स्वतंत्रचेता मन की प्रतिध्वनि, ये वीराँगनाएँ

February 2001

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भारतीय स्वतंत्रता आँदोलन की महत्ता एक महायज्ञ से कम न थी। इस महायज्ञ में अनेकों वीरों एवं वीराँगनाओं ने अपने जीवन को आहूत किया। शहीदों की शहादत की तो अंतहीन गाथा है, परंतु वीराँगनाओं की वीरोचित स्मृतियों को भी नहीं भुलाया जा सकता। जिन्होंने अपना सर्वस्व इस बलिवेदी पर चढ़ा दिया, उन वीराँगनाओं में कई लेखिका एवं कवयित्री भी थीं, जिन्होंने अपनी लेखनी में प्राण भरकर देशभक्ति और देशप्रेम का ओजस्वी मंत्री फूँका।

इस क्रम एनी बेसेंट का नाम प्रमुख है। वह भारत आई तो थीं सत्य की खोज के लिए, परंतु यहाँ आकर उनका सारा जीवन सेवा के प्रति समर्पित हो गया। एनी बेसेंट ने सन् 1913 में ‘कामन विल’ नामक साप्ताहिक पत्र निकालकर स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद किया। इसके कुछ महीने बाद उन्होंने ‘मद्रास स्टेंडर्ड’ खरीदकर उसका नाम ‘न्यू इंडिया’ रखा। वे इन पत्रों में स्वाधीनता के उग्र एवं जोशीले लेख लिखती रहीं। इसी कारण जून 1917 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इसी वर्ष एनी बेसेंट ने काँग्रेस का अध्यक्ष पद स्वीकार किया। सन् 1929 में उन्होंने नेशनल कन्वेंशन नामक एक नया आँदोलन भी चलाया था।

भारत आने से पूर्व एनी बेसेंट स्वामी विवेकानंद से मिल चुकी थीं। वे सत्य की खोज में निकली थीं और कहा करती थीं, सत्य के अनुसंधान में चाहे मेरे समस्त लौकिक बंधन टूट जाएँ, मित्रता और सामाजिक बंधन छिन्न−भिन्न हो जाएँ, चाहे मैं प्रेम से वंचित हो जाऊँ। चाहे उसके लिए मुझे निर्जन पथों में क्यों न भटकना पड़े और सत्य प्रकट होकर चाहे मुझे क्यों न मिटा डाले, मैं उसका अनुसरण करने से पीछे नहीं हटूँगी। यही प्रखरता और आत्मविश्वास ही उनकी सेवा का मंत्र रहा।

स्वर्णकुमारी देवी मूलतः साहित्यकार थीं। वह कवींद्र रवींद्रनाथ ठाकुर की बड़ी बहन थीं। उन्हें भारत की प्रथम महिला उपन्यासकार, पत्रकार एवं संपादक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने ‘भारती’ जैसी प्रसिद्ध पत्रिका का सात साल तक सफल संपादन किया। अपनी पत्रिका के माध्यम से उन्होंने तत्कालीन समाज में संव्याप्त अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, कुरीतियों आदि पर जमकर प्रहार किया। उनकी लेखनी में देशीभक्ति का जज्बा भी रहता था। 1876 में प्रकाशित उनके प्रथम उपन्यास ‘दीप निर्वाह’ को राष्ट्रीय चेतना की सर्वोत्कृष्ट कृति माना जाता है। स्वर्णकुमारी देवी ने स्वतंत्रता संग्राम के अपने अपूर्ण कार्य को अपनी बेटी सरला देवी चौधरी के माध्यम से पूरा किया।

सरला देवी चौधरी अपनी माँ की पत्रिका ‘भारती’ के लिए लेख लिखती थीं। इसके पश्चात् उन्होंने भारती के संपादन द्वारा राष्ट्र−चेतना के जागरण का कार्य किया। सरला देवी अपने लेखनी के माध्यम से जनता में विदेशी गुलामी के प्रति प्रतिकार की ज्वाला जलाती थीं। उनके क्राँतिकारी लेख को पढ़कर युवा और युवतियाँ आक्रोश से उलबने लगते थे। इसी के परिणामस्वरूप सरला देवी ने राष्ट्रीय आँदोलन हेतु एक विराट् संगठन खड़ा किया। उनकी लिखी ‘बंगेर वीर’ नामक पुस्तक जनजागरण के लिए प्रेरणा बनी

भगिनी निवेदिता स्वाधीनता, सेवा और साधना की त्रिवेणी थीं। निवेदिता का मंत्र था, सर्वधर्म समानता, गरीबी−गुलामी से मुक्ति और मानव एवं देशसेवा के लिए सर्वस्व समर्पण। यह मंत्र उन्हें उनके गुरु युगद्रष्टा स्वामी विवेकानंद से मिला था। चिर संन्यासिनी निवेदिता का नाम था मार्गरेट नोबुल। वह आयरलैंड निवासी थीं और भारत को अपना कर्मभूमि मानती थीं। निवेदिता अपनी लेखनी से जनता में नारी शिक्षा, जाग्रति, देशप्रेम की भावना भरती थीं। स्वतंत्रता आँदोलन के समय उनके द्वारा रचित राष्ट्रीयगान और कविताएँ अत्यंत प्रेरणाप्रद एवं उत्कृष्ट थीं। युगाँतर जैसी क्राँतिकारी पत्रिका के पीछे रहकर क्राँतिकारियों को अपना सहयोग देती थीं। भारत के लिए अपना सर्वस्व निछावर करने के कारण ही स्वामी विवेकानंद ने उन्हें अपनी मानस कन्या मान लिया था। श्री अरविंद ने उन्हें भगिनी निवेदिता कहा और रवींद्रनाथ ठाकुर लोकमाता कहकर पुकारते थे।

डॉ. मुथुलक्ष्मी रेड्डी भारत की प्रथम महिला विधायिका थीं। वे लेखिका और स्वतंत्रता सेनानी थीं। सन् 1930 के नमक सत्याग्रह आँदोलन में उन्होंने गाँधी जी के साथ गिरफ्तारी दी थीं। ब्रिटिश सरका एवं पुलिस द्वारा महिलाओं पर अत्याचार के विरोध में उन्होंने न केवल जमकर संघर्ष किया, बल्कि उसके लिए कठोर जेल यातनाएँ भी सहीं। राष्ट्रसेवा की सक्रिय भागीदारी के क्रम में डॉ. रेड्डी अनेक लेखों द्वारा भारतीय जनमानस में विदेशी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का स्वर भरती थीं। इसके अलावा भी उन्होंने विभिन्न विषयों पर कई पुस्तकें लिखी हैं। डॉ. मुथुलक्ष्मी 1713 में भारत की प्रथम महिला डॉक्टर बनीं। इसके माध्यम से भी वह मानवता की सेवा करती थीं। सचमुच में वह भारत का गौरव थीं।

भारत कोकिला सरोजनी नायडू जन्मजात कवयित्री थीं। अँग्रेजी के प्रसिद्ध साहित्यकार एडमंड गाँसे उनके साहित्यिक गुरु थे। वे भारतीय सभ्यता और संस्कृति को पाश्चात्य जगत् में प्रसारित करने में सफल हुई। इसके लिए उनका अँग्रेजी भाषा का ज्ञान महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ। उनकी कविताओं में भारत की आत्मा बसती थी। मानो देशसेवा के लिए ही उनका जन्म हुआ था। साहित्य, देशभक्ति और राजनीति जैसे भिन्न−भिन्न क्षेत्रों में उनकी भूमिका सफल और सराहनीय है।

कमला देवी चट्टोपाध्याय केवल लेखिका ही नहीं स्वतंत्रता संग्राम की जुझारू नेता, सामाजिक क्राँति की अग्रदूत और एक महान् कलाकार थीं। उन्होंने इंडियन वूमैन, बैटल फाँर फ्रीडम, एट द क्राँस रोड, अवेकनिंग ऑफ इंडियन वूमैन, वूमैन मूवमेंट ऑफ इंडिया, द ग्लोरी ऑफ इंडियन हैंडीक्राफ्ट जैसी कई पुस्तकें लिखी हैं। 1927 में कमला देवी ने अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की स्थापना में अग्रणी भूमिका निभाई। बाद में वे इस संगठन की अध्यक्ष भी बनीं। स्वतंत्रता आँदोलन में कूद पड़ने के कारण सन् 1930-44 के बीच कई बार जेलयात्रा की। स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात् भी उन्होंने देश के विकास में अपना योगदान दिया। राष्ट्र को यह उनकी महत्त्वपूर्ण देन है।

दुर्गाबाई देशमुख स्वतंत्रता और सेवा की प्रतिमूर्ति थीं। एक प्रबुद्ध समाजसेवी और चिंतक होने के कारण उनके विचार कई हिंदी और अंग्रेजी पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध उन्होंने कई क्राँतिकारी लेख लिखे थे।

सुभद्राकुमारी चौहान अपने राष्ट्र की गौरव−रत्न थीं। उन्होंने न केवल वीरोचित गीत रचकर क्राँतिकारियों को प्रेरणा दी, बल्कि स्वयं आगे बढ़कर इस पुनीत महायज्ञ में अपनी आहुति समर्पित की। ‘राखी की लॉज’ और ‘जलियावाला बाग में वसंत’ जैसी अमर और ओजस्वी कविताएँ असहयोग आँदोलन के दौरान पवित्र मंत्र साबित हुई। ‘झाँसी की रानी’ ने भारतीय जनमानस में क्राँति की मशाल जलाई, जिसे पढ़कर गुलामी का अँधेरा काटने के लिए देश के युवा सिर पर कफ़न बाँध लड़ने−मरने को तैयार हो जाते थे। सुभद्राकुमारी चौहान की कविताएँ क्राँति महायज्ञ में आहुत का कार्य करती थीं। उन्होंने ‘कर्मवीर’ जैसी पत्रिका के लिए भी कार्य किया, जिसका संपादन भारत की आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी कर रहे थे।

शहीदों को शहादत में सक्रिय सहयोग देने वाली सुशीला देवी मूलतः कवयित्री थीं। कविता के अलावा नका गद्य भी अत्यंत सशक्त है। कविता हो चाहे लेख, सभी में क्राँति का पुट रहता था। क्राँतिगीत लिखना उनका शौक था। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी के बाद, उनकी कुर्बानियों की याद में लिखा दरद भरा गीत तो पंजाब की जनता की जबान पर चढ़कर बोला। सुशीला देवी ने स्वतंत्रता संग्राम में भगत सिंह, भगवती चरण बोहरा आदि क्राँतिकारियों के साथ खुलकर काम किया था।

प्रसिद्ध क्राँतिकारी यशपात की धर्मपत्नी प्रकाशवती क्राँतिकारी लेख लिखकर जनमानस में राष्ट्रभक्ति का जज्बा भरती थीं। इसीलिए 1938 में ‘विप्लव’ पत्रिका के प्रकाशन का कार्य उनने सँभाला। इसी पत्रिका के माध्यम से राष्ट्रीय आँदोलन को गति देने वाला लेख वे लिखती थीं।

राष्ट्रीय भावनाओं की काव्यधारा बहाने वाली तोरणदेवी शुक्ला ‘लला’ स्वतंत्रता विभूति थीं। तत्कालीन पत्र पत्रिकाओं में उनकी उग्र रचनाएँ प्रकाशित होती थीं। उनकी कविताओं के भावों से चिंगारियाँ फूटती थीं। ‘जाग्रति’ उनकी इन्हीं कविताओं का संग्रह है। बाद में उन्हें इस कृति के लिए ‘केसरिया’ जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार प्रदान किया गया।

विद्यावती कोकिला किशोरावस्था से ही गाँधी जी के प्रभाव से राष्ट्रीय कविताएँ लिखने लगी थीं। स्वतंत्रता आँदोलन में उन्होंने बढ़−चढ़कर भाग लिया और जेल गई। ‘अमर ज्योति’ उनका महाकात्य है। माँ, सुहागगीत, सुहागिन और पुनर्मिलन उनके काव्यसंग्रह हैं। इसके पश्चात् उनका झुकाव पूर्णतया श्री अरविंद दर्शन की ओर हो गया। विद्यावती कोकिला ने ‘सावित्री’ के अनुवाद का दुस्साध्य कार्य किया। उन्होंने स्वतंत्रता आँदोलन से प्रारंभ कर अंत में आत्मिक स्वतंत्रता के लक्ष्य पथ पर आरुढ़ होकर अपना जीवन त्याग।

उर्मिला देवी शास्त्री दैनिक ‘जन्मभूमि’ की संपादिका थीं। एक संवेदनशील लेखिका, जुझारू संपादक समर्पित स्वतंत्रता सेनानी और मातृत्व से भरा उनका जीवन बड़ा ही निराला था। उनकी छोटी बहन पुरुषार्थवती भी राष्ट्रीय कविताएँ लिखतीं, परंतु अल्पवय में ही उनकी मृत्यु हो गई। दोनों बहनों ने भारतीय आजादी में अनोखा कार्य किया।

भारत−रत्न अरुणा आसफ अली ने स्वतंत्रतारूपी महायज्ञ में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। एक पत्रकार के नाते उन्हें प्राप्त समस्त पुरस्कार राशियों को वह अपने पत्रों ‘लिंक’ और ‘पेट्रियाट’ को जीवंत रखने के लिए समर्पित करती रहीं। उनके लेख राष्ट्रीय चेतना को जीवंत और जाग्रत् करने हेतु कटिबद्ध रहते थे। उन्हें अनेकों पुरस्कारों से अलंकृत किया गया और मरणोपराँत ‘भारत−रत्न’ दिया गया। ‘मेमोरीज ऑफ 1942, बिहाइंड लिंक हाउस, द न्यू चैलेंज, एटीन इयर्स आफ्टर गाँधी, थर्टी इयर्स आफ्टर फ्रीडम, विल द काँग्रेस सरवाइव’ आदि ग्रंथों में उनकी प्रखर चेतना झलकती है। बालमणि अम्मा केरल की राष्ट्रवादी साहित्यकार थीं। उन्होंने राष्ट्रीय उद्बोधन वाली कविताओं की रचना की। वह मुख्यतः वात्सल्य, ममता, मानवता के कोमल भाव की कवयित्री के रूप में विख्यात हैं। फिर भी स्वतंत्रतारूपी दीपक की उष्ण लौ से भी वे अछूती नहीं रहीं। सन् 1929-39 के बीच लिखी उनकी कविताओं में देशभक्ति, गाँधी का प्रभाव, स्वतंत्रता की चाह स्पष्ट परिलक्षित होती है। इसके बाद भी उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहीं। उन्हें पद्म विभूषण आदि कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

हंसा मेहता ने भी स्वतंत्रता संग्राम पर अनेक आलेख प्रकाशित किए। वह एक निर्भीक लेखिका थीं। नयनतारा सहगल जीवन और लेखन दोनों क्षेत्र में साहस की उत्कृष्ट मिशाल थीं। वह ‘प्रिजन एंड चाकलेट केक’ एवं ‘फ्रॉम फीवर सेट फ्री’ जैसे क्राँतिकारी पुस्तकों की लेखिका थीं। वह स्वतंत्रता सेनानी स्वतंत्रचेता मन की बेबाक प्रतिध्वनि थीं।

इसके अलावा भी अनेकों वीराँगनाएँ हुई, जिन्होंने अपनी लेखनी उठाकर भारतीय जनमानस में स्वतंत्रतारूपी आशा का दीपक जलाया। इनके बलिदान और कुर्बानियों पर सच्ची श्रद्धाँजलि तभी संभव है, जब आज बहनें युग की माँग स्वीकारें और उसकी पुकार सुनें। नारी अभ्युदय का नवयुग तभी आ सकता है।


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