जय बोलो श्रीराम की (कविता)

September 1972

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जिसने की उपासना निशिदिन, ज्ञान-ध्यान सत्काम की।

शुद्धहृदय से, मुक्तकंठ से, जय बोलो श्रीराम की॥

भव-भयहारी, जन-हितकारी, ज्योति जलाई ज्ञान की।

प्रेम-प्रीति का बिरवा रोपा, जड़ काटी अभिमान की॥

जिसने रक्षा की आजीवन, धर्म-कर्म ईमान की।

जिसने डाली नींव अलौकिक, शक्ति-भक्ति बलिदान की॥

जिसने छुई न सपने में भी, कौड़ी कभी हराम की।

शुद्धहृदय से, मुक्तकंठ से, जय बोलो श्रीराम की॥

दुष्प्रवृत्तियों के घेरे को, ध्वस्त किया तप त्याग से।

रहे सदैव सचेत हृदय से, काम-क्रोध की आग से॥

भूले-भटके राहगीर को, राह बताई प्रेम से।

जड़-विमूढ़ को गले लगाकर, पाठ पढ़ाया नेम से॥

दूर हटाई गहन उदासी, गली-गली हर ग्राम की।

शुद्धहृदय से, मुक्तकंठ से, जय बोलो श्रीराम की॥

मर्यादा का कभी उल्लंघन, किया नहीं अनजान में।

तन-मन-धन से रहे सदा रत, नवयुग के निर्माण में ॥

धार मोड़ दी आत्मशक्ति से, हिंसा के हथियार की।

द्वेष-घृणा के अंगारों पर, प्रेमामृत बौछार की॥

परहित में ही लगे रहे नित, फिकर न की धनधाम की॥

शुद्धहृदय से, मुक्तकंठसे, जय बोलो श्रीराम की॥

नजर बाँध दी तूफानों की, अनुपम आत्म प्रकाश से।

अनजाने भर दिया दीन का, घर आँगन उल्लास से ॥

नई प्रेरणा नूतन गति दी, नवयुग के निर्माण को।

पथ-प्रशस्त कर नई दिशा दी, ज्ञान और विज्ञान को॥

मन-मंदिर में पूजा कर लो, मानव मूर्ति ललाम की।

शुद्धहृदय से, मुक्तकंठ से, जय बोलो श्रीराम की॥

*समाप्त*


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