समुद्री लहरों की तरह हमारा जीवन उछले, गरजे और आगे बढ़े

September 1972

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देखा जाता है कि समुद्रतल पर लहरें उठती और गिरती रहती हैं। इसका कारण जानना हो तो उसकी उस ग्रहणशक्ति पर ध्यान देना होगा, जो वे पवन से ऊर्जा प्राप्त करने में संवेदनशील होती हैं। जल कोमल होता है— "द्रव और सरल।" उड़ती हुई पवन अपने प्रचंड वेग की ऊर्जा का अंश इस श्रद्धालु जल को दे जाती है, और तरंगें उठने लगती हैं

यदि किसी एक खूँटी से रस्सी का एक सिरा बाँध दें और दूसरा सिरा अपने हाथ में रखें। रस्सी को हिलाएँ तो देखेंगे कि रस्सी में लहरें उठती हैं । वे हाथ से आरंभ होकर खूँटी में बँधे सिरे पर जाकर समाप्त होती है। यह हाथ के द्वारा रस्सी को दी गई ऊर्जा का चमत्कार है। पवन की ऊर्जा जल को इसी प्रकार हिलाती हैं। हिलने की हलचल ऊँचे उठने और नीचे गिरने के रूप में दिखाई पड़ती हैं। गतिशीलता की दो ही दिशा है— उत्थान और पतन। पवन का काम यहीं समाप्त हो गया अब तरंगों का काम आरंभ हुआ वे एकदूसरे को अपना सहयोग प्रदान करती हैं । अपनी गति पड़ौस वाली तरंग को प्रदान करती हैं। इसी प्रकार एक का अनुदान दूसरे को मिलते रहने पर सहज ही एक अग्रगामी नई हलचल पैदा होती जाती है और तरंगें जहाँ उत्पन्न हुई थीं वहीं न रहकर धीरे-धीरे बहुत आगे-तक— वहाँ तक बढ़ती जाती हैं जहाँ समुद्र का छोर आने से उनका आगे का रास्ता बंद नहीं हो जाता।

समुद्री लहरें कई बार बड़ी प्रचंड और उग्र देखी गई हैं। कई बार तो वे जहाजों को उलट देती हैं और कई बार तटों से टकराकर वहाँ भारी तोड़-फोड़ कर डालती हैं। आमतौर से समुद्री तूफानों में 15 मीटर ऊँची लहरें उठती हैं; पर कई बार वे उससे भी कहीं ऊँची देखी गई हैं। जल वैज्ञानिकों ने 36 मीटर तक ऊँची लहरे नापी हैं और उनके श्रृंग आज तो इससे भी कई मीटर ऊँचे उठते पाए गए हैं। कभी-कभी असाधारण तूफानों में तो और भी ऊँची उठ जाती हैं।

तरंगों की ऊँचाई में जितना महत्त्व पवनप्रदत्त ऊर्जा का है, उससे अधिक लहरों के पारस्परिक सहयोग का है। छोटी-छोटी तरंगें जब आपस में मिलती हैं, तो उस मिलने के फलस्वरूप अधिक बड़ी और अधिक सशक्त लहर का उदय होता है। पर यदि वे विपरीत दिशा से आ रही हों तो एकदूसरे से लड़ पड़ेंगी और फिर वह गृहयुद्ध दोनों का ही अंत कर देगा। यदि दो प्रतिपक्षी तरंगों का आयाम समान हो तो फिर दोनों का मरण निश्चित है; पर यदि उनमें एक छोटी एक बड़ी हो तो नष्ट छोटी ही होगी, बड़ी की भी शक्ति तो घट जाएगी, पर उसका अस्तित्व बना रहेगा और वह अपनी दिशा में किसी प्रकार चलती रहेगी।

यदि छोटी लहरें आपस में घुल-मिल जाने की नीति अपना लेती हैं तो उनकी संख्या अवश्य घट जाती हैं पर नई तरंगें उत्पन्न होती हैं । उनकी ऊँचाई, गति और आकृति तीनों में ही असाधारण उन्नति होती है। ये लहरें फिर लंबी यात्रा करती हैं और इतनी तेज चलती हैं कि तूफान को भी पीछे छोड़ देती हैं। कुछ दिन पूर्व ब्रिटेन के तट पर ऐसी लहरें पाई गई थीं जो 800 किलोमीटर दूर अमेरिका में एक समुद्री तूफान के कारण उत्पन्न हुई थीं और तूफान को पीछे छोड़कर उससे काफी समय आगे आ गई थीं।

शक्तिशाली लहरों के थपेड़े गजब के होते हैं। उन थपेड़ों में 50 टन प्रति वर्ग गज की शक्ति से अपने अवरोधों के साथ टकराने की शक्ति होती है। एक बार अमेरिका के समुद्रतट पर इन थपेड़ों ने एक भारी चट्टान को ऐसा उछाला कि वह 30 मीटर ऊँचे प्रकाश स्तंभ से जा टकराई और उसमें छह मीटर व्यास का छेद कर दिया।

लहरों का पूरी तरह पारस्परिक सम्मिश्रण प्रायः तभी होता है, जब वे ऊँचाई और आकृति में समान होती हैं। छोटी-बड़ी तरंगें कुछ हद तक संयोग तो करती हैं, पर स्तर की बाधा उन्हें पूरी तरह आत्मसात नहीं होने देती।

समुद्रों में निरतंर उठने वाली तरंगों में प्रकृति के विधान का कुछ परिचय हमें मिलता है, वह इतना महत्त्वपूर्ण है यदि उसे समझा और अपनाया जा सके तो उससे अपने जीवनक्रम में भी समुद्री लहरों जैसी ऊँची और शक्तिशाली क्षमताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।

पवन की ऊर्जा अनवरत रूप से सर्वत्र विद्यमान रहती हैं और अपना प्रभाव छोड़ती हैं, पर चट्टानों पर इसका कुछ प्रभाव नहीं पड़ता। वे सघन जड़ता के कारण किसी का प्रभाव ग्रहण नहीं करते, अपनी स्थिति में संतुष्ट बने रहते हैं और हलचल उत्पन्न करने के लिए उत्सुक नहीं होते। धूलि भरी मिट्टी में थोड़ी हलचल होती है। वृक्ष, वन,पत्तियों के पत्ते भर हिलते हैं, किंतु समुद्री जल उनका अधिक प्रभाव ग्रहण कर लेता है और गरजती, उछलती हलचलों से अपनी शोभा बढ़ाता है। मनुष्यों में भी ऐसी ही मनोभूमि के लोग होते हैं। कुछ बिलकुल जड़, मूढ़ और अपरिवर्तनशील, कुछ स्वल्प और क्षणिक चेतना वाले, ऐसे लोगों को पवन जैसी ईश्वरीय प्रेरणा या महापुरुषों के अनुग्रह का कुछ अतिरिक्त लाभ नहीं मिलता। उनकी आंतरिक जड़ता कुछ ग्रहण ही न करे तो बेचारा अनुदान क्या करेगा। घड़े का मुँह ओंध करके रखा गया हो तो भारी वर्षा होने पर भी उसके पेट में एक बूँद पानी नहीं जाएगा । पवन का समुद्र पर कुछ पक्षपात नहीं है और न पर्वत से द्वेष। उनकी अपनी कोमलता, सरसता, द्रवित होने के गुणों में न्यूनाधिकता ही वह कारण है; जिससे समुद्र को लहरों की संपदा मिली प्रतीत होती है और पर्वत को पवन ने कुछ नहीं दिया, ऐसा समझा जाता है। वस्तुतः यहाँ पक्षपात नहीं ग्रहण करने का पात्रत्व ही प्रधान कारण है।

जहाँ हलचल होगी वहाँ दो ही क्रम चलेंगे—  उत्थान या पतन। शक्ति घटती जाएगी , पतन की संभावनाएँ बढ़ेंगी। दृढ़ता और स्फूर्ति बनी रहेगी, बल अक्षुण्य रहेगा और प्रगति का वातावरण बना रहेगा। ढील पड़ी, उदासी आई, अस्त-व्यस्तता उत्पन्न हुई कि उत्थान की संभावनाएँ भी गिरी। समुद्र की लहरों में जितनी ऊर्जा भरी उमंग रहती है उतनी ही वे ऊँची उठती हुई— उफनती और गरजती दिखाई देती है; पर जब उनकी अंतःप्रेरणा, स्फूर्ति घटी तो फिर बाहर क्रियाकलाप भी शिथिल हो जाता है। ऊर्जा खो देने के बाद लहरें मरी-गिरी सी किसी प्रकार दिखाई भर देती रहती हैं उनमें कुछ जान नहीं रहती। मनुष्य के आत्मबल, उत्साह और पुरुषार्थ की ऊर्जा ही उसे ऊँचा उठाए रहने में समर्थ रखती है। जहाँ दृढ़ता गिरी वहाँ फिर पतन की परिस्थितियाँ ही उत्पन्न होती चली जाती हैं। सारा वैभव और चमत्कार न जाने कहाँ तिरोहित हो जाता है।

परस्पर का सहयोग अनेक गुनी शक्ति उत्पन्न करता है। सूत के धागों से बटकर बनाए हुए रस्से, कमजोर सींकों से बनी बुहारी रोज यही स्मरण दिलाते हैं कि एकाकी व्यक्ति नगण्य है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता, ढाई चावल से खिचड़ी नहीं पकती। महत्त्वपूर्ण कार्यों की भूमि ईंट और चूने के मिलन, सहयोग की तरह ही आरंभ होती है। जहाँ व्यक्तिगत अहंता, महत्त्वाकांक्षा मिटाकर सहयोग और समर्पण की महत्ता को समझ लिया जाएगा वहाँ हजार गुना अधिक प्रयोजन सधने की संभावना बनेगी। जहाँ अपनी ढपली अपना राग बजाते हुए, लोग अपने-अपने पद, यश और वर्चस्व के लिए लुभाते, ललचाते फिरेंगे वहाँ ऐसी ही विडंबना में शक्ति नष्ट होती रहेगी, काम कुछ भी न हो सकेगा। पति-पत्नी के सहयोग से गृहस्थ की सुरम्य व्यवस्था बनती है और गृह-उद्यान फला-फूला दिखाई पड़ता है। पर यह होता तभी है जब पति-पत्नी सच्चे मन से एक होते हैं। यदि दोनों अपना अहंकार और स्वार्थ अलग-अलग संजोए रहें तो फिर उस गृहस्थ में हर घड़ी नारकीय दृश्य ही उपस्थित रहेंगे। जीवन विकास में—  महत्त्वपूर्ण प्रयोजन की सिद्धि में यह पारिवारिक सहयोग की अनिवार्य आवश्यकता यदि समुद्र की लहरों की तरह हम भी हृदयंगम कर लें और अपने व्यक्तिगत अहंता को सामूहिक प्रयोजनों में घुला देने का प्रयत्न करें तो निस्संदेह अति महत्त्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध होगा। लहरें आकाश चूमेंगी और थपेड़ों से चट्टानों को उछाल देने जैसी क्षमता उपलब्ध होगी ।

पूर्ण मिलन समान, गुण, कर्म स्वभाव के लोगों में होता है। इसलिए उच्चस्तर के लोगों को न केवल अपने स्तर के व्यक्तित्व तलाश करने चाहिए; वरन् उनमें घनिष्ठता बढ़ाने का भी प्रयत्न करना चाहिए। यों सहयोग तो सर्वत्र ही सराहनीय है। यदि सदुद्देश्य के लिए सहयोग इकट्ठा किया गया है तो स्तर की भिन्नता रहते हुए भी उसका लाभ मिलेगा; किंतु चमत्कार समान मानसिक स्तर के लोगों के मिलने पर ही उत्पन्न होता है। समान ऊँचाई की लहरें जब परस्पर घुलती हैं, तो उनका वेग और स्तर दोनों ही असाधारण रूप से बढ़ते हैं। इस दिशा में भी हमें प्रयत्नशील रहना चाहिए।

उत्थान के प्रति सुदृढ़ संकल्प और कठिन पुरुषार्थ में जब भी कमी आवेगी, पतन की परिस्थितियाँ पैदा होंगी। जीवन के अभाव का नाम ही मृत्यु है। प्रकाश बुझ जाने को ही अंधकार कहते हैं। प्रगति की दिशा में निष्क्रिय होना— उत्कृष्टता को उच्चस्तरीय बनाने की चेष्टा में आलस या शिथिलता बरतना, इसी का नाम पतन है। पतन कोई अलग वस्तु नहीं है। उत्कृष्टता की उपेक्षा ही पतन बनकर सामने आती है। हमें लहरों की तरह ऊँचा उठे रहने में ही अनवरत रूप से प्रयत्नशील रहना है अन्यथा निःचेष्ट होते ही पतन के गर्त में गिरना पड़ेगा।

परस्पर टकराना तो प्रत्यक्ष ही अपने अस्तित्वों को समाप्त कर लेना हैं। शक्तिशाली लहरें यदि प्रतिकूल दिशा में चलती हैं और एकदूसरे के ऊपर चढ़ने का प्रयत्न करती हैं तो भले ही वे इसे महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए आवश्यक समझें, पर होता उलटा ही है। परस्पर लड़ने में खर्च की गई शक्ति केवल खोखलापन ही शेष छोड़ती हैं। सारतत्त्व तो उस द्वंद्व में ही जलकर नष्ट हो जाता है।

तूफान बड़ा है, पर उससे यदि सागर की सत्पात्र लहरें समुचित शक्ति ग्रहण कर लें तो उनकी गति और भी अधिक बढ़ जाती है। तूफान पीछे रह जाता है और लहरें आगे जा पहुँचती हैं। ग्रहणशीलता और पात्रत्त्व का अभाव न हो तो हम ईश्वर से, देव शक्तियों से और महामानवों से इतना अधिक प्राप्त कर सकते हैं कि लहरें आगे निकल जाएँ और तूफान पीछे ही रह जाए ।


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