संत परंपरा का पुनरोदय ही उज्ज्वल भविष्य का आधार

February 2001

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संत शब्द सत् का एक रूप है। संत में सत्य का बोध होता है। संत सत्य के प्रति अनंत आस्था रखता है। एकनिष्ठ भाव से सत्य के सम्यक् दर्शन द्वारा अपने जीवन को ढालकर जीव और जगत् के प्रति आदर्श और व्यापक जीवन दृष्टि वाला व्यक्ति ही संत कहलाता है। संत का स्वरूप ईश्वर सदृश्य होता है। गुणों के आधार पर जिनमें भगवत्परायणता, निरपेक्षता, शाँति, समदृष्टि, मोह का अभाव, अहंकारशून्यता, द्वंद्वहीनता और अपरिग्रह आदि गुण रहते हैं, वे संत कहलाते हैं। यही भगवान् के वंदे समाज में भगवद्भक्ति का प्रचार करते हैं। यह प्रचार भिन्न−भिन्न रूपों में होता है। जिसे कई परंपराओं के रूप में देखा जा सकता है।

‘षण्’ धातु ‘तन’ प्रत्यय से संयुक्त होकर संत शब्द को बनाती है। जिसका अर्थ होता है, लोगों के प्रति अनुग्रहकारी होना। लोकानुग्रह तत्त्व तो सामान्यजनों में भी पाए जाते हैं। पाणिनी के अष्टाध्यायी सूत्र के अनुसार संतों में ब्रह्मानंदसंपन्न व्यक्ति होते हैं। यही विशिष्टता एवं विशेषता संत को सामान्यजन से पृथक् करती है। संत का प्रयोग विनयशीलसंपन्न साधु पुरुष के लिए किया जाता है। अपने विशिष्ट अर्थ में संत भगवत् अर्पित व्यक्ति होते हैं। संत वही है जिन्होंने सत्य की सम्यक् अनुभूति की है और उसी के प्रति सहजभाव से आस्थावान् होकर लोकरंजक जीवन दर्शन दिया है।

तैत्तिरीय संहिता के ब्रह्मावली खंड में उल्लेख मिलता है कि संत ब्रह्मा के अस्तित्व को साकार रूप प्रदान करता है। संतों के जीवन में आत्मा के आठ गुणों का विकास होता है। इन आठ गुणों का वर्णन गौतम स्मृति में इस तरह मिलता है, “दया सर्वभूतेषु वाँतिरनुसूया शोचम नायासे मंलमकार्पण्यमस्पृहा।”

बृहस्पति स्मृति के अनुसार, क्षमा, असूया, शौच, मंगल कार्य करना, अकार्पण्य आदि को नियमित रूप से पूर्ण करने वाला ही संत है। भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय सखा उद्धव को समझाते हुए संतों के लक्षण की ओर संकेत किया है, “मैंने वेदों और शास्त्रों के रूप में मनुष्य के धर्म का उपदेश दिया है। उनके पालन से अंतःकरण की शुद्धि होती है, आत्मा पवित्र होता है और उल्लंघन से रोरव नरक जैसा दुःख−कष्ट मिलता है। परंतु मेरा जो भक्त उन्हें भी अपने ध्यान आदि में विक्षेप समझकर त्याग देता है और केवल मेरी भक्ति में लगा रहता है वही परम संत है।” श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने संतों की चर्चा करते हुए कहा है कि जो सुख और दुःख दोनों को समान भाव से देखता है एवं ग्रहण करता है, जिसे अपने मान−अपमान, स्तुति एवं निंदा की चिंता नहीं रहती और जो सदैव धैर्यपूर्वक निष्काम भाव से कम करता है, वही संत है।

कबीर, दादू, रज्जब आदि ने संत को सत्वस्य योगी कहा है। जड़ीभूत चिदात्मा जब परम सत्य का दिव्य दर्शन करता है, तो वह आनंद और उल्लास में निमग्न हो जाता है, इसी अवस्था में पहुँचा हुआ पुरुष सत्वस्य योगी होता है। ऐसे पुरुष सदा परमात्मा के परम भाव में निवास करते हैं। संसार उन्हें अपने सतरंगी आकर्षण में बाँध नहीं पाता। वे जगत् के जड़ तत्त्वों के मनोहारी एवं मधुमय आकर्षण में नहीं फँसते। वे सभी आकर्षण, आकाँक्षा, इच्छा आदि से परे होते हैं। उनकी चेतना इनसे परे परमात्म चेतना के संग एकीभूत रहती है। उनकी आवश्यकता अपनी आवश्यकता नहीं होती और न उनकी स्वयं की इच्छा होती है। परिणामतः संतों की आत्मा ऊर्ध्वमुखी होती हैं। संतों की व्यापक दृष्टि का मूल रहस्य उनकी आत्मा का ऊर्ध्वमुखी विकास ही है। संत कबीर आदि से ‘स्व’ के परित्याग द्वारा आत्मा के ऊर्ध्वमुखी विकास को संत का लक्षण माना है।

सगुण भक्तिधारा के संत तुलसीदास ने रामचरितमानस में संतों के दिव्य स्वरूप का वर्णन किया है। संतों की उनकी इस व्याख्या में एक ओर स्फटिक की सुँदरता है, तो दूसरी और मोती के आब की तरलता। तुलसी का संत स्वरूप उदात्त, निर्मल और पावन है। उनके अनुसार जिसके अंतःकरण में ‘स्व’ की भावना का विसर्जन हो गया वही संत में राग उस समय गलता है, जब वह स्वयं को परमार्थ के लिए उत्सर्ग कर देता है। उसके उत्सर्ग में प्रतिदान नहीं, बलिदान की भावना रहती है। प्रतिग्रह न होकर आत्मसमर्पण होता है, लेने का नहीं लुटा देने का भाव प्रधान होता है। संत औरों के लिए स्वयं को लुटा देता है। अपने को निःशेष भाव से लुटाकर ही मेघ जलधि कहलाता है। संत भी मेघ की भाँति अवघड़दानी होता है।

तुलसीदास कहते हैं संतों के अंदर काम, क्रोध, लोभ, मोह रूपी मनोविकार नहीं होता। उनका जीवन जप, तप, व्रत और संयम से संयमित होता है। श्रद्धा, मैत्री, मुदिता, दया आदि श्रेष्ठ गुण उनके हृदय में सदैव वास करते हैं। संतों का हृदय मोम के समान होता है। उनकी करुणा हिमालय सदृश्य होती है, जो पिघल−पिघलकर अगणित धाराओं के रूप में प्रवाहित होती है। यही धाराएँ आगे चलकर संत परंपरा बनी हैं। संतों के उपदेशों ने ही संत परंपरा की नींव डाली।

संत परंपरा का प्रारंभिक युग (सं. 1200 से 1550) का सूत्रपात संत जयदेव से लेकर संत धन्ना भगत तक चलता है। इस युग के संतों ने अपने उपदेशों का प्रचार स्वतंत्र रूप से किया। इस समय के प्रमुख संतों में नामदेव, कबीरदास, रैदास की गणना होती है। मध्ययुग में संत युग को दो भागों में बाँटा जा सकता है। पूर्वार्द्ध (सं. 1550-1700) तथा उत्तरार्द्ध (सं. 1700-1850) युग। मध्ययुग के पूर्वार्द्ध काल में प्रमुख संतों में संत गुरुनानक देव, दादू दयाल, संत मलूकदास एवं संत तुलसीदास हैं। इसके उत्तरार्द्ध के प्रधान संतों में संत रज्जब जी, सुँदरदास, बाबा की नाराम, संत दरिया साहब, (भाखड़ वाले), दरियादास (बिहार वाले), गरीबदास, चरणदास आदि का नाम आता है।

संत परंपरा के आधुनिक युग (सं. 1850 से आज) में भी अनेक प्रमुख संतों पलटू, साहब, संत शिवदयाल आदि का प्रादुर्भाव हुआ है। संत परंपरा के मध्ययुग के पूर्वार्द्ध में पंथों का संगठन होने लगा था। इसके उत्तरार्द्ध में आकर सामुदायिक प्रवृत्ति अपेक्षाकृत अधिक उग्र हो गई। आधुनिक काल में पुनरुद्धार की प्रवृत्ति और विश्वकल्याण की भावना को बहुत बल मिला।

विक्रम की सातवीं शताब्दी से प्रारंभ होने वाली संत परंपरा आगे के युगों में विभिन्न संप्रदायों के सिद्धाँतों एवं मतों से पुष्ट होकर पंद्रहवीं शताब्दी तक चली आई है। इसके पश्चात् इसे विशिष्ट नामों से जाना जाता है। पं. परशुराम चतुर्वेदी ने जयदेव से ही संत परंपरा का प्रारंभ माना है, परंतु आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसकी शुरुआत नामदेव से स्वीकारी है। संत साहित्य का श्रीगणेश गीत गोविंद के रचयिता जयदेव से हुआ है, परंतु प्रारंभ में उसकी रेखा क्षीण और धूमिल प्रतीत होती है। वस्तुतः संतधारा की यह क्षीण और अव्यवस्थित रेखा नामदेव के द्वारा व्यवस्थित, प्राँजल और प्रशस्त बनाई गई। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध भक्त नामदेव ने हिंदू−मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्ति मार्ग का सुझाव सुझाया। यहीं से संत परंपरा का सुव्यवस्थित आविर्भाव माना जा सकता है।

सर्वप्रथम कबीरदास ने अपने कुछ विचारों को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त करना आरंभ किया। संत सेन, पीपा, धन्ना, रैदास आदि भी इन्हीं विचारों से अनुप्राणित थे। ये सभी संत रामानंद को अपना गुरु मानते थे। इन संतों ने स्वामी रामानंद के उपदेशों से प्रभावित होकर ही संत परंपरा का श्रीगणेश किया। कबीर एवं उनके समकालीन संतों का काल संत परंपरा का प्रारंभिक युग माना जाता है। इस युग में किसी संप्रदाय विशेष का संगठन नहीं हुआ था।

संत परंपरा के मध्य युग में प्रचलित नियमों का निर्वाह नहीं हो सका। गुरुनानक देव के समय से सामुदायिक संगठन शिष्यत्व पद्धति तथा उपदेश संग्रह की प्रथा प्रारंभ हुई। इसके पूर्वार्द्ध काल में नानकदेव ने नानक पंथ, दादू दयाल ने दादू पंथ, बाबरी साहिता ने बाबरी पंथ, हरिदास ने निरंजनी संप्रदाय तथा मलूकदास ने मलूक पंथ की स्थापना की। कबीर के नाम पर कबीर पंथ की स्थापना भी हुई। इसी तरह लालपंथ एवं साधु संप्रदाय का भी उदय हुआ। इन पंथों तथा संप्रदायों के भिन्न−भिन्न केंद्र स्थापित हो गए। इनके उपदेश संग्रहों को धर्मग्रंथ का महत्त्व मिलने लगा। इस युग के उत्तरार्द्ध में बाबा लाल ने बाबा लाली संप्रदाय, संत प्राणनाथ ने धामी संप्रदाय, बाबा धरनीदास का धरनीश्वरी संप्रदाय, दरियादास (बिहार वाले) ने दरियादासी ने शिवनारायणी संप्रदाय, संत चरणदास ने चरणदासी संप्रदाय, संत गरीबदास ने गरीबदासी पंथ, पानपदास ने पानपंथ और रामचरण दास ने रामसनेही संप्रदाय की स्थापना की। इस काल में दीन दरवेश, बुल्लेशाह और बाबा कीनाराम जैसे संतों ने केवल भगवान् के उपदेशों का प्रचार किया। इन्होंने किसी पंथों एवं संप्रदायों की स्थापना नहीं की।

इस काल के संत एक ऐसे समन्वित धर्म का प्रचार करना चाहते थे, जिसके अंतर्गत सभी प्रचलित धर्मों के मूल सिद्धाँतों का समावेश हो सके। इसके परिणामस्वरूप सभी धर्मग्रंथों के अध्ययन हेतु जिज्ञासा जागी। पौराणिक गाथाओं की सृष्टि, अलौकिकता की कल्पना, भक्तमालों की रचना तथा अपने−अपने धर्मों एवं संप्रदायों के श्रेष्ठ ग्रंथों की पूजा भी इस काल में की जाने लगी। इसी काल में विविध बाह्याचारों तथा कल्पित गाथाओं की रचना होने लगी। यहीं से विकृति का समावेश हुआ। इसे ही मध्ययुग का अंधकार काल कहा जाता है, क्योंकि संतों के सच्चे आदर्श एवं भक्ति के बदले स्वार्थपरता व अहंकार का नग्न नर्तन होने लगा था। कुछ संतों ने इस विकृति एवं विडंबना के विरुद्ध आवाज भी उठाई।

उन्नीसवीं सदी के प्रथम चरण से ही अँग्रेजों का प्रभाव बढ़ने लगा। पाश्चात्य शिक्षा पद्धति, कला तथा संस्कृति ने भारतीय ढंग से अपने आदर्शों एवं उद्देश्यों की व्याख्या की। इसलिए पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति तथा शास्त्रीय मानदंडों के आलोक में प्राचीन धारणाओं एवं मान्यताओं का पुनर्मूल्याँकन करने का प्रयास किया गया। इसी दौरान राधास्वामी संप्रदाय के तृतीय गुरु ब्रह्मशंकर मिश्र से संत परंपरा में बुद्धिवादी एवं वैज्ञानिकता का समावेश किया। इससे संत मत का औचित्य एवं महत्त्व की ओर प्रकाश पड़ा। कबीर पंथ के रामरहसदास तथा दादू पंथ के साधु निश्चलदास ने अपने−अपने पंथों के सिद्धाँतों को स्पष्ट करने का बीड़ा उठाया।

तत्कालीन सामाजिक−साँस्कृतिक पतन को रोकने एवं इसके पुनरोदय का शंखनाद राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे संतों ने समाज सुधार एवं सुधारवादी विचारधारा का प्रचार किया। इससे कुरीति उन्मूलन एवं सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन का पथ प्रशस्त हुआ। स्वामी रामतीर्थ ने भी कबीर, नानक तथा दादूदयाल द्वारा प्रयुक्त साधना पर बल दिया। इन आधुनिक संतों के कारण वैचारिक स्वतंत्रता, निर्भीकता, मानवता एवं विश्वकल्याण जैसे नैतिक गुणों को ग्रहण करने की प्रेरणा मिली।

संत परंपरा का वर्तमान पुनरोदय स्वामी विवेकानंद दयानंद, श्री अरविंद, रमण महर्षि एवं परमपूज्य गुरुदेव द्वारा किया गया। स्वामी विवेकानंद ने अपने प्रखर आग्नेय विचारों से संत परंपरा का नव्योत्थान किया। उन्होंने अपनी गहन अंतर्दृष्टि से इसका नवोन्मेष देखा था। नवयुग के इस आधुनिक संत ने संत परंपरा का पुनर्जागरण किया। यही प्रयास आर्य परंपरा के रूप में विख्यात हुआ। आगे चलकर यह परंपरा श्री अरविंद की विकासोन्मुख प्रक्रिया द्वारा और भी विकसित हुई। परमपूज्य गुरुदेव ने संत परंपरा को समसामयिक ढंग से प्रस्तुत किया। विचार क्राँति की मशाल जलाने वाली युग निर्माण योजना संत परंपरा का ही सामयिक स्वरूप है। इसकी योजनाओं के माध्यम से ही भारतवर्ष में संतों के वास्तविक उद्देश्यों को फलीभूत होने का अवसर मिलेगा, जिससे उनके द्वारा देखा हुआ सपना ‘धरती में स्वर्ग का अवतरण एवं मनुष्य में देवत्व का विकास’ अवश्य पूर्ण होगा।

कुरुक्षेत्र की धर्मभूमि में तपस्यारत ऋषि मुद्गल के धर्माचरण, आराधना और उदार वृत्ति द्वारा जीवन निर्वाह करना आदर्श थे। मास के पहले पक्ष में वे खेतों से बीन−बीनकर चावल एकत्र करते, दूसरे पक्ष में उसे यज्ञ और अतिथि−सत्कार में व्यय कर देते। ऋषि श्रेष्ठ दुर्वासा छह हजार शिष्यों सहित मुद्गल की परीक्षा हेतु उनके आश्रम पर कई बार गए और निस्पृह मुद्गल ने उन्हें हर बार आतित्य द्वारा पूर्णतः संतुष्ट कर दिया।

दुर्वासा ऋषि मुद्गल पर कृपालु हुए। उन्होंने कुरुक्षेत्र के इस तपस्वी को स्वर्गप्राप्ति का वरदान दिया। स्वर्ग ले जाने के लिए आए देवदूत को नम्रतापूर्वक मजा करते हुए कहा, हे दूत! खेद है तुम्हें एकाकी ही स्वर्ग लौटना पड़ेगा। मैं तुम्हारा साथ नहीं दे सकूँगा। जिस लोक में कर्म को स्थान नहीं, वहाँ केवल सुख भोगने मैं नहीं जाना चाहता। कर्म करते हुए ही मैं सौ वर्षों तक जीने की इच्छा रखता हूँ। मुझे निर्माण प्राप्त कर सकता हूँ। तपस्वी मुद्गल मृत्युलोक में ही लोकमंगल के लिए करते हुए निर्वाण को प्राप्त हुए।

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