथा वे साथ-साथ हँसते, खेलते, खाते हैं; कोई विशेष अंतर दिखाई नहीं पड़ता। पर जब बारह वर्ष से आयु ऊपर उठती है, तो दोनों में काफी अंतर अनायास ही उत्पन्न होने लगता है। लड़के की आवाज भारी होने लगती है। होठों के बाल काले होने लगते हैं और कोमल अंग कठोर होने लगते हैं। लड़कियाँ शरमाने लगती हैं उनके कुछ अंगों में उभार आने लगता है और नए किस्म की इच्छाएँ तथा कल्पनाएँ मन में घुमड़ने लगती हैं।

यह ‘हारमोन’ स्रावों की करतूत है। वे समय-समय पर ऐसे उठते जगते हैं, मानो किसी घड़ी में अलार्म लगाकर रख दिया हो, अथवा टाइम बम को समय के कांटे के साथ फिट करके रखा हो। यौवन उभार के संबंध में इन्हीं के द्वारा सारा खेल रचा जाता है। अन्य सारा शरीर अपने ढंग से ठीक काम करता रहे, पर यदि इन हारमोन ग्रंथियों का स्राव-न्यून हो, तो यौवन अंग ही विकसित न होंगे और यदि किसी प्रकार विकसित हो भी जाएँ, तो उनमें वासना का उभार नहीं होगा, न कामेच्छा जागृत होगी, न उस क्रिया में रुचि होगी। संतानोत्पादन तो होगा ही कैसे?

साधारणतया कामोत्तेजना का प्रसंग 15-16 वर्ष की आयु से आरंभ होकर 60 वर्ष पर जाकर लगभग समाप्त हो जाता है। स्त्रियों का मासिक-धर्म बंद हो जाने पर लगभग पचास वर्ष की आयु में उनकी वासनात्मक शारीरिक क्षमता और मानसिक आकांक्षा दोनों ही समाप्त हो जाती हैं। इसी प्रकार 60 वर्ष पर पहुँचने पर पुरुष की इंद्रियाँ एवं आकांक्षाएँ भी शिथिल और समाप्त हो जाती हैं। यह सामान्य क्रम है। पर कई बार हारमोनों की प्रबलता इस संदर्भ में आश्चर्यजनक अपवाद प्रस्तुत करती है। बहुत छोटी आयु के बच्चे भी न केवल पूर्ण मैथुन में; वरन सफल प्रजनन में भी समर्थ देखे गए हैं। उसी प्रकार शताधिक आयु हो जाने पर भी वृद्ध व्यक्तियों में इस प्रकार की युवावस्था जैसी परिपूर्ण क्षमता पाई गई है।

लिंग-भेद से संबंधित हारमोनों में गड़बड़ी पड़ जाए, तो नारी को मूँछ निकल सकती है, पुरुष बिना मूँछ का हो सकता है तथा दोनों की प्रवृत्तियाँ भिन्न लिंग जैसी हो सकती है। नारी पुरुष की तरह कठोर व्यवहार करने वाली और नर, जनखों जैसे स्त्री-स्वभाव का हो सकता है। यौन आकांक्षाएँ भी विपरीत वर्ग जैसी हो सकती हैं, इतना ही नहीं, कई बार तो इन हारमोनों का उत्पात ऐसा हो सकता है कि प्रजनन अंगों की बनावट ही बदल जाए। ऐसे अनेक आपरेशनों के समाचार समय-समय पर सुनने को मिलते रहते हैं; जिनमें नर से नारी की और नारी से नर की जननेंद्रियों का विकास हुआ और फिर शल्यक्रिया द्वारा उसे, तब तक के जीवन की अपेक्षा भिन्न लिंग का घोषित किया गया। इसी नई परिस्थितियों के अनुसार उनने साथी ढूँढ़े, विवाह किए और गृहस्थ बनाए।

हिप्पोक्रेटस् ने इस तरह की विपरीतवर्गीय कुछ घटनाएँ देखी थीं और उनका कारण समझने का प्रयत्न किया था। चिकित्सक प्लिनी ने एक ऐसे सात वर्ष के लड़के का वर्णन लिखा है, जो लेंगिक दृष्टि से पूर्ण विकसित हो गया था।

8 जनवरी सन् 1910 को दो चीनी बच्चों ने सामान्य बालकों को जन्म दिया । जिसमें माता की उम्र 8 वर्ष और पिता की 9 वर्ष की थी। संसार में यह सबसे छोटे माता-पिता हैं। अमोय फूकेन प्रांत का यह कृषक परिवार ‘साद’ नाम से पुकारा जाता है। इस परिवार में ऐसे ही वाल-प्रजनन के और भी उदाहरण होते हैं।

कलावार (अफ्रीका) में भी कुछ समय पूर्व ऐसी ही घटना घटित हुई थी। वहाँ एक्क्री नामक एक नीग्रो की आठ वर्षीय पत्नी ने आठ वर्ष चार मास की आयु में ही प्रसव किया और एक बालिका को जन्म दिया, आश्चर्य यह और देखिए कि वह बच्ची भी अपनी माँ की तरह आठ वर्ष की आयु में ही माँ बन गई। इस प्रकार उमजी को 17 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते दादी बनने का अवसर प्राप्त हो गया।

सूडान में अभी इसी वर्ष एक नौ वर्ष की लड़की माँ बनी है उसका पति 10 वर्ष का है। यह समाचार कुछ ही दिन पूर्व प्रायः सभी समाचारपत्रों में छपा था।

जोरा आगा नामक टर्की के एक दीर्घजीवी वृद्ध पुरुष की आयु 1927 में 153 वर्ष की थी। उस समय उसने अपना ग्यारहवाँ विवाह किया था। उससे पूर्व 10 स्त्रियाँ और 27 बच्चों को, वह अपने हाथों कब्र में सुला चुका था। उसके जीवित बच्चे 70 से ऊपर थे।

लिंग-परिवर्तन की घटनाओं में यही होता है। मनुष्य की आकांक्षाएँ और अभिरुचियाँ जिधर गतिशील होती हैं, उसी तरह की लिंग मनोभूमि बनती चली जाती है। कोई नारी यदि नर के प्रति अत्यधिक आसक्त होती है, उसी के सान्निध्य एवं चिंतन में निरत रहती है, तो उसका अंतःकरण उसी ढाँचे में ढलता और तादात्म्य होता चला जाएगा। कालांतर में वह आकांक्षा उसे स्वयं नर के रूप में परिणत कर सकती है। इस प्रकार कोई नर यदि नारी के चिंतन और सान्निध्य में अतिशय रुचि लेता है, तो उसकी चेतना नारी वर्ग में परिणत होने लगेगी और वह उस प्रवृत्ति को तीव्रता के अनुरूप देर में या जल्दी लिंग-परिवर्तन कर लेगा। इसमें एकाध जन्म की देरी भी हो सकती है। लिंग-परिवर्तन की ऐसी घटनाओं में; जिनमें नारी नर के रूप में या नर नारी के रूप में परिणत किए गए, उनमें शारीरिक या मानसिक कारण नहीं होते; वरन अंतःचेतना का गहन स्तर—  "कारणशरीर ही इस प्रकार की पृष्ठभूमि विनिर्मित करता है। नपुंसक वर्ग भी ऐसी ही स्थिति है। इसे परिवर्तन का मध्य स्थल कह सकते हैं।"

समलिंगी आकर्षण से लेकर सहवास तक की अनेक घटनाएँ देखने सुनने में आती रहती हैं। इसमें भी वह अतृप्त आंतरिक आकांक्षा ही उभरती है। दो नारी यदि नररूप में विकसित हो रही होंगी, तो उनमें नर के प्रति आकर्षण की विद्यमान मात्रा स्त्री रति की अपेक्षा पुरुष रति में रस एवं तृप्ति अनुभव करेगी और उनमें परस्पर घनिष्ठता बढ़ती जाएगी। इसी प्रकार दो नर यदि नारीरूप में विकसित हुए हैं, तो उनका पूर्वाभ्यास नारी के प्रति आकर्षण बनाए रहेगा और वे दो नारियाँ परस्पर मिलन का अधिक आनंद अनुभव करेंगी। यह विपर्यय दोनों कारणों से हो सकता है। विकसित होती हुई आकांक्षा भी अपनी अतृप्ति का समाधान कर सकती है। इसी प्रकार विकास आगे चल पड़ा है। शरीर बदल गए हैं, पर पूर्व मनोवृत्ति में भिन्न लिंग संस्कार अभी भी प्रबल हैं, तो वे भी बार-बार वैसी ही उमंगे उठाकर समलिंगी संपर्क से अधिक आकर्षण अनुभव कर सकते हैं।

गत वर्ष योरोप में ऐसे विवाहों को अदालत द्वारा भी मान्यता मिल चुकी जिनमें पति दोनों या तो नर ही थे या नारी ही नारी। यों ऐसे प्रसंग निजी और अप्रकट रूप से चलते तो रहते हैं पर पिछली न्यायिक परंपराएं तोड़कर जिन्हें कानूनी मान्यता मिली हो ऐसे विवाह गत वर्ष ही सर्वसाधारण के सामने आये हैं।

कामवासना को ही लें। पुराने जमाने में भस्में तथा रसायनों खिलाकर मृत या स्वल्प कामेच्छा को पुनर्जागृत करने का प्रयत्न किया जाता था। वह प्रयास भी नशे से उत्पन्न क्षणिक उत्तेजना जैसी ही सिद्ध हुई। जब से हारमोन प्रक्रिया का ज्ञान हुआ है, तब से यौन ग्रंथियों के रसों को पहुँचाने से लेकर बंदर एवं कुत्ते की ग्रंथियों का आरोपण करने तक का क्रम बराबर चल रहा है। आरंभ में उससे तत्काल लाभ दीखता है, पर वह बाहर का आरोपण देर तक नहीं ठहरता। भयंकर आपरेशनों के समय रोगी को अन्य व्यक्ति का रक्त दिया जाता है, वह शरीर में 3-4 दिन से अधिक नहीं ठहरता। शरीर यदि नया रक्त स्वयं बनाने लगे तो ही फिर आगे की गाड़ी चलती है। इसी प्रकार आरोपित स्राव अथवा रस ग्रन्थियाँ तत्तकाल ही लाभ दिखावेंगी। यदि उत्तेजना से अपनी ग्रंथियाँ जागृत होकर स्वतः काम करने लगें तो ही कुछ काम चलेगा अन्यथा वह बाहरी आरोपण की फुलझड़ी थोड़ी देर चमक दिखाकर बुझ जाएगी। अब तक के बाहरी आरोपण के सारे प्रयास निष्फल हो गए हैं। कुछ सप्ताह का चमत्कार देख लेने के अतिरिक्त उनसे कोई प्रयोजन सिद्ध न हुआ।

सन् 1876 में एक वृद्ध डॉक्टर ब्राउन सेक्वार्ड ने घोषणा की कि उसने कुत्ते को वृषण रस अपने शरीर में पहुँचा कर पुनः यौवन प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली है। 72 वर्षीय इस डॉक्टर की ओर अनेक चिकित्साशास्त्रियों का ध्यान आकर्षित हुआ और उन्होंने उसकी घोषणा को सच पाया, लेकिन यह सफलता स्थिर न रह सकी वह कुछ ही दिन बाद पुनः पुरानी स्थिति में आ गए।

इंग्लैण्ड के डॉक्टर मूरे ने थामरेक्सिन का प्रयोग एक थाइराइड विकारग्रस्त रोगिणी पर किया। दवा का असर बहुत थोड़े समय तक रहता था। कुछ वर्ष जीवित रखने के लिये एक-एक करके 870 भेड़ों की ग्रंथियाँ निचोड़कर, उसे आए दिन लगानी पड़ती थी। इस पर धक्का-मुक्की करके ही उसकी गाड़ी कुछ दिन और आगे धकेली जा सकी।

शरीरशास्त्रियों ने इस अद्भुत निरंकुश को ढूँढ़ने का प्रयत्न किया, तो उनकी पकड़ में अंतःस्राव ग्रंथियाँ आ गई। इनमें छह प्रधान हैं। कई उप-प्रधान हैं। इनमें तनिक-तनिक से रस स्रावित होते रहते हैं और वे रेंग कर रक्त में जा मिलते हैं। इन्हें हारमोन कहते हैं। इनके भी कई भेद-उपभेद ढूँढ़े गए हैं। इतना सब होते हुए भी यह आश्चर्य का ही विषय है कि इनमें आखिर ऐसा क्या जादू है, जो शरीर की सामान्य व्यवस्था में इतनी भयानक उलट-पुलट वे करके रख देते हैं। स्वास्थ्य के साधारण नियमोपनियम एक ओर और इनकी मनमानी एक ओर, तथा इस रस्साकशी में सामान्य व्यवस्था लड़खड़ा जाती है और इन हारमोनों की मनमानी जीतती है। इन स्रावों का रासायनिक विश्लेषण करने पर वे सामान्य स्तर के ही सिद्ध होते हैं, उनमें कुछ ऐसी अनहोनी मिश्रित नहीं दीखती जिससे ऐसे उथल-पुथल भरे परिणाम होने चाहिए। पर ‘चाहिए’ को ताक पर रखकर जब ‘होता’ है, सामने आता है, तो बुद्धि चकरा जाती है और इन अंधाधुंधी में हाथ पर हाथ डालकर बैठना पड़ता है।

जहाँ तक खोज का विषय है, उन अंतःस्राव ग्रंथियों का— "उनमें प्रवाहित होने वाले रसों का स्वरूप समझ लिया गया और उनका रासायनिक विश्लेषण कर लिया गया है।" पर उनकी असाधारण महत्ता और असाधारण हरकत का कुछ कारण नहीं, जाना जा सका। इतना ही नहीं उनके नियंत्रण का भी कोई उपाय हाथ नहीं लगा है। यह मोटा और भोंड़ा तरीका है कि उसी स्तर के रसायन बाहर से पहुँचाकर उन स्रावों की कमी-वेशी के परिणामों को रोकने का प्रयत्न किया जाए। इतना ही बन पड़ा है, सो किया भी गया है। अन्य जीवों से प्राप्त करके- अथवा रासायनिक पद्धति से विनिर्मित करके उन रसों को व्यक्ति के शरीर में पहुँचाकर यह किया जाता है कि विकृतियों पर नियंत्रण किया जाए। उसका लाभ होता तो है पर रहता क्षणिक ही है। भीतर का उपार्जन बंद हो जाए, तो बाहर से पहुँचाई मदद कब तक काम देगी। इसी प्रकार जमीन फोड़कर कोई स्त्रोत निकल रहा हो तो उसे एक जगह से बंद करने पर दूसरे छेद से फटेगा। यह तो तात्कालिक या क्षणिक उपचार हुआ । बात तब बनती है, जब उत्पादन के केंद्र स्वतः ही अपने स्रावों को घटा या बढ़ा लें। उपचार का उद्देश्य तो तभी पूरा हो सकता है। पर यह स्थिति हाथ आ नहीं रही है। शरीरशास्त्रियों के सारे प्रयत्न अब तक निष्फल ही रहे हैं; और आगे भी इनकी अद्भुत संरचना और कार्यपद्धति को देखते हुए कुछ अधिक आशा नहीं बँधती।

ओछी भावनाएँ अंतरात्मा में जमी हों और छोटा बनाने वालों पर बड़प्पन के संस्कार जम जाएँ, तो शरीर को ही नहीं मस्तिष्क को भी बड़ा बनाने वाले हारमोन उत्पंन होंगे। इंद्रिय भोगों में आसक्त अंतः भूमिका अपनी तृप्ति के लिए कामोत्तेजक अंतःस्रावों की मात्रा बढ़ाती है। विवेक जागृत हो और विषय भोगों की निरर्थकता एवं उनकी हानियों को गहराई से समझ लिया जाए, तो इन हारमोनों का प्रवाह सहज ही कुण्ठित हो जाता है। इसी प्रकार वियोग, विश्वासघात, अपमान जैसे आघात अंतःकरण की गहराई तक चोट पहुँचा दें ,तो युवावस्था में भी भले-चंगे हारमोन स्त्रोत सूख सकते हैं इसके विपरीत यदि रसिकता की लहरें लहराती रहें, तो वृद्धावस्था में भी वे यथावत् गतिशील रह सकते हैं। जन्मांतरों की रसानुभूति बाल्यावस्था में भी प्रबल होकर उस स्तर की उत्तेजना समय से पूर्व ही उत्पन्न कर सकती हैं।

कामक्रीड़ा शरीर द्वारा होती है, कामेच्छा मन में उत्पन्न होती है। पर इन हारमोनों की जटिल प्रक्रिया न शरीर से प्रभावित होती है और न मन से। उसका सीधा संबंध मनुष्य की अंतःचेतना से है इसे आत्मिक स्तर कह सकते हैं। जीवात्मा में जमे काम बीज जिस स्तर के होते हैं तदनुरूप शरीर और मन का ढाँचा-ढलता और बनता-बिगड़ता है। हारमोनों को भी प्रेरणा, उत्तेजना वहीं से मिलती है।

पीनियल ग्रंथि भूमध्य-भाग में है। जहाँ देवताओं का तीसरा नेत्र बताया जाता है। प्राचीनकाल में ऐसे प्राणी थे भी जिनके मस्तिष्क में सचमुच एक अतिरिक्त तीसरी आँख और भी होती थी, जिससे वे बिना गर्दन मोड़े पीछे के दृश्य भी देख सकें। अभी अफ्रीका में कुछ ऐसी छिपकलियाँ देखी गई हैं; जिनके सिर पर कार्निया, रेटिना लेन्स युक्त पूरी तीसरी आँख होती है।

धान के दाने की बराबर धूसर रंग की इस छोटी-सी ग्रंथि में आश्चर्य भरे पड़े हैं। जिन चूहों में दूसरे चूहों की पीनियल ग्रंथि का रस भरा गया, वे साधारण समय की अपेक्षा आधे दिनों में ही यौन रूप में विकसित हो गए और जल्दी बच्चे पैदा करने लगे। समय से पूर्व उनके अन्य अंग भी विकसित हो गए, पर इस विकास में जल्दी भर रही मजबूती नहीं आई। काम दहन की शिवजी की कथा की इन हारमोन से संगति अवश्य बैठती है, पर अंतःकरण की रुझान जिस स्तर की होगी, शरीर और मन ढालने के लिए हारमोनों का प्रवाह उसी दिशा में बहने लगेगा।


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