VigyapanSuchana

February 2001

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सन् 1978 में एक प्रवचन में पूज्यवर ने कहा था, “मैं कौन हूँ, यह बता दूँ तो यहाँ से हर की पौड़ी नहीं, दिल्ली तक लाइन लग जाएगी। मैंने अपने ऊपर एक साधारण गृहस्थ ब्राह्मण का परदा डाल रखा है। मेरे मार्गदर्शक ने जो मुझे निर्देश दिया, मैंने वही किया है।”

अवतार का आगमन मानव प्रकृति में भागवत् प्रकृति को प्रकटाने के लिए होता है। ईसा, कृष्ण और बुद्ध की भगवत्ता को प्रकटाने के लिए होता है, ताकि मानव प्रकृति अपने सिद्धाँत, विचार अनुभव, कर्म और सत्ता को ईसा, कृष्ण और बुद्ध के साँचे में ढालकर स्वयं भागवत् प्रकृति में रूपांतरित हो जाए। अवतारों के द्वारा धर्म की संस्थापना एक प्रकार से तोरण द्वार बनाना है, जिसके माध्यम से वे स्वयं प्रवेश करते हैं और मनुष्यों को उसका अनुपालन करने को कहते हैं। प्रत्येक अवतार मनुष्यों के सामने अपना ही दृष्टांत रखते हैं, अपने आप को ही एक मात्र मार्ग बताते हैं।

‘अवतार’ की व्याख्या पूरी तरह समझ में तब तक नहीं आ सकती, जब तक कि गीता के अन्य अध्यायों के अन्य श्लोकों के साथ उसका संबंध न समझ लिया जाए। पहले तो तीसरे से चौथे अध्याय में, जो एकदम विषय परिवर्तन आया है, उस पर चलें। तीसरे अध्याय के अंतिम श्लोक में भगवान् ने कहा है, “हे अर्जुन! तू कामरूपी दुर्जय शत्रु की जो हम चर्चा कर चुके (विगत किश्तों में) उनसे बचाकर ऊँचा उठाने का कार्य अवतार ही करता है। इसीलिए चौथे अध्याय में मानव की सबसे बड़ी त्रासदी एवं समाज की सबसे बड़ी दुर्घटना अनाचार का बढ़ना, सज्जनों का घटना बताया गया है व इन सबका उपचार है, अवतार का प्रकटीकरण। एकदम से विषय बदला है, पर समझ में आ जाए, तो अच्छा है कि क्यों बदला है। इसी प्रकार नवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में भगवान् कहते हैं, “मूढ़ लोग मानुषीतन में निवास कर रहे मुझको, समग्र भूतों के महान ईश्वर को तुच्छ समझकर तिरस्कृत करते हैं, क्योंकि वे मेरे सर्वलोक महेश्वर परमभाव को नहीं जानते (अवजानन्ति माँ मूढा मानुषी तनुमाश्रितम्.....)।” इन विचारों को सामने रखकर यदि हम भगवान् के दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के मर्म को समझ सकें, तो ठीक रहेगा।

एक जगह गीता कहती है, “ईश्वर सब प्राणियों के हृदय क्षेत्र में निवास करते हैं और सबको माया से यंत्रारुढ़वत् चलाते रहते हैं।” (18/61)। यदि यदि ऐसी बात है, तो हम यह कैसे मानें कि ईश्वरीय चेतना किसी और रूप में, प्रत्यक्ष रूप में अपने विरुद्ध कार्य करने आती है। इसका उत्तर श्री अरविंद देते हुए कहते हैं, “भगवान् का अवतरण इसलिए होता है कि मनुष्य और उनके बीच के परदे को फाड़कर दिखाया जीवनभर उठा तक नहीं सकता।”

भागवत् नेता होते हैं अवतार−अवतार शब्द का अर्थ है उतरना। यह भगवान् का उस रेखा के नीचे उतर आना है, जो भगवान् को मानव जगत् या मानव अवस्था से अलग करती हैं। “संभवामि युगे−युगे” के माध्यम से भगवान् ने अर्जुन को, जो मानवजाति का एक श्रेष्ठतम नमूना है, विभूति है, बताया है कि तुम्हारे अंदर मैं वह दिव्य भाव प्रकट कर रहा हूँ, जिसमें प्रवेश कर तुम ऊपर उठ सकते हो। यह तभी संभव है, जब अपनी सामान्य मानवता के अज्ञान और सीमाबंधन को पारकर तुम मुझे अच्छी तरह समझ लो।

श्री अरविंद ने और एक स्थान पर खा है, “अवतार ऐंद्रजालिक जादूगर बनकर नहीं आते, प्रत्युत मानवजाति के भागवत् नेता और भागवत् मनुष्य के एक दृष्टांत बनकर आते हैं।” कितनी स्पष्ट व्याख्या हैं, अवतार की। कुछ जटिल शब्दावजी में हमने अब तक अवतारवाद की, इस शब्द की व्याख्या की है। अब बड़े सरल शब्दों में ‘अवतार’ की अवधारणा पर पूज्यवर गुरुदेव का चिंतन देखें। अखण्ड ज्योति का अगस्त 1979 का अंक प्रज्ञावतार विशेषाँक के रूप में प्रकाशित हुआ था। उसमें पूज्यवर लिखते हैं, “यदा−कदा ऐसी परिस्थितियाँ हर युग में आती हैं, जब संत, सुधारक और शहीद अपने पराक्रम को भारी देखते हैं और विपन्नता से लड़ते−लड़ते भी सत्य परिणाम की संभावना को धूमिल देखते हैं। ऐसे अवसरों पर अवतार का पराक्रम उभरता है और पासा पलटने जैसी असंभाव्य को संभव बनाने वाली परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है। सदा से विषम वेलाओं में ऐसा ही चलता रहा है। भविष्य में भी यही क्रम चलेगा।”

अवतार का प्रयोजन−प्रकटीकरण−आगे परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं, “मनुष्य का पौरुष जहाँ लड़खड़ाता है, वहाँ गिरने से पूर्व ही सृजेता के लंबे हाथ असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए अपना चमत्कार प्रस्तुत करते दिखाई पड़ते हैं। यही है स्रष्टा का लीला अवतरण प्रकटीकरण।” (पृष्ठ 5)। इसी प्रकार पृष्ठ 7 पर वे लिखते हैं, “व्यापक शक्तियाँ सूक्ष्म और निराकार होती हैं। उनका कार्यक्षेत्र अदृश्य जगत् है। परब्रह्म की अवतार सत्ता युग संतुलन को सँभालने−सुधारने के लिए आती हैं। यह कार्य वह उनसे कराती है, जिनमें दैवतत्त्वों का चिरसंचि बाहुल्य पाया जाता है।”

परमपूज्य गुरुदेव ने मनुष्य जिसकी चेतना विकसित है, को तीन श्रेणियों में बाँटा है। संत, सुधारक और शहीद। उनने लिख है कि जब समाज में इन तीनों का अनुपात−वर्चस्व बढ़ने लगे, तो समझना चाहिए कि सूत्र−संचालक अवतारी सत्ता प्रकट होने जा रही है। ‘संतों’ को उनने सज्जनता−ब्राह्मणत्व के पर्याय तथा चरित्र एवं आचरण से उपदेश देने वाला बताया है। ‘सुधारक’ इससे ऊँची स्थिति है, जिसमें पात्र आत्मनिर्माण की तपश्चर्या ही नहीं पर्याप्त होती वरन् वे दुष्टाचरण−कुरीतियों से जूझते भी हैं। वे ब्राह्म−क्षात्र अपनाते हैं। ‘शहीद’ वे जो ‘स्व’ का ‘पर’ के लिए समग्र समर्पण कर दें। समर्पण−शरणागति−अहं का विसर्जन कर वे आत्मदानी बन जाते हैं। इन तीनों वर्णों के अनुपात में वृद्धि को पूज्यवर ने अवतारी चेतना के प्रकटीकरण का प्रमाण माना है।

इस प्रसंग को अगले अंक में “जन्म कर्म च में दिव्यम्” की व्याख्या के साथ आगे बढ़ाएँगे। बड़ा ही रोचक तत्त्वदर्शन है। समझ में आ जाए तो व्यक्तित्व में भूचाल लाकर दिखा देगा ।


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