चुंबक और मानवीय प्रकृति का सादृश्य

September 1972

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भेड़ चराते हुए मैनानैस गड़रिए को सबसे पहले चुंबक मिला था। उस जंगल में कितने ही गड़रिए पीढ़ियों से भेड़ चराते चले आते थे। चट्टान भी चिरकाल से वहीं पड़ी थी। किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। चारों ओर कहाँ क्या हो रहा है? कहाँ क्या भरा पड़ा है उसे देखता-खोजता भी कौन है? जो सामने आ गया उसी को हलकी नजर से देखकर काम चला लिया, इतना ही ढर्रा मोटी अकल चलाती रहती है। जिज्ञासा के अभाव में जड़ जीवन ही जीना पड़ता है।

मैनानैस जिस चट्टान पर खड़ा था उसके जूते चिपक रहे थे। पैर उठाने में ऐसी कठिनाई लगती थी मानो वे किसी ने पकड़ लिए हों, किसी गहरे में धंस गए हों। उसकी जिज्ञासा जगी। बारीकी से देखा और गहराई से खोजा तो प्रतीत हुआ कि पैरों के नीचे जो पत्थर पड़ा है, उसमें कुछ विशेषता है। जूते की तली में गड़ी हुई कीलों की उस पत्थर के साथ क्या संगति हो सकती है। उसकी खोज-बीन और उलट-पुलट की तो पता चला कि इस निरर्थक पत्थर में ऐसी अजीब शक्ति है कि वह लोहे को अपनी ओर खींचती है।

बस उसने इस पत्थर की बात लोगों को बता दी। वह बड़ा उपयोगी निकला। आगे जाकर उससे बहुत काम बने। गड़रिए को उसका आविष्कारक, अन्वेषक माना गया और पत्थर का नाम उस मैगनैस गड़रिए के नाम पर— "मैगनेट रख दिया गया।" यद्यपि इससे पहले उस पत्थर को लोड स्टोन के नाम से जाना जाता था।

पुराणोक्त पारस पत्थर भी शायद आरंभ में ऐसे ही खोजा गया हो। जितना महत्त्व मैगनेट और पारस का है उससे हजार गुना उस सूक्ष्मदर्शी जिज्ञासा बुद्धि का है, जो साधारण में से असाधारण को खोजती है और उसे ढूंढ़ भी निकालती है।

जीवन के जंगल में न जाने कितने चुंबक ऐसे ही उपेक्षित और अनजाने पड़े हैं। हममें से कोई गड़रिया थोड़ी खोज-बीन कर सकने की पैनी बुद्धि से काम ले तो न जाने कितना कुछ ऐसा खोज निकाले जिसे पाकर वह स्वयं भी धन्य हो जाए और असंख्यों को उपकृत कर जाए।

चुंबक की एक छड़ को यदि किसी धागे में बाँधकर अधर लटका दिया जाए, तो उसके दोनों सिरे उत्तर-दक्षिण की ओर घूम जाएँगे। जब तक उनके घूमने को रोका न जाए कितनी ही उलट-पुलट करने पर भी वे अपनी नियत दिशा के लिए ही उन्मुख रहेंगे। दिगसूचक-यंत्र कंपास इसी आधार पर बना है। दिशा का सही ज्ञान करने के लिए सर्वत्र उसी को काम में लाया जाता है। जो स्वयं सही है— उसी से मार्गदर्शन की आशा की जा सकती है। जो स्वयं अस्थिर, चंचल और पथभ्रष्ट है वह दूसरों का मार्गदर्शन क्या करेगा? रास्ता बताने की उससे क्या कोई अपेक्षा करेगा? यदि कंपास न हो तो जल व वायु, यानों की लंबी यात्राकर सकना ही संभव न हो। आदर्शनिष्ठ व्यक्ति इस दुनिया में न रहे तो पीड़ितों को दिशा-दर्शन कौन कराये? पथप्रदर्शन कैसे संभव हो?

उतरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव परस्पर बहुत दूर हैं—  "एक धरती के इस छोर पर दूसरा उस छोर पर। चुंबक का टुकड़ा कितना ही छोटा क्यों न हो उसके दो छोर भी उत्तर और दक्षिण ध्रुव की विशेषताओं से युक्त मिलेंगे। धरती की आकर्षणशक्ति की प्रक्रिया यों ही यह छोटे चुंबक खंड इस तरह प्रदर्शित करते हैं मानों वे ही धरती की इस विशेषता का प्रतिनिधित्व करते हों।"

मनुष्य भी एक चुंबक ही है। वह विश्व-ब्रह्मांड की सारी क्षमता और विशेषता का प्रतिनिधित्व करता है। इसीलए पिण्ड को— मनुष्य को— ब्रह्मांड का नक्शा कहा जाता है।

उत्तर ध्रुव और दक्षिण ध्रुव के आकर्षण परस्पर विरोधी हैं। एक-एक तरफ खींचता है दूसरा दूसरी तरफ । यह खींच-तान की रस्साकशी अनादिकाल से चली आती है। दैवी और आसुरी प्रवृत्तियाँ इस संसार पर आधिपत्य जमाए हुए हैं वे परस्पर विरोधी होते हुए भी एकदूसरे के पूरक हैं। असुरता न हो तो देवत्व की गरिमा ही प्रकाश में न आए। संघर्ष का अवसर न रहने से देवतत्त्वों की प्रखरता, तेजस्विता ही नष्ट हो जाए और देव-दानव का अंतर न रहने से सतर्कता और चेष्टा जैसे गुणों का विकास ही न रह सके और उनके बिना जीवन का आनंद ही न रहे। चुंबक के उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव— " धरती के ध्रुवों की तरह परस्पर विरोधी ही रहते हैं।" विरोधों का समन्वय करने की क्षमता ने ही चुंबक को चुंबक— "धरती को धरती और मनुष्य को मनुष्य बनाया है।"

चुंबक के दोनों सिरे अपनी क्षमता से भिन्न प्रकार की क्षमता की ओर सदा आकर्षित रहते हैं। यदि चुंबक के उत्तर ध्रुव को दूसरे चुंबक के दक्षिण ध्रुव की ओर किया जाए, तो वे परस्पर आकर्षित होंगे। अर्थात हर कोई अपने अभाव की पूर्ति करना चाहता है। नर और नारी के बीच का आकर्षण इसी प्रकार का है, दोनों अपनी कमियों को दूसरे के सहारे पूरी करना चाहते हैं। आत्मा और परमात्मा के बीच आकर्षण की शृंखला इसी कारण चल रही है। आत्मा में जिन दिव्य गुणों का अभाव है उसे वह परमात्मा की समीपता से प्राप्त करने के लिए उपासनारत होती है और ईश्वर निराकार होने से अपनी गरिमा शरीरधारी मनुष्य के द्वारा प्रकट करना चाहता है। भक्त भगवान के लिए ललचाता है और भगवान भक्त को पाने के लिए लालायित रहता है।

चारों दिशाओं में तथा नीचे-ऊपर यदि छह प्लेट चुंबक की खड़ी कर दी जाएँ। दोनों सिरे परस्पर आमने-सामने रहें तो बीच में कोई लोहे की वस्तु अधर में लटकाई जा सकती है। चुंबक की प्लेटें अपनी-अपनी ओर उसे खींचेगी और वह इस संतुलन से अधर लटकता रहेगा। ऐसा प्रतीत होगा मानो वह बिना किसी के सहारे आकाश में विचरण कर रहा है।

जीवन के हर क्षेत्र में भगवान का प्रतिनिधित्व करने वाली सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों की प्लेटें लगी हों तो वे उसे निरंतर खींचती रहेंगी, गिरने न देंगी। महापुरुष अपने बलबूते अधर लटके और आकाश में विचरते जैसे लगते हैं और सबको अचम्भे में डालते हैं। वस्तुतः यह महानता हर दिशा में भगवान पर आश्रित रहने और जीवन के हर क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियों की चुंबकीय छड़ों के आरोपण का ही प्रतिफल है।

एक बड़े चुंबक को टुकड़ों में तोड़ते चले जाएँ, तो भी उसके उत्तर-दक्षिण ध्रुव वाली विशेषता समाप्त न होगी। हर टुकड़े में दोनों सिरों पर उत्तर ध्रुव, दक्षिण ध्रुव वाले दो गुण ही पैदा होते चले जाएँगे। महामानवों को विपत्तियाँ तोड़ती हुई चली जाएँ, वे बाह्यदृष्टि से कितने ही छोटे क्यों न हो जाएँ, पर उनकी विशेषता एवं महानता में अंतर न आएगा। परिस्थितियाँ उनके अंतर को तोड़ नहीं सकेंगी।

सज्जन जो भी काम करते हैं— "उनका व्यक्तित्व जहाँ भी प्रयोग में आता है, वहीं उनकी महानता स्पष्ट प्रकट होती हैं।" वे अनेक काम करें— "अनेक से संबंध रखें ,तो भी उनका व्यक्तित्त्व खंडित नहीं होता।" सूर्य की हर किरण में— "समुद्र की लहर में उनकी मौलिक विशेषता बनी रहती है।" चुंबक की तरह ही महापुरुष भी अपनी हर क्रिया-प्रक्रिया सभी विभाजनों में अपनी विशेषता अक्षुण्य ही बनाए रखते हैं।

चुंबक भले ही पारस जैसा मूल्यवान न हो, पर एक दृष्टि से उससे भी बढ़कर है। पारस के स्पर्श से लोहा-सोना भर हो सकता है। पारस नहीं बन सकता। पर चुंबक के संपर्क में लोहे का टुकड़ा लाया जाए, तो वह भी चुंबक बन जाएगा। दानी किसी का दुख दूर करने में सहायता भर कर पाते हैं, दयापात्र को वे अपने समान समृद्ध और दानी नहीं बना पाते। पर चुंबक की अपनी शैली ही निराली है। जो उसके संपर्क में आया वह भले ही मूलतः तुच्छ हो, पर उन्हीं विशेषताओं से संपंन वह भी हो जाता है। महामानवों के संपर्क में आने वाले सामान्य स्तर के व्यक्ति भी उन्हीं जैसी विशेषताओं से संपंन हो जाते हैं।

अधःपतन आत्मा की महानता को भी नष्ट करता है। चुम्बक के टुकड़े काटते जायें तो भी उसकी विशेषता नष्ट न होगी पर यदि उसे बार-बार ऊपर से नीचे पटकते रहा जाय तो क्रमशः उसकी आकर्षण शक्ति घटती ही चली जायगी। विपत्ति आदमी का कुछ अधिक नुकसान नहीं करती, पर यदि वह पतित विचारणा और पतित क्रिया पद्धति अपनाता है, पतन के गर्त में गिरता है तो उसकी प्रतिभा, तेजस्विता एवं महानता देर तक ठहर नहीं सकती, वे क्रमशः घटती चली जायेंगी और वह संग्रहीत पूजा धीरे-धीरे समाप्त हो जायगी, चुम्बक पर पतन की प्रक्रिया जो दुष्प्रभाव छोड़ती है वह दुष्परिणाम पतनोन्मुख व्यक्ति को भी भुगतान पड़ता है फिर चाहे वह उच्च महापुरुष के स्तर पर पहुँचा हुआ ही क्यों न हो।

पृथ्वी के चारों और उसका एक चुंबकीय-क्षेत्र है। उसी के आधार पर वह ब्रह्मांड में संव्याप्त अनेक प्रकार की सूक्ष्मतरंगों तथा शक्तियों को आकर्षित करके अपना भंडार भरती है। यदि उसका पद चुंबकीय-क्षेत्र न होता, तो ब्रह्मांड से निरंतर मिलने वाले अगणित अनुदानों से उसे वंचित ही रहना पड़ता। उसके पास जो अपनी थोड़ी सी पूँजी है, उसी पर निर्भर रहकर उसे दरिद्र जीवन बिताना पड़ता। तब यह इतनी साधन-संपंन और अद्भुत विशेषताओं से भरी-पूरी न होती, जैसी कि अब है। यह सब उसके चुंबकीय घेरे का ही परिणाम है।

धरती में यह चुंबकत्त्व आता कहाँ से है? यह उसके अंतरंग की बहिरंग प्रतिक्रियामात्र है। पृथ्वी के भीतर फेटस ऑक्साइड-मैंगनेटाइड का विशाल भंडार भरा पड़ा है। उसी की गन्ध बाहर उड़कर आती रहती है और धरती की आकर्षण शक्ति बनाये रहती है।

भीतर की संपदा का बाहर फूटकर निकलना स्वाभाविक है। पेट की खराबी साँस की बदबू बनकर बाहर आती है। दुर्भावना युक्त व्यक्ति कडुए, रूखे और पतन प्रेरक शब्द बोलता है। जिसके भीतर उत्कृष्टता भरी होगी उसकी वाणी से लेकर क्रिया तक में वे सब विशेषताएँ प्रस्फुटित होती रहेंगी। अंतर की सद्भावनाएँ बाहर सत्प्रवृत्तियां बनकर फूटती हैं, और उनसे उस व्यक्ति के आस-पास एक ऐसा आकर्षणयुक्त घेरा वातावरण में बन जाता है; जो प्रत्यक्ष और परोक्ष जगत में स्नेह, सहयोग के अगणित आधार बरसाता रहता है। अनुदान की यह छोटी-छोटी बूंदें इकट्ठी होकर व्यक्तित्व को साधन-संपंन बना देती हैं और उन्हीं के आधार पर सामान्य मनुष्य महामानव बन जाता है। धरती की चुंबकीय शक्ति जैसी भी हो मनुष्य में भी आकर्षण क्षमता विद्यमान है। जो उसे प्रयोगकर लेते हैं; वे ही समर्थ और साधन-संपंन बनते हैं।


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