गोस्वामी तुलसीदास जी ने अवतारी सत्ताओं की माया के विषय में लिखा है, “माया हास बाहु दिक्पाला।” वे दिग्पाल की तरह विराट् होते हैं। उनकी हँसी भी माया का जाल है, माया का परदा है। अवतार इसी तरह अपने बारे में की गई चर्चा को हँसी के ठहाकों में उड़ा देते हैं। तुलसीदास जी ने यह भी लिखा है, “सो जानहिं जेहि देहु जनाई, जानत तुमहि तुमहि होई जाई।” अगर तुम को जान लिया, फिर तुम्हारा होने में कोई कठिनाई नहीं, पर तकलीफ यही है कि हु जीवनभर नहीं जान पाते कि अवतारों के संग हम चले, फिर भी हम जाननहीं पाए। इस उद्धरण में द्वितीय पंक्ति गायत्री चालीसा में भी आई है। हम भी थोड़ा आत्मचिंतन करें, अपनी आराध्यसत्ता के सत्ता के विषय में।