ऐसे हुआ षड़यंत्र विफल

February 2001

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रिंस ऑफ वेल्स दिल्ली आ रहे थे। अँग्रेज सरकार की समूची व्यवस्था उनके स्वागत की भारी−भरकम तैयारियों में जुटी थी। वह 1920-21 का समय था। जब सामान्य अँग्रेज भी स्वयं को भारत देश का भाग्य विधाता समझ बैठता था। ऐसे में प्रिंस ऑफ वेल्स का दिल्ली आना बहुत मायने रखता था। हालाँकि राष्ट्रवासियों की कोशिशें यही थीं कि स्वागत समारंभ फीका रहे और भारत की अपनी विशिष्ट राष्ट्रीय एवं साँस्कृतिक छवि धूमिल न हो। पर अंग्रेज सरकार अपनी कुटिल चालें चलकर जैसे−तैसे अपने साम्राज्यवादी झंडे को ऊँचे से ऊँचा फहराना चाहती थी। उसकी कोशिश यह थी कि हिंदू समाज की आपसी फूट का लाभ उठाकर अछूतों की भीड़ इकट्ठी करके इस समारोह को जिस किसी तरह भी सफल बनाया जाए। यही नहीं हजारों−हजार संख्या में अछूत भाई−बहनों को इस अवसर पर ईसाई बनाने की योजना भी सरकार ने बनाई थी।

ऐसे समय में स्वामी परमानंद जी महाराज से चुप न बैठे रहा गया। वह संत होने के साथ सुधारक व विचारक भी थे। हिंदू समाज की रूढ़ियों, कुरीतियों को समाप्त करने के उद्देश्य से उन्होंने अपने आश्रम में हरिजन पाठशाला भी खोली थी। इन हरिजन बालकों को वे अपनी संतान से भी ज्यादा प्यार करते थे। उन्होंने अपने शिष्य श्री कृष्णानंद जी से कहा कि तुम आश्रम की हरिजन पाठशाला के बच्चों को लेकर दिल्ली जाओ और वहाँ के समारोह में बच्चों से भजन गवाओ। यह भजन था “धरम मत हारो रे।” इसे स्वामी परमानंद जी महाराज ने स्वयं ही इसी प्रयोजन के लिए बनाया था।

स्वामी परमानंद जी की हम बात को जानकर कई लोगों ने उन्हें काफी बुरा−भला कहा। कइयों की धमकियाँ भी मिलीं। पर कृष्णानंद जी अपने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य करके सब कुछ सहते हुए चुपचाप दिल्ली के लिए चल पड़े। सरकार ने इस अवसर पर अछूतों को दिल्ली आने के लिए मुफ्त रेलगाड़ी की व्यवस्था की थी। ये लोग भी इसी का लाभ उठाकर आयोजन स्थल तक पहुँच गए।

प्रिंस ऑफ वेल्स के पधारने पर ज्यों ही समारोह शुरू हुआ, तभी आश्रम के बच्चों ने खंजरी बजाकर स्वामी परमानंद जी महाराज का भजन गाना प्रारंभ कर दिया, “धरम मत हारो रे, यह जीवन है कि दिन चार।”

सीधे−सादे शब्द। सीधी−सादी बात और सीधे−सादे सुनने वाले। एक−एक शब्द श्रोताओं के हृदय में बैठने लगा।

धरमराज को जाना होगा, सारा हाल सुनाना होगा। फिर पीछे पछताना होगा, कर लो सोच−विचार।

एक बूढ़े ने पूछा, ये कौन हैं? क्या गा रहे हैं। जब उसे बताया गया कि अछूतों के बच्चे हैं। भगवद् भक्ति आश्रम रेवाड़ी में पढ़ते हैं और गा रहे हैं, “धरम मत छोड़े रे, जगत में जीना है दिन चार।”

बूढ़े ने बड़े ही आश्चर्य से पूछा, अछूतों के बालक और इतने साफ−सुथरे। इसका उपाय भी पहले से सोच रखा था। उन्होंने कुछ बच्चों के अभिभावकों को भी यात्रा में साथ ले लिया था, क्योंकि उनके गुरु महाराज को सारी स्थिति पूर्व से ही स्पष्ट थी। ये अभिभावक खड़े होकर कहने लगे, हाँ भाई, ये हमारे ही बच्चे हैं। आश्रम में स्वामी जी इन्हें पढ़ाते हैं।

इस पर बूढ़ा भंगी खड़ा होकर हाथ जोड़ता हुआ बोला, “भाइयों! एक बात मैं कहूँ। जब साधु−महात्मा हमारे बालकों को ऐसे प्रेम से पढ़ाते हैं, तो अब हमें धरम बदलने की जरूरत ही क्या रह गई है। अब हम अपना धरम नहीं छोड़ेंगे।”

उस वृद्ध की बात के समर्थन में पूरा आयोजन स्थल गूँज उठा। चारों ओर उसे इसी तरह की आवाजें सुनाई देने लगीं। अँग्रेजी सरकार का षडयंत्र विफल हो गया। स्वामी परमानंद जी महाराज को जब इस सफलता का पता चला, तो उन्होंने कहा, बाहरी शक्तियों की कुटिल चालें तभी सफल हो पाती हैं, हममें आपसी फूट होती है और आपसी फूट तभी पनपती है, जब हम परस्पर एक−दूसरे को प्यार और अपनापन देने में विफल रहते हैं। स्वामी जी का कथन आज भी तब जितना ही सत्य है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles