एक ही काया में समाए अनेक व्यक्तित्व

February 2001

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भौतिक जगत् में मत्स्य न्याय का सर्वत्र बोलबाला है। ऐसी घटनाएँ इन दिनों प्रायः घटती रहती हैं, जिसमें किसी कमजोर के मकान पर कोई बलवान हठात् कब्जा कर लें, उसकी संपत्ति पर अपनी दावेदारी दिखाने लगे। कई बार तो हद हो जाती है, जब हर प्रकार के विरोध−प्रतिरोध के बावजूद भी संपदा हड़प ली जाती हैं। इसे समर्थों का असमर्थों पर आधिपत्य ही कहना चाहिए।

चेतना जगत् में ऐसे प्रसंगों को आश्चर्यजनक और अद्भुत कहा जाएगा। वहाँ जब इस प्रकार के उदाहरण प्रस्तुत होते हैं और जब एक की देह पर दूसरी सत्ताएँ सवारी गाँठती हैं, तब वह विविध व्यक्तित्व के रूप में सामने आती हैं। ऐसे शरीरों में कुछ समय तक तो अपनी मूल चेतना का नियंत्रण रहता है, जबकि शेष समय में उस पर किन्हीं बाहरी सत्ताओं का अधिकार हो जाता है, तदनुसार कुछ समय व्यक्ति अपना सही नाम−पता बताता, जबकि दूसरे ही अवसर पर वह कोई अन्य बन जाता है। ऐसे घटनाक्रम अक्सर घटते ही रहते हैं।

इसी प्रकार एक प्रसंग की चर्चा काँलिन विल्सन अपने ग्रंथ ‘बियोण्ड दि आँकल्ट’ में करते हैं। वे लिखते हैं कि बोस्टन में एक बार एक डॉक्टर मोर्टन प्रिंस ने स्नायविक थकान से ग्रस्त एक लड़की का उपचार प्रारंभ किया। कई दिनों की चिकित्सा के बाद भी क्लारा फाउलर नामक उक्त लड़की को जब कोई लाभ नहीं हुआ, तो डॉ. मोर्टन ने उसे सम्मोहित करने की निश्चय किया। उस अवस्था में उसके अंदर से एक बिलकुल ही भिन्न व्यक्तित्व उभरकर सामने आया। यह एक चंचल और शैतान लड़की थी, जो अपना मान सैली बताया करती। मोर्टन यह सुनकर आश्चर्यचकित रह गए। वह बार−बार इस बात को दुहराती थी कि वह क्लारा नहीं है, यद्यपि शरीर उसी का था। वह मजबूत तथा स्वस्थ थी, पर इस बात को समझ नहीं पाती थी कि आखिर क्लारा इतनी कमजोर क्यों हैं? एक अन्य अवसर पर जब उसे सम्मोहित किया गया, तो एक तीसरा ही व्यक्तित्व, उभरकर सामने आया। यह न तो क्लारा थी, न सैली। यह एक शिक्षिका थी, जिसे मोर्टन ने ‘बी−4’ नाम दिया।

क्लारा की काया पर इस नई आत्मा के अधिकार की कहानी भी बड़ी विचित्र है। उन दिनों वह एक नस्र थी। एक दिन उसके पिता के एक मित्र विलियम जीन्स उससे अस्पताल मिलने आए। बाहर एक सीढ़ी पड़ी हुई थी। उसने उसे सहारे प्रथम तल पर स्थित उसके कमरे के अंदर झाँककर देखा। पिता के मित्र को इस तरह खिड़की से झाँकते देखकर उसे गहरा आघात लगा और एक स्नायविक दौरा पड़ा। ठीक इसी समय ‘बी-4’ प्रकट हुई और उसके शरीर पर कब्जा जमा लिया।

तीनों में सैली अधिक शक्तिशाली थी, इसलिए वह क्आरा को शरीर से बाहर धकेल सकती थी, उस पर वाँछित समय तक अधिकार जमाए रह सकती थी अथवा उसके शरीर का इच्छानुवर्ती उपयोग कर सकती थी। अक्सर वह दब्बे क्आरा के साथ ओछी हरकतें किया करती। कई बार वह उस पर सवार होकर सुदूरवर्ती गाँवों तक पैदल आती। ऐसे मौकों पर बेचारी क्लारा को बड़ी मुश्किल से पैदल चलकर वापस लौटना पड़ता। एक अन्य अवसर पर सैली ने एक दूसरे शहर में नौकरी कर ली। वह एक होटल था और अनेक महीनों तक वह वहाँ बनी रही। इस बीच क्लारा संपूर्ण आत्मविस्मृति के दौर से गुजरती और जब स्मृति लौटती, तो वह परेशानी हो उठती, उसे कई प्रकार की मुसीबतों का सामना करना पड़ता।

डॉ. मोर्टन लंबे समय तक उसका उपचार करते रहे। अंततः सम्मोहन द्वारा ‘बी-4’ की आत्मा से तो उसे मुक्ति सफल न हो सके।

ऐसी ही एक बहुव्यक्तित्व से संबंधित घटना का उल्लेख थिगपेन एवं क्लेक्ली ने अपनी रचना ‘दि थ्री फेसेज ऑफ ईव’ में किया है। ईव ह्वाइट जिसका वास्तविक नाम क्रिस्टीन सिजमोर था, वह एक विवाहित युवती थी। उसे सिर दरद की शिकायत थ्ी और बीच−बीच में दौरे पड़ते थे। इस मध्य वह जो कुछ भी कार्य करती, उसका कुछ भी स्मरण नहीं रहता। वह अपने इस अजीबोगरीब रोग से परेशान थी और उससे छुटकारा पाना चाहती थी। इसी हेतु कुछ विशेषज्ञ चिकित्सकों से इलाज करवा रही थी। एक दिन वह उनके पास जाकर बतलाने लगी कि आज उसके पति ने उसे बुरी तरह फटकारा है, कारण कि वह बाजार से फिजूलखर्ची कर वासना भड़काने वाली पोशाकें क्रय कर लाई थी।

यद्यपि उसे इस बारे में तनिक भी स्मृति नहीं थी। एक अन्य दिन जब वह डॉ. थिगपेन से बातें कर रही थी, तब एक बिलकुल ही पृथक ‘ईव’ का स्वरूप सामने आया। वह एक सुसंस्कृत, आत्मविश्वासी उतावली पसंद महिला थी। जो धूम्रपान करती थी, शराब पीती थी तथा सभ्य व्यक्तियों का साहचर्य चाहती थी, जबकि वास्तविक ‘ईव’ संतोषी और उच्च विचारों वाली थी। शराब और सिगरेट के प्रति उसकी घृणा सुविदित थी। ‘ईव’ का व्यक्तित्व ‘ईव ब्लैक’ के रूप में तब सामने आया था, जब क्रिस्टीन मात्र छह वर्ष की थी। एक दिन उसे दौरा पड़ा। उस दौरे की स्थिति में ही उसने अपनी सोई हुई दो बहनों पर हमला कर दिया। बाद में वह सामान्य हो गई। उसे कुछ भी याद नहीं रहा, पर उस शैतानी का दंड उसे पिटाई के रूप में भुगतना पड़ा। यद्यपि वह बार−बार अपने उस कृत्य के प्रति अनभिज्ञता ही जताती रही। यह मूल ‘ईव’ से भिन्न सत्ता थी। ‘ईव’ का तीसरा व्यक्तित्व ‘जेन’ के रूप में प्रकट हुआ, जो शेष दोनों से अधिक समझदार थी।

ईव का उपचार चलता रहा। थिगपेन ने सोचा कि उसके इलाज से तीनों व्यक्तित्वों का एकीकरण हो गया है, पर वे भ्रम में थे। बाद में वह और अधिक उग्र रूप में प्रकट हुए।

थिगपेन के लिए यह अत्यंत अद्भुत मामला था। उन्होंने अलग−अलग सत्ताओं के प्रकटीकरण के अवसर पर ईव का सूक्ष्म अध्ययन करना शुरू किया, तो उन्हें हर सत्ता का पृथक् भौतिक चरित्र देखने को मिला। उदाहरण के लिए, ईव ब्लैक नायलोन वस्त्र के प्रति अधिक संवेदनशील थी। जब शरीर पर उसका अधिकार होता, तो नायलोन के कपड़े से ईव के शरीर पर चकत्ते उभर आते, किंतु ईव ह्वाइट के साथ यह बात नहीं थी।

दोनों के मध्य एक अन्य अंतर यह था कि ईव ह्वाइट कुछ मानसिक शक्तिसंपन्न थी, जबकि ईव ब्लैक साधारण थी। इस बात जब वह किशोरावस्था में थी, तो उसकी छोटी बहन बीमार हो गई। सबने निमोनिया का अनुमान लगाया। दूसरी रात क्रिस्टीन को स्वप्न में ईसामसीह के दर्शन हुए। उनने बताया कि तुम्हारी बहिन को निमोनिया नहीं, डिप्थीरिया है। बाद में उसी की दवा की गई और वह स्वस्थ हो गई। युवावस्था में क्रिस्टीन ने फिर एक स्वप्न देखा, जिसमें उसके पति की मौत बिजली के झटके लगने से हुई दरसाई गई थी। दूसरे रोज उसने पति को काम पर जाने से रोक दिया। जो व्यक्ति उसकी जगह काम करने गया, सचमुच उसकी मृत्यु बिजली का करेंट लगने से हो गई। एक बार वह अपने पति के साथ गाड़ी पर सैर के लिए निकली। कुछ दूर जाने के उपराँत उसने अपने पति से कार रोकने और पहियों का निरीक्षण करने का निवेदन किया। ऐसा करने पर पिछला पहिया काफी ढीला मिला। वह किसी भी क्षण खुलकर अलग हो सकता था।

इससे स्पष्ट है कि ईव के कलेवर पर अलग−अलग समय में अलग−अलग सत्ताओं का अधिकार होता। वे एक−दूसरे से सर्वथा स्वतंत्र और भिन्न थीं। उनकी अपनी निजी मौलिकताएँ थीं। उसी के हिसाब से स्थूल देह व्यवहार करतीं।

एक मिलते−जुलते प्रसंग का वर्णन करते हुए काँलिन विल्सन अपनी उक्त पुस्तक में लिखते हैं कि डोरिस फिसर वाशिंगटन, अमेरिका की रहने वाली थी। उसका पिता मद्यप था और माँ शालीन। एक बार जब वह छोटी थी, तो शराब के नशे में धुल पिता ने उसे उसकी माता की बाँहों से छीनकर फर्श पर फेंक दिया। वह उठ बैठी। अब वह डोरिस नहीं थी, बल्कि ‘एरियल’ नामधारी एक भिन्न चरित्र थी। उसके पश्चात् डोरिस के शरीर पर ‘मारग्रेट’ नामक सत्ता का कब्जा हो गया। उसने उसके जीवन को नरक तुल्य बना दिया। वह उसके साथ ऐसे मनोरंजन और खिलवाड़ करने लगी कि अब तक वह उनसे उबर नहीं सकी। उसकी मृत्यु एक पागलखाने में हुई।

डोरिस ने यह प्रण कर रखा था कि वह नदी में कभी भी तैरने नहीं जाएगी, किंतु जब उसे होश आया, तो वह यह देखकर हैरान रह गई कि वह नदी की ओर से ही लौट रही थी। उसके बाल गीले थे और साथ में भीगे वस्त्र भी थे। स्नान की उसे तनिक भी स्मृति नहीं थी। एक बार प्लेट में रखे एक केक के टुकड़े को खाने के लिए वह बढ़ी, तभी उसके शरीर पर मारग्रेट ने अधिकार कर लिया और उस टुकड़े को उठाकर नीचे फेंक दिया। वे दोनों परस्पर बातें भी करती थीं, यह आश्चर्यजनक होते हुए भी उतना ही सत्य है, जितना प्रतिदिन प्रातः सूर्य का निकलना। इस क्रम में दोनों एक ही मुँह का इस्तेमाल करतीं। मारग्रेट उसके मन की बात समझ जाती, पर डोरिस में यह क्षमता नहीं थी। इसके लिए उसे मुख से निस्सृत शब्दों पर निर्भर रहना पड़ता और तब तक इंतजार करना पड़ता, जब तक वे पूर्णतया बाहर न निकल जाएँ।

डोरिस में दूरदर्शन की भी सामर्थ्य थी। यदा−कदा उसे इसकी झलक मिल जाती। एक बार उसे अपनी माँ दिखाई पड़ी। वह बीमार प्रतीत हो रही थी। डोरिस जब माँ के पास पहुँची, तब वह निमोनियाग्रस्त थी। उपचार आरंभ हुआ, पर वह बच न सकी। डोरिस माँ के मृत शरीर के पार्श्व में बैठी हुई थी। इसी बीच कमरे में पिता का प्रवेश हुआ। उसने शराब पी रखी थी। लड़खड़ाते कदमों से वह अपने बिस्तर की ओर बढ़ा और पत्नी को देखे बिना ही सो गया। इसी क्षण डोरिस के शरीर में किसी नई आत्मा का आगमन हुआ। उसमें स्मृति और व्यक्तित्व का पूर्णतः अभाव था। शायद वह कोई नवजात बालिका थी। समय बीतने के साथ−साथ उस बालिका का विकास हुआ और वह एक सुस्त एवं निर्जीव युवती के रूप में उभरी। एक वर्ष पश्चात् असावधानीवश डोरिस सिर के बल गिर पड़ी। तब उसके भीतर से एक अन्य सत्ता का उद्भव हुआ। वह और भी अधिक सुस्त थी।

अब डोरिस की काया में विभिन्न स्तरों वाली सत्ताओं का एक परिवार ही बस गया था। रोचक बात यह थी कि सबने मिलकर एक श्रेणीबद्धता बना ली थी। एरियल नामक आत्मा इनमें सर्वोपरि थी। वह शेष चारों के मनों को पढ़ सकती थी और उनके बारे में सब कुछ जानती थी। इसके बाद मारग्रेट का स्थान था। वह अपने से नीचे की तीनों आत्माओं के बारे में भलीभाँति जानती थी, पर एरियल के बारे में नहीं, कारण कि वह उससे उच्च कोटि की थी। डोरिस को अपने से निम्न स्तर की दो आत्माओं का ज्ञान था, किंतु एरियल और मारग्रेट के बारे में नहीं। उनके संबंध में वह तभी समझ पाती थी, जब वे उनसे संपर्क करतीं।

डोरिस के प्रति मारग्रेट के व्यवहार पर एरियल अक्सर अप्रसन्न हो जाती। डोरिस को बाहर निकालकर उसके मन−मस्तिष्क पर कब्जा कर लेना, एरियल को तनिक भी नहीं सुहाता। इसलिए ऐसे अवसरों पर वह कई बार मारग्रेट को शरीर से बाहर धकेल देती। इन्हीं प्रसंगों के कारण मारग्रेट को यह विदित हो सका कि इस कलेवर में किसी अन्य सत्ता का भी अस्तित्व है, जिसकी जानकारी उसे नहीं है।

वह अभी इन आत्माओं के चंगुल में ही थी कि उसका परिचय पीट्सवर्ग के एक सहृदय चिकित्सक से हो गया वाल्टर फ्रेंकलिन प्रिंस नामक यह डॉक्टर डोरिस के साथ पुत्रीवत् व्यवहार करता, उसे भरपूर स्नेह−प्यार देता। इससे उसकी स्थिति में सुधार होने लगा। वह पहले की तुलना में अधिक स्वस्थ और प्रसन्न दीखने लगी। अब बाहर की सत्ताएँ अचानक विदा लेने लगीं। जो सत्ता सद्यः जात बालिका के रूप में प्रकट हुई थी, वह अकस्मात् यौवन से बचपन की ओर लौटने लगी और फिर एक दिन सदा के लिए समाप्त हो गई। ‘टेप रिकाँर्डर’ व्यक्तित्व भी समाप्त हो गया। इससे डोरिस का आत्मविश्वास जगा, वह अंदर से सबल अनुभव करने लगी। इसके साथ ही मारग्रेट का भी कैशोर्य की ओर पलायन हाने लगा और अंततः उस अस्तित्व का भी अंत हो गया। डोरिस के शरीर में अब सिर्फ ‘एरियल’ ही शेष बची। वह कभी भी डोरिस के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करती, उसे परेशान नहीं करती। इसके विपरीत वह सदैव उसका ध्यान रखती। अंत में वह उसको न्यूयार्क ले गई। इस समय तक वाल्टर फ्रेंकलिन का निधन हो चुका था। इससे वह लगभग टूट−सी गई थी, कुछ समय उपराँत वहीं उसकी मौत हो गई।

चेतना जगत् में भी उल्लंघन−अतिक्रमण की पूरी−पूरी गुंजाइश है। निम्न स्तर का जंगल का कानून वहाँ भी चलता है। जिसकी लाठी, उसकी भैंस की कहावत सिर्फ भौतिक जगत् में ही चरितार्थ होते नहीं देखी जाती। उसका अस्तित्व सूक्ष्म संसार में भी विद्यमान है। सबल आत्माएँ निर्बलों को वहाँ भी उत्पीड़ित करते पाई जाती हैं। इससे बचने का एक ही उपाय है, हम अपनी निर्बलता से मुक्ति पाएँ। यहाँ निर्बलता का तात्पर्य शारीरिक दुर्बलता से नहीं लगाया जाना चाहिए। यहाँ इसका आशय चेतना की मलिनता से है। यही व्यक्ति को दीन−हीनों जैसी स्थिति में ला पटकती और अक्षमता का ऐसा उपहार दे जाती हैं, जो जन्म−जन्माँतरों तक पीछा नहीं छोड़ती। यदि उन विक्षेपों से किसी तरह छुटकारा पाया जा सके और चेतना का संपूर्ण परिमार्जन संभव हो सके, तो आत्मसत्ता इतनी समर्थ और विभूतिवान् बन सकती है, जिसकी उपमा ईश्वर से दी जा सके। मनुष्य परमात्मा का अंशधर है। वह उस स्तर को प्राप्त करके ही अपनी असमर्थता पर विजय पा सकता है, इसे काम ने नहीं।


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