कहीं जवानी को लकवा न मार जाए

February 2001

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युवा शक्ति किसी राष्ट्र की उज्ज्वल आशा का प्रतीक है। देश एवं समाज का भविष्य इसी पीढ़ी के हाथों में होता है। यह एक सार्वभौम एवं शाश्वत सत्य है, लेकिन आज यह एक मुहावरा बनकर रह गया है, जिसे हर नेता और उपदेशक अपने मुँह से सुनाया करता है। जबकि इस समय देश का भविष्य तय करने में जवान अपनी कोई प्रभावी भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं। युवा पीढ़ी आधुनिकता की चकाचौंध में दिग्भ्रमित है। उसके सामने न कोई आदर्श है, न उच्च उद्देश्य। ऐसे में उपभोक्तावादी संस्कृति के निरंकुश भोगवाद का दंश उसे विक्षिप्तता एवं पतन की राह पर धकेल रहा है। परिणामस्वरूप टूटे स्वप्नों, बिखरे अरमानों एवं अतृप्त आकाँक्षाओं की मारी युवा पीढ़ी का जीवन पुष्प खिलने से पूर्व ही मुरझाकर दम तोड़ रहा है। कालचक्र के विषम प्रवाह में युवा शक्ति को रचनात्मक दिशा में मोड़ने एवं उसे अपने जीवन का राष्ट्र−समाज के सृजन में प्रेरित एवं नियोजित करने की आवश्यकता पहले से अधिक गंभीर हो गई है।

युवा शक्ति की वर्तमान दुर्दशा का कारण बहुत कुछ अपनी स्वतंत्रता काल की दोषपूर्ण नीतियों में खोजा था सकता है। आजादी के बाद विकसित देशों के साथ अंधी दौड़ में हमने युवा पीढ़ी के चरित्र निर्माण की आवश्यकता की पूरी तरह अनदेखी की और उपभोक्तावाद के हामी व आधुनिकता के प्रहरी बनने के लालच में उन्हें मानसिक स्तर पर अपसंस्कृति के दुष्प्रभावों एवं इसकी सुलगती हिंसा के सहारे छोड़ दिया। इससे उपजी हताशा ही युवाओं में कभी तोड़−फोड़, हिंसा, बलात्कार, अपहरण और अतिवाद के रूप में, तो कभी भ्रष्टाचार और घोटालों के रूप में हमारे सामने खुला ताँडव करती दिखाई देती है।

उपभोक्तावादी संस्कृति में पली युवा पीढ़ी तात्कालिकता में जीने में विश्वास करती है और भविष्य के प्रति बेखबर है। वह इंतजार करना नहीं चाहती, इसी क्षण सब कुछ पाना चाहती है। इंस्टेंट काँफी और इंस्टेंट फूड की तरह सुख−समृद्धि, धन−दौलत, प्यार−मोहब्बत सब इंस्टेंट पाना चाहती है। परिणामस्वरूप पतन की खाई में गिरने वालों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। कम−से−कम नगरीय युवक जो समाजशास्त्रियों के विचार एवं चिंता की परिधि में आते हैं, उनमें तो यह प्रवृत्ति साफ−साफ दिख रही है। महानगरीय युवकों में बड़ी तेजी से हिंसा, मूल्यहीनता, आत्मकेंद्रिकता, कुँठा और कल्पनाहीनता बढ़ रही है और उनकी जीवन की समझ बहुत उथली एवं विकृत होती चली गई है।

भगत सिंह ने कभी कहा था, “युवाओं में इतना प्यार होता है कि वह तो पेड़−पौधों, नदी−पहाड़ों, झरनों और जंगल तक के इश्क में डूबे रहते हैं।” किंतु आज के दौर में सचाई दूसरी ही है। आज उनके प्रेम की यह उदात्त परिभाषा दैहिक सुख एवं वासना की परिधि में सिमटकर कलुषित हो चुकी है। वह ‘वर्चुअल रिएल्टी’ पर यकीन रखता है। सब कुछ हकीकत में पाना चाहता है। आधुनिक विज्ञान विशेषज्ञों ने उनके मत को पुष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। जहाँ पूर्व में फ्रायड के आधे−अधूरे सिद्धाँत यौन उन्मुक्तता को पुष्ट करते थे, वहीं अमेरिकी रसायनज्ञ एवं एवं मनोशास्त्रीगणों ने कुछ वर्ष पूर्व ही अपनी पुस्तक ‘द केमेस्ट्री ऑफ लव’ में अपने आधे−अधूरे निष्कर्षों से प्रेम की उदात्त भाव की जड़ों पर कुठाराघात किया है। उनके अनुसार प्रेम कोई अहसास जैसी चीज नहीं हैं, जैसा कि सदियों से कवियों एवं दार्शनिकों ने उसे प्रतिपादित किया है। लेबोनिट्ज ने साफ−साफ कहा है कि शरीर में विद्यमान एस्ट्रोजन और एंड्रोजन की कुछ निश्चित रासायनिक संक्रियाओं का परिणाम ही प्रेम या रुमानी अहसास जैसी चीज है। वस्तुतः इस विचारधारा में पल−बढ़ रही युवा पीढ़ी के लिए प्रेम जैसा पवित्र भाव दैहिक खिलवाड़, यौन उन्मुक्तता एवं स्वच्छंदता का पर्याय बन गया है।

उपभोक्ता संस्कृति के इन हमलों ने युवा पीढ़ी को आदर्शों एवं उच्च उद्देश्य के प्रति पंगु बना दिया है। यह मोहपाश इस कदर कसा जा रहा है कि उसे धन एवं भोग के अतिरिक्त ओर कुछ सूझ नहीं रहा है। संयम, सदाचार, त्याग, सेवा, नीति, मर्यादा आदि की बातें दकियानूसी मानी जाती है। तथाकथित विकास के अंतर्गत एक स्वप्नहीन−अराजक पीढ़ी बहुत तेजी से बढ़ रही है। जब हर्षद−मेहता को करोड़ों की धोखाधड़ी के जुर्म में गिरफ्तार किया गया था और पूरा मीडिया हर्षदमय हो गया था, उस दौरान भारत के चार महानगरों में युवाओं के बीच सर्वेक्षण हुआ था कि उनके पंसदीदा नायक कौन है और स्वयं क्या बनना चाहते हैं। इस सर्वेक्षण के नतीजों ने संवेदनशील समाजशास्त्रियों को झकझोर कर रख दिया। 60 प्रतिशत से अधिक युवकों की संख्या ऐसी थी, जो हर्षद मेहता जैसा बनना चाहते थे। इन युवकों का पसंदीदा नायक हर्षद मेहता था 72 प्रतिशत युवक इससे बेपरवाह थे कि हर्षद ने आखिर क्या किया और उसने जो किया वह देश के अहित में है। इन सर्वेक्षण परिणामों का स्पष्ट निष्कर्ष था कि पैसा और कामयाबी हासिल करने के लिए कुछ भी काय जा सके, बिना किसी हिचक और अपराधबोध के करना चाहिए।

एक समय था जब हाई स्कूल और कॉलेज में प्रवेश करने वाली युवा पीढ़ी सोचती थी कि हम गोखले बनेंगे, तिलक बनेंगे, स्वामी विवेकानंद, गाँधी, जवाहरलाल, सरदार पटेल, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद बनेंगे, लड़कियाँ सोचती थीं कि हम भगिनी निवेदिता, सरोजनी नायडू, कमला देवी चट्टोपाध्याय, अरुणा आसफ अली, हंसा मेहता बनेंगी। आय ये आदर्श एवं सपने धूमिल पड़ गए हैं। आज युवा पीढ़ी के पास सिर्फ फिल्म स्टार या टी.वी. स्टार बनने का सपना है। फिल्मों और टी. वी. की मायावी दुनिया ने उनके सामने एक छद्म स्वर्ग में सभी समस्याओं के इंस्टेंट समाधान मौजूद हैं। बात ही बात में सभी समस्याएँ हल हो जाती हैं। फिल्मी हीरो माफिया गिरोह का अकेले ही सफाया कर सकता है। अदना−सी नौकरी के लिए भटकने वाला युवक अचानक किसी जादुई चमत्कार से करोड़ पति हो जाता हैं। एक ईमानदार दिखने वाला फिल्मी अभिनेता भ्रष्ट व्यवस्था को बदल देता है। सचाई से कोसों दूर ये चित्र और बिंब चूँकि हमें इंस्टेंट तृप्ति देते हैं, युवा इन्हीं में खो जाते हैं और भविष्य के प्रति अपनी आँखें बंद कर लेते हैं। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ जैसे धारावाहिक आज की यूवा पीढ़ी को अधिक आकर्षित करते दिखाई देते हैं।

अपनी गहनतम इच्छा, प्रकृति एवं आत्मा के स्वभाव के विपरीत कठपुतली की तरह का यह व्यवहार युवाओं की दिशाधारा पर गंभीर प्रश्न लगा देता है। अपनी इच्छा, अपना संकल्प और अपना ज्ञान, जो मनुष्य जीवन के लक्षण हैं, आज युवा पीढ़ी ही नहीं, प्रौढ़ों और बूढ़ों की पीढ़ी में भी गायब होते जा रहे हैं। साँस्कृतिक और आर्थिक गुलामी में जकड़े देश की यही नियति हो सकती है। लेकिन प्रौढ़ों और बूढ़ों में इनका गायब होना इतना कष्टदायक नहीं है, जितना युवा पीढ़ी में इनका गायब होना। जिनके सामने भविष्य खुला पड़ा है, उनका भविष्य के प्रति उदासीन हो जाना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है, यह वैसे ही है, जैसे कि हँसते−खेलते, उछलते, कूदते बच्चे को अचानक लकवा मार जाए। नौजवान जो अपने स्वभाव से, प्रकृति से स्वतंत्र इच्छा, अदम्य संकल्प और अनंत जिज्ञासा लिए होता है, यदि अपनी इच्छाशक्ति और संकल्पशक्ति को किसी केस सामने गिरवी रख दे, जो आने वाला है, उसके संबंध में जिज्ञासा करना बंद कर दे और जो उस पर थोपा जा रहा है, उसका विरोध भी न करे, तो यही कहा जाएगा कि जवानी को लकवा मार गया है।

युवा शक्ति उस उद्दाम ऊर्जा का नाम है, जिसने हर युग में व्यवस्था की जड़ता के इन क्षणों में अपनी आवाज के बुलंद किया है। इतिहास के हर मोड़ पर इस वर्ग ने, परिवर्तन के हर चौराहे−चौराहे पर कफ़न बाँधकर दमन और दुर्व्यवस्था का मुकाबला किया है। 1779 की फ्राँस की राज्यक्राँति को भले ही मध्यम वर्ग अथवा बुर्जुआ क्राँति के नाम से जाना जाता है, किंतु उसका असली वाहक वहाँ का नवयुवक ही था। रूस की बोल्शेविक क्राँति के वाहकों में 80 प्रतिशत लोग 18 से 34 वर्ष की आयु के थे। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के गहन तमस के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम के आँदोलन की संपूर्ण ज्योति युवा शक्ति की अदम्य ऊर्जा की आभा से उद्दीप्त थी। 1905 के बंग−भंग से लेकर 1942 के भारत छोड़ो आँदोलन व 1947 की आजादी तक, सभी महत्त्वपूर्ण दौर में युवा शक्ति अग्रिम पंक्ति पर रही। तिलक युग से लेकर गाँधी युग तक इस समुदाय ने सदैव ही बलिदानी एवं क्राँतिकारी परंपरा में अग्रणी भूमिका निभाई। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरु सभी युवा थे। ऐतिहासिक समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखा जाए, तो 20वीं सदी के आरंभिक 50 वर्षों में छात्र आँदोलनों ने भारतीय जनमानस की वैचारिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं राष्ट्रीय चेतना के निर्माण में निर्णायक योगदान दिया और 1947 में देश के आजाद होने तक इनकी अपनी युगाँतरकारी भूमिका रही।

स्वतंत्रता के पश्चात् युवा शक्ति में बिखराव आया और राष्ट्रीय स्तर पर उसकी रचनात्मक भूमिका धूमिलप्राय रही। 80 के दशक के प्रारंभिक काल में लोकनायक जयप्रकाश के नेतृत्व में इसकी एक आशाजनक झलक मिली थी, किंतु कालक्रम में राजनीति के घातक दंश ने इसे भी पंगु बना दिया। आज राजनीति युवा शक्ति को अपने कच्चे माल के रूप में प्रयुक्त कर रही है। विभिन्न छात्र संघ, राजनीतिक दलों के विस्तार−विभाग बनकर रह गए है। राजनीति के चक्रव्यूह में उलझी छात्र शक्ति से सृजन की उन्मुक्त भूमिका की आशा नहीं की जा सकती।

साँस्कृतिक पुनर्जागरण के आधार पर समाज निर्माण एवं राष्ट्र उत्थान के पुनीत कार्य में शाँतिकुँज हरिद्वार का युग निर्माण अभियान सक्रिय है। अपने कार्यक्रमों में युवा शक्ति के प्रभावी एवं सार्थक नियोजन के लिए यह कटिबद्ध हैं। इसमें जहाँ संजीवनी साधना सत्र द्वारा युवा शक्ति के चरित्र निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार की जाती है, वहीं युग शिल्पी सत्रों के अंतर्गत लोकसेवा के कार्य में अपनी प्रतिभा एवं शक्ति के नियोजन का प्रशिक्षण दिया जाता है। युग के इस अभूतपूर्व सृजन आँदोलन में सुशिक्षित युवा वर्ग बुद्ध के युवा भिक्षु−भिक्षुणियों, रामकृष्ण मिशन के युवा संन्यासी परिव्राजकों, गाँधी के युवा सत्याग्रहियों एवं सुभाष−भगत सिंह की परंपरा में त्याग−बलिदान के उच्चस्तरीय आदर्श प्रस्तुत कर रहा है। जाति−वर्ग, धर्म−संप्रदाय, भाषा−प्राँत आदि भेद−भावों से परे यह आँदोलन सुसंस्कृत मानव एवं सभ्य समाज के नव निर्माण के लिए संकल्पित है। इसकी रचनात्मक गतिविधियों के अंतर्गत सप्तक्राँतियों का बिगुल बज चुका है, जिसके अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण, नशा निवारण, कुरीति उन्मूलन एवं नारी जागरण जैसे कार्य हाथ में लिए गए हैं। भोगवादी संस्कृति के नागपाश में जक्रही युवा शक्ति व राजनीति के चक्रव्यूह में उलझी छात्र शक्ति इस अभियान में अपनी ऊर्जा का नियोजन कर समाज निर्माण एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान के कार्य में अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा सकती है।


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