युगगीता−20 - धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे

February 2001

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( के चतुर्थ अध्याय ज्ञानकर्मसंन्यासयोग की युगानुकूल व्याख्या)

विगत अंक में चतुर्थ अध्याय के प्रारंभिक छह श्लोकों की व्याख्या द्वारा इस विषय में प्रवेश किया गया था। समन्वित योग सही अर्थों में क्या होता है, इसे श्रीमद्भगवद गीता पढ़े बिना जाना नहीं जा सकता। इस अध्याय में विशेष रूप से चार प्रकरणों की चर्चा है, जिनके बारे में पिछले अंक में लिखा गया था। पहला अवतार के प्रकटी करण का, दूसरा कर्म−अकर्म और विकर्म की व्याख्या का, तीसरा यज्ञ का ज्ञान−विज्ञान और चौथा ज्ञान की प्राप्ति द्वारा कर्म में कैसे तत्पर हुआ जाए। इस अध्याय के प्रारंभिक तीन श्लोकों में भगवान् द्वारा स्वीकारोक्ति है कि यह योग उनने−वासुदेव श्रीकृष्ण ने ही परमात्मा के शक्ति समुच्चय के रूप में सर्वप्रथम सूर्य से कहा था। यह योगरूपी ज्ञान अति रहस्यमय है एवं चूँकि यह कालाँतर में लुप्त होता चला गया, इसलिए वे द्वापर में इसे अर्जुन को एवं उसके माध्यम से उस व उस युग के बाद आने वाले सभी युगों के अभीप्सा रखने वाले जिज्ञासुओं के लिए कह रहे हैं। अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में वे एक बड़ी रहस्यभरी बात कहते हैं। “तेरे और मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, उन्हें तू नहीं जानता, किंतु मैं जानता हूँ।” अवतारवाद की व्याख्या पुनर्जन्म की पुष्टि देने वाले इस कथन से आरंभ होती है। तनिक अहं वेद सर्वाणि के द्वारा वे कहते हैं, मुझे नियंता होने के नाते यह मालूम है कि कौन−सी आत्मा क्या है, कौन सुपात्र है एवं कौन विगत जन्मों के कितने संस्कार लेकर आई है। हमने बताया था कि परमपूज्य गुरुदेव ने भी इसी तरह जाग्रतात्माओं के एक संगठन के रूप में गायत्री परिवार विनिर्मित किया है, बार−बार हमें भी इसी तरह से स्मरण दिलाते रहे, परंतु परमात्मसत्ता−अवतारी चेतना के प्रतिनिधि अपना लीलासंदोह एक सामान्य पुरुष के रूप में ही दिखाते हैं। इसी बात को छठे श्लोक में भगवान ने कहा है, “मैं नियामक ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति का आश्रय लेकर योगमाया से प्रकट होता हूँ।” भगवान अपनी इस माया के स्वामी हैं, हम उस माया के अधीन जीते हैं। यही नर और नारायण में अंतर है। अब इसके बाद की व्याख्या इस लेख में पढ़ें।

अवतार प्रकट कैसे होता है

जब हम सभी प्राणियों का ईश्वर अजन्मा ओर अपरिवर्तनशील है, तब फिर जब वह अवतार लेता है, तो स्वयं को प्रकट कैसे करता है, यह प्रश्न सामने आ खड़ा होता है। इसी का उत्तर भगवान छठे श्लोक में “संभवामि आत्ममायया” कथन द्वारा देते हैं कि मैं अपनी अंतर्निहित माया द्वारा अपने आपको प्रकट करता हूँ। हमारा अपना जन्म अपनी वासनाओं के कारण होता है। प्रकृति में अधिष्ठित होकर अपनी माया से जन्म लेने वाला कौन हुआ परब्रह्म−परमात्मा−परमेश्वर अपनी वासना के वशीभूत जन्म लेने वाला एक सामान्य नर। इसी व्याख्या को आद्य श्री शंकराचार्य सही मानते हैं। विशिष्ट द्वैतवादी रामानुजाचार्य, द्वैतवादी माधवाचार्य तथा भक्ति मार्गी श्री बल्लभाचार्य के मत यहाँ अलग−अलग हैं। अर्थ तीनों ने वहीं किए हैं, जो अंत में निष्कर्ष निकला है कि अपने संकल्प से अवतार जन्म लेते हैं। परंतु माया के स्वामी ‘समष्टि कारण शरीरों’ के स्वामी को भी अवतार लेना पड़ता है, धरती पर आना पड़ता है, यह सुनिश्चित है।

वस्तुतः भगवान् के पार्षद, विभूतियाँ, सिद्धपुरुष, स्वयं भगवान् अवतार लेते हैं। चेतना के अति उच्च शिखर से नीचे आकर मानव रूप में आते हैं। हर अवतार के पीछे महाकरुणा का भाव होता है। महा करुणा नहीं होती तो इतने ऊँचे शिखर पर बैठा आदमी नीच क्यों उतरता और हम सबके जीवन में वैसा ही जीवन जीते हुए क्यों जाता, जो कि सामान्य मनुष्य सारा भोग भोगते हुए जीता है। लोकशिक्षण के लिए करुणा के अवतार के रूप में धरती पर स्वयं भगवान् आते हैं और उन्हें अपनी संतानों के बीच आना, उनका दुःख बाँटना बहुत अच्छा लगता है। श्री रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे, “मैं तो माँ का चपरासी हूँ। माँ की जमींदारी देखने आया हूँ।” ईश्वर का अवतार माँ के चपरासी के रूप में, माँ की जमींदारी अर्थात् उनकी सारी संतानों की देखभाल करने के लिए होने की बात श्री रामकृष्ण ने कही है। हमें कभी−कभी ये बातें समझ में नहीं आतीं। हम उन्हें सामान्य पुरुष मान बैठते हैं। परमपूज्य गुरुदेव ने भी बार−बार कहा है कि हम सभी पिछले जन्मों के साथी हैं। तुम हमारे गिद्ध−गिलहरी हो, तुम हमारे रीछ−वानर हो। ये सब बातें प्रज्ञापुरुष−युगद्रष्टा के अंग−अवयव के रूप में हम सभी को अपनी गरिमा का बोध कराती हैं और उस विशिष्ट लोक में ले जाती हैं, जहाँ हम स्वयं को सौभाग्यशाली ही नहीं मानें, अपने स्वरूप को जानें भी और तदनुसार अपने क्रिया–कलापों को ढालें।

श्री अरविंद ने स्वामी विवेकानंद के बारे में कहा है, “वे शिव के तृतीय नेत्र की कृपा के कटाक्ष थे।” तीसरा नेत्र एक बार कृपा की दृष्टि से थोड़ा−सा झुक जाए, उसे कहते हैं कृपा कटाक्ष। विवेकानंद के बारे में यह कहा जाता है कि सप्तर्षियों में से एक सत्ता उनके रूप में अवतरित हुई थी। चाहे जो शक्तियाँ आएँ, उनके पीछे होती है ईश्वर की महा करुणा, ईश्वर की अपने संतानों के बीच जाने की अदम्य इच्छा। परमपूज्य गुरुदेव ने स्थान−स्थान पर लिखा है, “मैं आना नहीं चाहता था, पर मुझे धकेला गया है। सृष्टि की संचालक सत्ताओं ने मुझे इस धरती पर विशेष काम करने के लिए भेजा है।”

जुलाई 1969 (पृष्ठ 65) की अखण्ड ज्योति के संपादकीय में पूज्यवर लिखते हैं, “युग की परिवर्तन अवश्यंभावी है। हमारा छोटा−सा जीवन इसी की घोषणा करने, पूर्व सूचना देने के लिए है। हमने अपना सारा जीवन महाकाल के इस महान् प्रयोजन में सम्मिलित होने के लिए, प्रबुद्ध आत्माओं को निमंत्रण देने में लगा दिया। जिस काम के लिए हम आए थे, पूरा होने को है। अगला काम स्वयं महाकाल करेंगे।” अवतार का प्रयोजन क्या है, रहस्य क्या है, इसे पूज्यवर ने जून 1967 (पृष्ठ 17) की अखण्ड ज्योति में इस तरह दिया है, “भगवान् की अनेक शक्तियाँ हैं। उनके प्रयोजन, विधान, स्वरूप एवं प्रकरण भी अनेक हैं। जड़−चेतन जगत् के विविध क्रिया–कलापों को चलाने एवं बनाने−बिगाड़ने के संदर्भ में अनेक तथ्य जब सामने आते हैं, तो उनको सुव्यवस्थित कैसे रखा जाए, इस समस्या को हल करने के लिए भगवान् अपनी शक्ति को अनेक भागों में विभक्त करके अंशावतार के रूप में अनेक आत्माओं को जन्म देता है। यही अवतारों का रहस्य है। समय−समय पर भगवान् की अनेकानेक शक्तियाँ अनेक प्रकार की आवश्यकताओं एवं अव्यवस्थाओं को हल करने के लिए अवतरित होती रहती हैं।”

अवतार एक जहाज, एक जादूगर

श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे, “सामान्यजन जिनने बैरागी का चोला तो पहन लिया है, साधु−महात्मा भी कहलाते हैं, सड़ी लकड़ी की तरह हैं, जो किसी भी नाली में फँस जाती है। सड़ी लकड़ी पानी में बहते−बहते फूल जाती है और अटक जाती है, पार ही नहीं हो पाती। अवतार एक बड़ जहाज की तरह है, जो सारी नदी−समुद्र का चक्कर लगाकर कइयों को पार उतारकर आता है।” जरा−सी सिद्धि आते ही अपने मद में फूलने वालों की तुलना ठाकुर श्री रामकृष्ण ने सड़ी लकड़ी से की है। अवतार कितनी बड़ी शक्ति है, इस उदाहरण के इसलिए समझना जरूरी है कि आज के इस कलियुग में ढेरों अवतार भगवान् दिखाई देते हैं। एक और उदाहरण रामकृष्ण दिया करते थे, “अवतार की प्रक्रिया एक जादूगर के खेल की तरह है। वह आता है गाँव में जादू दिखाने, कई गाँठें लगी रस्सी को लेकर। कहता है सभी से खोलो। लोग खोल नहीं पाते, और उलझ जाते हैं। जादूगर तब हवा में रस्सी फेंकता है एवं सभी गाँठें खुल जाती हैं।” वे कहते थे कि अवतार भी ऐसे ही हमारी जन्म−जन्माँतरों की गाँठों की रस्सियों को लेकर आता है एवं एक क्षण में खोल देता है। इसीलिए सद्गुरु को, अवतार को प्रारब्धों को बदलने की, भूतकाल को बदलने की क्षमता से संपन्न बताया जाता है। गुरु और अवतार एक साथ हों तो कार्य और आसान हो जाता है। जो कार्य हम अपने पुरुषार्थ से नहीं कर सकते, वह कार्य अवतार− सद्गुरु कुछ ही क्षणों में कर दिखाता है। हमारा प्रारब्ध बदल देता है।

भगवान् अवतार क्यों लेते हैं, यह सातवें−आठवें श्लोक में स्पष्ट करते हैं−

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मनं सृजाम्यहम्॥ 4/7 परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥ 4/8

“हे अर्जुन! जब−जब संसार में धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब−तब मैं साकार रूप से अपने आपको प्रकट करता हूँ। साधु पुरुषों की रक्षा और दुष्कर्मियों (पाप कर्म करने वालों) के विनाश तथा धर्म की अच्छी तरह संस्थापना करने के लिए मैं अपने आपको युग−युग में प्रकट करता हूँ।”

संभवामि युगे−युगे

चीनी का धर्म जिसके कारण से वह चीनी है और जिसके बिना वह चीनी नहीं रहती, उसकी मिठास ही है। उष्णता अग्नि का धर्म है और प्रकाश सूर्य का धर्म है। इसी प्रकार मनुष्य का धर्म है उसके अंदर निहित दिव्यता, आत्मा की उत्कृष्टता। यही बाहर विभिन्न गुणों के रूप में अभिव्यक्त होती है। प्रेम, ईमानदारी, क्षमा, प्रसन्नता, सज्जनता के रूप में अभिव्यक्त मूलभूत दिव्यता का जब ह्रास होने लगे तथा अत्याचार, झूठ, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, छल−कपट, घृणा जैसी पाशविक प्रवृत्तियाँ बढ़ने लगें, तो पुनः धर्म की परिचायक सत्प्रवृत्तियों की स्थापना करने हेतु भगवान स्वयं को प्रकट करते हैं, यह यहाँ बताया है (तदाऽऽत्मनं सृजाम्यहम्)।

इसी बात को तुलसीदास जी ने “जब−जब होहि धरम की हानी, बाढ़हि असुर अधर्म अभिमानी” के रूप में निरूपित किया है। सर्वशक्तिमान भगवान् का जीव−जगत् के कल्याण के लिए मनुष्य देह धारण कर आना, प्रकट होना संसार के आध्यात्मिक इतिहास में एक बहुत बड़ी घटना है। प्रत्येक अवतार में धर्म−संस्थापन की पद्धति भिन्न−भिन्न प्रकार की होती है। देश, काल और प्रयोजन के अनुसार कार्य की प्रणाली बदल जाती है। अवतार का अर्थ ही होता है, नीचे उतरना। अवतार में दिव्य चैतन्य की अभिव्यक्ति के हमें निरंतर दर्शन होते रहते हैं। अवतार में तो दिव्यसत्ता का भान होता है, पर उनका प्रसंग अवतार के साथ आगे कहीं लेंगे। अवतार की चर्चा तो यहाँ जिस संदर्भ में चल रही है, उसे समझ लेना जरूरी है।

अवतार आखिर क्यों?

जब ईश्वरीय सत्ता के कृपा−कटाक्ष से ही सारी व्यवस्था संभव हो पा रही है, उनकी इच्छा मात्र से ही सृष्टि का कार्य चल रहा है, तो उनकी आवश्यकता क्यों? यह बात भगवान् ने आठवें श्लोक में स्पष्ट की है, यथासमय दुष्कर्मियों को दंड देने और सद्पुरुषों की सहायता करने की लक्ष्यपूर्ति हेतु ही अवतार का आविर्भाव होता है। इसीलिए वे कहते हैं कि मैं “परित्राणाय साधूनाँ” तथा “विनाशाय च दुष्कृताम्” स्वयं को युग−युग में प्रकट करता हूँ “संभवामि युगे युगे।” क्यों? क्योंकि यही वह प्रक्रिया हैं, जिससे कि किसी समाज के साँस्कृतिक विकासक्रम को आगे बढ़ाया जा सकता है। धर्म की संस्थापना अवतार के संभव होने पर ही क्रिया रूप लेती है।

अवतारवाद का प्रस्तुत प्रसंग बड़ा ही रहस्यमय है। मात्र इन दो श्लोकों में एक बहुत बड़ा सिद्धाँत अनायास ही भगवान् के श्रीमुख से निकल गया है, निकला नहीं, जान−बूझकर अर्जुन के माध्यम से हम सबको बताया गया है, ताकि हम अवतार की संभावना व उसके उद्देश्य को भलीभाँति समझ सकें। एक पाश्चात्य विचारक हुए हैं अर्नाल्ड टायनबी। उनका कहना है, “संसार का इतिहास, सभ्यता तथा संस्कृति का जन्म ‘चुनौती एवं प्रत्युत्तर’ (चैलेंज एण्ड रिस्पाँस) का ही इतिहास है। मानव को सृष्टि के आरंभ से ही चुनौती मिलती रही है एवं वह उसका प्रत्युत्तर देता रहा है। तभी तो वह आज तक जीवित है। चुनौती भौतिक भी हो सकती है, सामाजिक भी, आध्यात्मिक भी। जब यह चुनौती उग्र रूप ले लेती है, तो एक संकट का जन्म होता है, तब कहीं कोई दैवीय शक्ति, निस्सहायों की पुकार सुन उनके अंदर से आत्मबल के प्रवाह के रूप में फूट पड़ती है। हम ललकार का उत्तर देते हैं। कोई करुणामय सत्ता आकर हमें संकट से बचा लेती है। यही विश्व का नियम है एवं इसी को गीता ने अवतारवाद व शेष धर्म−संप्रदायों ने पैगंबर कह दिया हैं।”

अवतरण एवं आरोहण

प्रस्तुत मत हमने अपने पश्चिम के एक विचारक का रखा। अब जरा देखे हमारे पूर्व के महान् योगी महर्षि श्री अरविंद क्या कहते हैं? ‘गीता प्रबंध’ (ऐसेज आँन गीता) में वे लिखते हैं, “अवतार का आना जो मानवजाति के अंदर भगवान् का परम लक्ष्य है, केवल धर्म का संस्थापन करने के लिए नहीं होता। क्योंकि धर्म की स्थापना को इतना बड़ा और पर्याप्त हेतु नहीं है, कोई ऐसा महान् लक्ष्य नहीं है, जिसके लिए ईसा या कृष्ण या बुद्ध को उतरकर आना पड़े। यह कार्य तो भागवत् संकल्प सिद्धि की एक सामान्य अवस्था मात्र है। इस दिव्य अवतरण के दो पहलू हैं, एक है अवतरण, मानवजाति में भगवान् का जन्म लेना, मानव आकृति और प्रकृति में भगवान् का प्रकट होना। दूसरा है आरोहण, भगवान् के भाव में मनुष्य का जन्म ग्रहण, भागवत् चेतना में उसका उत्थान। यह जीव का नवजन्म हैं, द्वितीय जन्म है। भगवान् का अवतार लेना और धर्म की स्थापना करना इसी नवजन्म के लिए होता है। यह जो दूसरा पहलू हैं, यही सबसे महत्त्वपूर्ण है, जो इन दो श्लोकों की सतही व्याख्या करने वालों से अक्सर छूट जाता है। गीता की शिक्षा एक गंभीर दार्शनिक और धार्मिक सत्य है और यह कहती है कि ऐतिहासिक या पौराणिक अतिमानवों की कल्पना के जोर से या रहस्यमय तरीके से किसी को भी भगवान् घोषित कर दिया जाए। जब तक यह उच्चस्तरीय उद्देश्य न हो, तब तक न तो भगवान् का दिव्य जन्म होता है, न अवतरण होता है


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