अनुग्रह नहीं माँगे, साधना का पुरुषार्थ करें

February 2001

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निश्चित ही यह प्रिय लगता है कि परमात्मा का अनुग्रह बरसे, स्वयं को कुछ न करना पड़े और अनायास ही अध्यात्म की ऊँची कक्षा तक पहुँच जाएँ। निजी जीवन में जब इस तरह का अनुग्रह बरसता है, तो उसे ईश्वर की सहायता, चमत्कार, अहैतुकी कृपा और भगवतदर्शन जैसी उपलब्धियों के नाम से पुकारते हैं। सामूहिक रूप से या बहुत बड़े समुदाय, देश या विश्व में उनका अनुग्रह बरसता है, तो उसे अवतार कहते हैं। परमात्मचेतना अपने आपको लौकिक रूप में ढालती है और अपनी सामर्थ्य से चमत्कार करके वापस चली जाती है। अवतार पूरे समूह, समाज या देश की आकाँक्षा और आवश्यकता के अनुसार आते हैं।

एक अन्य पक्ष है, जो निजी जीवन और सामाजिक, राष्ट्रीय जीवन में भी दिखाई देता है। वह परिदृश्य भी ईश्वर की सामर्थ्य से ही प्रकट होता है, लेकिन उसमें मानवी पराक्रम भी उतना ही भागीदार बनता है। गोवर्द्धन पर्वत निश्चित ही श्रीकृष्ण ने कनिष्ठा अँगुली के इशारे से उठाया था, लेकिन ग्वाल−बालों ने भी अपनी लाठियों का सहारा देकर पुरुषार्थ प्रकट किया था। लंका विजय और रावण के पराभव में श्रीराम का ही दिव्य चमत्कार दिखाई देता है, लेकिन रीछ−वानर इकट्ठे न होते, आसुरी आतंक से पीड़ित लोगों ने गुहार न मचाई होती, तो राम अकेले रावण का संहार करने शायद नहीं जाते।

दूसरे प्रकार के प्रयत्नों में मनुष्य जाति ही अपने भीतर ईश्वरीय सामर्थ्य प्रकट करती है और आसुरी आतंक से जूझ पड़ती है। वह संगठित आततायी शक्तियों से टकराती है। उन्हें पराभूत कर मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करती है। निजी जीवन में आत्मिक क्राँति के लिए इस तरह के प्रयत्नों को साधना कहते हैं। जिन उपायों से परमात्मा का अनुग्रह बरसता है, दरअसल वह उपाय कम और मौन पुकार ज्यादा है। इसे प्रार्थना कहते हैं। प्रार्थना सुनकर भगवान् दौड़े आते हैं। उनकी कृपा बरसने लगती है। साधना में प्रयत्नों की तीव्रता के अनुसार अपने भीतर बैठी परमात्म चेतना स्वयं को व्यक्त करती है। वह साधक को उसकी स्थिति के अनुसार लाभ पहुँचाती और लौकिक जीवन को कम−से−कम छेड़ती हैं।

प्रार्थना का मार्ग भक्ति का मार्ग है। भक्तों के जीवन में परमात्मा का अनुग्रह बरसता है, तो देखा गया है कि उनका साँसारिक जीवन अस्त−व्यस्त होने लगता है। उन्हें अपनी आँतरिक स्थिति के अनुसार किसी भी समय हँसी आ सकती है, वे रोने लग सकते हैं, नाचने−गाने लगते हैं और भावनाओं के वेग में आस−पास के जगत् को भी अव्यवस्थित करने लगते हैं। ज्यादातर भावुक भक्त प्रायः दुनियादारी के लायक नहीं होते।

साधना के संबंध में कहा गया है कि वह पहले पात्रता विकसित करती है, फिर परमात्मा को प्रकट करती है। योग की भाषा में इसे ऊर्जा का आरोहण कहते हैं। भक्ति या प्रार्थना में भगवान् का अनुग्रह बरसता है, तो उसे ‘अवतरण’ कहा गया है। तत्त्व रूप में आरोहण या अवतरण में कोई अंतर नहीं हैं। दोनों स्थितियों में भगवान् की चेतना ही प्रकट होती है, लेकिन आरोहण को अवतरण की तुलना में ज्यादा सहज, स्वाभाविक और काम्य बताया गया है। प्रत्येक व्यक्ति की आँतरिक स्थिति एक समान नहीं होती। किसी को आरोहण अनुकूल पड़ता है और किसी को अवतरण, लेकिन चुनना हो तो ऊर्जा को अपने भीतर से उठने देने का मार्ग अपनाना चाहिए।

आरोहण और अवतरण के अंतर को कई तरह से समझा जा सकता है। वर्षा चौबीसों घंटे नहीं होती। कुछ घंटों तक होती रहे, तो भी जीवन अस्त−व्यस्त हो जाता है, लेकिन झील, झरने कुएं और सोतों में जमीन के भीतर से पानी निरंतर बहता रहता है। वह स्थान के अनुरूप एकत्रित होता और फिर ठहर जाता है। इससे किसी तरह की गड़बड़ी नहीं होती। तेज और अनवरत वर्षा को बादलों से पानी का अवतरण कह सकते हैं और जमीन के भीतरी स्रोतों से निकलने की प्रक्रिया को आरोहण के रूप में देखा जा सकता है।

परमात्म चेतना से अचानक बिना कुछ किए साक्षात्कार भी हो जाता है। बहुत से लोगों को एक साथ भी हो सकता है। ऐसे कई साधकों की तैयारी पिछले कई जन्मों से चल रही होती है। वे उस साक्षात्कार से लाभ उठा लेते हैं। जिन्हें बिना प्रयास के ही परमतत्त्व मिल जाता है, वे या तो चूक जाते हैं अथवा उस प्रतीति को झेल नहीं पाने के कारण असहज−असामान्य हो जाते है। श्री अरविंद ने लिखा है कि पिछले जन्म की तैयारी हो तो भी अवतरण अकस्मात् नहीं होना चाहिए। थोड़ी−बहुत तैयारी इस जन्म में भी आवश्यक है। पार्थिव शरीर तो इसी जन्म में मिला है। मन−बुद्धि−चित्त−अहंकार भी नए घटकों का, पंच तन्मात्राओं का आश्रय लेकर स्थिर हैं। उन्हें भी तैयार करना चाहिए।

दूसरों के प्रयत्न भी व्यक्ति का उद्धार करते हैं। उसे सौभाग्य कहा गया है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र की व्याख्या करते हुए व्यास मुनि ने लिखा है कि उस सौभाग्य से बचें तो ही अच्छा। अनुग्रह ईश्वर का भी नहीं लेना चाहिए। वह स्वयं प्रकट हो तो वापस भेज देना चाहिए। हम स्वयं ही साधना का पुरुषार्थ करते हुए इस तक पहुँचे हैं। तब उससे ज्यादा घनिष्ठ हो सकेंगे। प्रह्लाद और ध्रुव की साधना भक्तों की आदर्श है। उन्होंने अनायास आए अवतारी रूप या दृश्य को पहचानने से मना कर दिया। कहा कि जब तक वह हृदय में नहीं प्रकट होंगे, अतिथि ईश्वर को स्वीकार नहीं करेंगे। कौन जाने, कोई आसुरी माया हो।

श्री अरविंद ने अतिमानस के अवतरण को जो सिद्धाँत प्रतिपादित किया, वह अनुग्रह या कृपा स्तर का नहीं है। उनकी दृष्टि यह थी कि सौ लोग भी इस साधना के लिए तैयार हो सके, अपने आपको भागवत् चेतना के अतिमानसी रूप का वाहन बना सकें तो पृथ्वी पर चमत्कार घटित होगा। तब हजारों−लाखों लोग पूर्णता को प्राप्त कर सकेंगे। गिने−चुने साधकों में होने वाला अवतरण, उन्हें बिजलीघर की तरह बना देगा, जहाँ से लोगों तक विद्युत् धारा पहुँचती रहे। गिने−चुने साधकों में भागवत् चेतना का अवतरण उन्हें प्रकाश स्तंभ की तरह खड़ा कर देने जैसा है। मुक्त आत्माओं के उस आलोक को देख हजारों लोगों को प्रेरणा मिल सकती है और वे भी पूर्णता को प्राप्त कर सकते हैं।

थियोसोफी आँदोलन ने वासना−तृष्णा के बंधनों में बँधे लोगों के लिए अनुग्रह सहायता वाले अवतरण का मार्ग अपनाया। थियोसोफी दर्शन की मान्यता है कि हजारों मुक्त आत्माएँ बंधन में जकड़े लोगों का उद्धार करने के लिए संसार में विचरण करती हैं। लोग कामना भर करें, वे उनकी सहायता के लिए पहुँच जाती हैं। इस मान्यता ने जितने लोगों की सहायता की, उससे ज्यादा का अहित किया है। अदृश्य सहायकों की प्रतीक्षा करते हुए साधक पुरुषार्थ करने से चूक गए। वे आत्मिक विकास नहीं कर पाए और उसके स्थान पर बेहोश कर देने वाले दंभ में चूर होकर रह गए।

साधना में प्रचंड वेग से प्रवृत्त करने वाली परंपराओं में सामूहिक तप का निषेध किया गया है। जप, भजन, सत्संग, पाठ आदि मृदु और पुकारपरक साधनाओं में सामूहिकता को थोड़ा महत्त्व दिया गया है, क्योंकि उससे अतिरिक्त बल मिलता है, लेकिन कुँडलिनी जागरण, चक्रवेधन, भावगती दीक्षा और तंत्र की सकाम−निष्काम हर तरह की साधनाएँ अकेले ही करने की व्यवस्था है। ये साधनाएँ समूह में की जातीं तो विलक्षण परिणाम निकलते।

अध्यात्मविदों के अनुसार परिणाम लाभ के स्थान पर हानि पहुँचाने वाले ज्यादा होते हैं। ऊर्जा का तीव्र जागरण और समूह में उसका संचार कमजोर लोगों को तहस−नहस कर सकते हैं। बिजली का प्रचंड प्रवाह अचानक दौड़ जाए, तो कमजोर तार जल जाते हैं। मशीनें फुँक जाती हैं और ज्यादा वोल्टेज नहीं सह सकने वाले बल्ब फ्यूज हो जाते हैं।

कुँडलिनी जागरण के लिए वैसे भी निजी पुरुषार्थ को महत्त्व दिया गया है। दक्षिणमार्गी सौम्य साधनाओं में गुरु की भूमिका मार्गदर्शक और सहायक की रहती है। वह जरूरी और उचित समझें तो शिष्य पर शक्तिपात कर सकता है लेकिन आमतौर पर इसकी मनाही है। साधक को निजी प्रयत्नों से ही आगे बढ़ने देने का निर्देश है।

ऊर्जा का प्रचंड प्रवाह जगा सकने वाली साधनाओं में सामूहिकता का निषेध एक−दूसरे से प्रभावित नहीं होने देने की सावधानी के तौर पर भी है। जहाँ सामूहिक साधना की जाती है, वहाँ कुछ अतिरिक्त ऊर्जा भी बहने लगती है, यह सभी साधकों के सम्मिलित प्रयत्नों के कारण है। सब को जोड़−मिलाकर कूती गई मात्रा से ज्यादा ही हो जाता है। उदाहरण के लिए, किसी खाली पात्र में सौ लोग आधा−आधा लीटर दूध डालें, तो वह संचय पचास लीटर से ज्यादा ही होगा। कारण कि सभी लोग ठीक आधा लीटर तो नहीं डालते, दो−चार चम्मच ज्यादा भी हो सकता है। पचास लोगों का वह अतिरिक्त योगदान वास्तविक जोड़ से ज्यादा ही बैठता है। अपवादस्वरूप वह कभी कम भी हो सकता है। कुँडलिनी विद्या के प्रसिद्ध विद्वान् पंडित गोपीकृष्ण के अनुसार, यह अतिरिक्त ऊर्जा रिक्त रह गए साधक की तरफ दौड़ती है। प्रवाह थोड़ा आगे बढ़ता है, तो दूसरे साधकों की ऊर्जा भी बहने लगती है। खतरा यह है कि तैयार नहीं हो सकता साधक उस वेग को सहन नहीं कर पाए और उसका अनिष्ट हो जाए।

शून्य स्थान की ओर दौड़ पड़ने वाले प्रवाहों से बवंडर खड़े हो जाते हैं। गरमी के दिनों में रेगिस्तानी या सूखी जगहों पर उठने वाले चक्रवातों से सभी परिचित हैं। यह भी जानते होंगे कि गरमी के कारण जिस जगह हवा का दबाव बेहद कम हो जाता है, वहाँ सभी दिशाओं से वायु का खिंचाव होने लगता है। खिंचाव के कारण आने वाली हवाओं का दबाव चपेट में आने वाली वस्तुओं को जकड़ लेता है। जीवित प्राणी उस चपेट में आ जाएँ, तो उनका दम घुटने लगता है।

सातवें दशक में अमेरिका के सभी शहरों में आठ−दस घंटे के लिए बिजली गुल हो जाने की घटना घटी। उस घटना का कारण बिजली का तंत्र था, जिसमें एक जगह फालतू रह गई बिजली दूसरी जगह भेज दी जाती थी। कोई विशेष उपाय किए बिना इस स्वचालित व्यवस्था के कारण किसी भी इलाके में क्षणभर के लिए भी बिजली गुल नहीं होने का इंतजाम हो सका था। हुआ यह कि अटलाँटा राज्य के एक गाँव की बिजली किसी दुर्घटना के कारण चली गई। अपने आप बिजली का हस्ताँतरण करने वाली व्यवस्था के कारण दूसरे गाँवों की अतिरिक्त बिजली का प्रवाह वैक्यूम क्षेत्र की आरे बहने लगा। कई जगह से यह प्रवाह दौड़ा। परिणाम यह हुआ कि गाँव का तंत्र उस प्रवाह को झेल नहीं पाया। व्यवस्था ध्वस्त हो गई। सभी फ्यूज उड़ गए, ट्राँसफार्मर फुँक गए। इस महाशून्य को भरने के लिए जो अफरा−तफरी मची, उसने तमाम शहरों की व्यवस्था गड़बड़ा दी और हर जगह घंटों के लिए ब्लैक आउट हो गया। प्रचंड वेग से ऊर्जा जगाने वाली तीव्र साधनाओं में भी इसी तरह की अराजकता का खतरा रहता है। इसलिए वह पुरुषार्थ स्वयं और अकेले करने को श्रेयस्कर बताया गया है।

आरोहण और अवतरण में सात्विक दृष्टि से कोई अंतर नहीं है। परमात्मा सब जगह व्याप्त है। वह जहाँ भी प्रकट होता है, विशेष अंतर नहीं पड़ता। आरोहण और अवतरण के तथ्य को व्यापक व्यवहार बुद्धि से देखें, तो भी पाएँगे कि एक दिशा से जो आरोहण है, दूसरी दिशा से वही अवतरण भी है। पृथ्वी गोल है। मंगल ग्रह पर बैठकर देखना संभव हो तो यहाँ के लोग एक दिशा से पैरों के बल खड़े दिखाई देंगे, दूसरे छोर पर चल रहे पैरों से लटके दिखाई देंगे। धरती में एक तरफ से छेदकर पार निकल जाने वाले उदाहरण से भी यह तथ्य समझा जा सकता है। भारत में खड़ा व्यक्ति उस छेद से दूसरे छोर पर बनी इमारत को देखे, तो वह जमीन पर खड़ी होने के बजाय लटकती दिखाई देगी। इधर के फव्वारे आकाश में फुहारा छोड़ते प्रतीत होते हैं, तो दूसरे तल पर बने फव्वारे पानी बरसाते लगेंगे। आरोहण और अवतरण के क्रम को सीधे खड़े होकर और शीर्षासन लगाते हुए देखने के रूप में भी समझा जा सकता है।

लेकिन यह अभेद स्थिति तात्विक दृष्टि से है। साधक की दृष्टि से आरोहण और अवतरण को एक ही नहीं कह सकते। अध्यात्मविदों ने इस आधार पर विभिन्न धर्मों के स्वभाव और प्रभाव का भी विश्लेषण किया है। उनके अनुसार प्रार्थना पर जोर देने वाले धर्मों की दृष्टि अपेक्षाकृत संकीर्ण होती है। वे परमात्मा से पूर्ण तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाते। जो कृपा करता है, वह हमेशा बड़ा होता है। दूसरे प्रार्थना पर जोर देने वाले धर्मों में असहिष्णुता या कट्टरता भी बढ़ जाती है। उन्हें अपनी मान्यता और अनुभव ही प्रामाणिक लगता है। दूसरों के अनुभव खंडित, आँशिक या मिथ्या प्रतीत होते हैं। उन पर चर्चा चलती है या मतभेद सामने आते हैं, तो उन्हें क्रोध आता है। वे जोर−जबर्दस्ती भी अपना सकते हैं और दूसरों को अपना मत मनवा लेने में पुण्य समझते हैं।

विश्व−समाज में जैसे−जैसे समझ और विचारशीलता का विकास हुआ है, वैसे−वैसे अपने मत के प्रति पूर्वाग्रह कम हुआ है। यह भी स्वीकार किया जाने लगा है कि अपना ही अनुभव सत्य नहीं है, दूसरे की अनुभूति भी सत्य हो सकती है। सत्य विराट् है और देखने वाली आँख या अनुभव करने वाली चेतना की अपनी सीमाएँ हैं। उन सीमाओं में सत्य का पूर्ण समावेश नहीं हो सकता। ध्यान या साधना पर जोर देने वाले धर्मों में उदारता, सहिष्णुता और युक्तिसंगतता के लिए पर्याप्त स्थान मिला है। क्योंकि उन धर्म परंपराओं में अपनी साधना और स्थिति के अनुसार ही अर्जन किया होता है। अपने पुरुषार्थ से प्राप्त उपलब्धि पर गर्व और संतोष होता है। उसे सहेजने की चिंता की जाती है।

इन दिनों विश्व−समाज में ध्यान और साधना के प्रति गहरी रुचि जाग रही है। पिछले बीस वर्षों में विभिन्न संगठनों ने कुँडलिनी, ध्यान, चक्रवेधन और योग आदि आरोहणपरक साधना−विधियों के लिए प्रयास किए। प्रयास आँदोलन स्तर के भी थे। उन्हें पर्याप्त सफलता मिली है। लाखों लोग ध्यान और साधना में प्रवृत्त हुए हैं। भजन−पूजन−प्रार्थना और भक्ति का प्रचार करने वाले आँदोलन भी छिड़े, लेकिन उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। भारतीय धर्म−परंपरा में इन दोनों मार्गों का समावेश है। ‘प्रार्थना’ और ‘साधना’ दोनों विधियों पर पर्याप्त अनुभव और विज्ञान यहाँ की परंपरा के पास है। इसलिए विश्व−समाज उसकी ओर आशाभरी दृष्टि से देख भी रहा है।


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