त्याग−बलिदान की संस्कृति देवसंस्कृति−4 - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

February 2001

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(गताँक से आगे)

मित्रो! बेटा कैसा होना चाहिए? राहुल की तरह से होना चाहिए। बेटा ऐसा नहीं होना चाहिए कि बाप मरेगा तो उसकी जायदाद हमको मिलनी चाहिए और जो खेत है, वह हमको मिलना चाहिए। बाप का पैसा हमको मिलना चाहिए। बाप जिंदा है, तो हिस्सा मिलना चाहिए। नहीं, ऐसे बेटे नहीं हो सकते। नहीं, महाराज जी! बेटे ऐसे ही होते हैं। बाप के पास इक्कीस बीघे जमीन है। बाप को मरने में अभी देर है। बेटा कहता है कि हमारा हिस्सा अभी दे दो। हम मरेंगे तब देंगे। नहीं, मरने का इंतजार हम नहीं करेंगे, अभी दे दो। यह कौन है? क्या बेटे ऐसे ही होते हैं? नहीं ऐसे नहीं होते बेटे। श्रवणकुमार के तरीके से बेटे होते हैं और राहुल के तरीके से बेटे होते हैं और बेटियाँ कैसी होती हैं? बेटियाँ संघमित्रा के तरीके से होती हैं। संघमित्रा सम्राट्, अशोक की बेटी थी। उसने कहा, पिता जी आपने संन्यास ले लिया? हाँ। तो फिर हमारे लिए हुक्म दीजिए कि हमको क्या करना चाहिए।

मित्रो! संघमित्रा जो थी, उसने कहा पिता जी क्या करना पड़ेगा? बेटी, हमारे रास्ते पर चलना पड़ेगा। सम्राट् अशोक की बेटी संघमित्रा निकल पड़ी ओर उसने जितने बुद्ध ने विहार बनाए थे, उससे ज्यादा विहार बनाकर दिखा दिए। महिलाओं के क्रिया−कलाप, महिलाओं के संगठन, महिलाओं के विहार संघमित्रा ने ढेर सारे बना दिए। यह सब हमारी किताब में वर्णन किया गया है; उसका मैं हवाला दे रहा था। कितने ज्यादा बुद्ध के विहार थे और कितने महिलाओं के लिए? यह कैसे हो गया? बेटे, इस तरीके की परंपराओं से हो गया। कहाँ−से−कहाँ तक हुआ? बेटे, जहाँ कहीं भी अनीति के विरुद्ध संघर्ष करने की जरूरत पड़ी होगी अथवा धर्म की स्थापना करने की जरूरत पड़ी होगी और जब ठोस कदम उठाने की जरूरत पड़ी होगी, तब कैसे कि आज है। पोला कदम जब तक उठाना है, तब तक तो मीटिंग करेंगे, वार्षिकोत्सव करेंगे, रामायण सम्मेलन करेंगे। ठीक है बेटे, ये पोला कदम हो सकता है, पर यह ठोस कदम नहीं हो सकता। ठोस कदम यह हो सकता है कि हमें लोगों के, जनसाधारण के सामने त्याग और बलिदान की परंपराएँ प्रस्तुत करनी चाहिए, ताकि लोगों का मुँह यह कहने के लिए बंद हो जाए कि ये कहने−सुनने की बातें हैं। ये दूसरों को उपदेश देने की बातें हैं। ये बातें काम नहीं आ सकतीं और कोई आदमी इन्हें जीवन में करके नहीं दिखा सकता। दूसरों को कह सकता है कि आपको त्यागी होना चाहिए, ब्रह्मचारी रहना चाहिए, परोपकारी होना चाहिए। आप और हम कह सकते हैं, लेकिन जब स्वयं करने का मौका आएगा तक हम नहीं कर सकते। यही कारण है कि वक्ताओं का, उपदेशकों का कहीं कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखाई देता।

मित्रों! चिंता करने की कोई बात नहीं है। आप अपने से ही शुरुआत कीजिए, नमूना बनिए, साँचा बनिए। हमारी परंपरा स्वयं से शुरुआत करने की रही है। जहाँ कहीं भी हम देखते हैं, अपने से ही शुरुआत देखते हैं। विश्वामित्र और हरिश्चंद्र दोनों आपस में घनिष्ठ थे। इतने घनिष्ठ थे कि गुरु−शिष्य का प्रेम जो राजा विश्वामित्र में था और किसी में नहीं देखा गया। विश्वामित्र एक बड़ा काम करने वाले थे, नई दुनिया बनाने वाले थे। जब हम पढ़ते हैं, तो उसमें नई सृष्टि लिखा हुआ है। वे नई सृष्टि बना रहे थे। मैं समझता हूँ नई सृष्टि तो क्या बना रहे होंगे, लेकिन नया जमाना ला रहे होंगे। विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र से कहा, तू हमारा मित्र है, दोस्त है? उनने कहा, हाँ। तो फिर हमारे साथ−साथ चल, हमारे काम आ। राजा हरिश्चंद्र ने कहा, हम आपके साथ−साथ चलेंगे और आपके काम आएँगे। तो फिर काम आ चल हमारे साथ।

मित्रो! विश्वामित्र को पैसे की जरूरत पड़ी होगी, तो उन्होंने हरिश्चंद्र का राज्य माँगा होगा, दूसरी चीजें माँगी होंगी और आखिरी में जहाँ मौका आ गया होगा, तो भौतिक साधनों के लिए राजा हरिश्चंद्र ने अपने आपको नीलाम कर दिया होगा। अपनी बीबी−बच्चे को नीलाम कर दिया होगा। यह क्या चीज है? त्याग और बलिदान है। इसको हम भूल नहीं सकते। क्यों विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को ही दोस्त क्यों बनाया। इससे कम में काम नहीं चल सकता था? अभी भी हजारों गाँधियों को पैदा करने की ताकत हरिश्चंद्र में है। गाँधी जी ने बचपन में हरिश्चंद्र का ड्रामा देखा और ड्रामा देखकर उन्होंने कहा, मैं हरिश्चंद्र होकर जिऊँगा। वे वास्तव में हरिश्चंद्र होकर के लिए। हरिश्चंद्र ने एक हरिश्चंद्र जोने कितने पैदा कर गए। कैसे हो गए? बेटे और कोई तरीका नहीं है अपने आपको त्याग की बलिवेदी पर समर्पित करने के अलावा। अगर हमारे व्यक्तिगत जीवन में लोकहित के लिए, परमार्थ के लिए कहीं त्याग की परंपरा नहीं है, तो फिर कहने भर की बातें हैं, बरगलाने भर की बातें हैं और आपको छलने एवं जनता को बरगलाने की बातें हैं। नया युग लाने के लिए तो हमें फिर वहीं से आरंभ करना होगा, जहाँ हमारे ऊपर यह बात लागू होती है कि त्याग और बलिदान का प्रश्न आए, तो हम कहाँ होते हैं? बगलें झाँकते हैं या आगे बढ़−चढ़कर लग जाते हैं।

मित्रों! हमारी संस्कृति में त्याग−बलिदान की परंपराएँ आदि काल से रही हैं, चाहे बुद्ध हो या हरिश्चंद्र कोई भी रहा हो। त्याग−बलिदान की परंपराएँ गाँधी जी के आश्रम में भी थीं। गाँधी जी के आश्रम में जब ‘नमक−सत्याग्रह’ शुरू हुआ तो लोगों ने कहा कि आप चुपचाप बैठे रहिए और लोगों को हुक्म दीजिए। सब लोग जेल जा सकते हैं, नमक बना सकते हैं, आप शाँति से बैठे रहिए, बाकी लोग ये सब काम करेंगे। गाँधी जी ने कहा, ऐसा नहीं हो सकता। जो लोग साबरमती आश्रम में रहते हैं, उन आश्रमवासियों का सबसे पहले नंबर है, बाकी लोगों का पीछे नंबर है। उन्होंने सबसे पहले अपना नाम लिखाया। गाँधी जी के आश्रम में जो उन्नीस आदमी थे उनको लेकर और आश्रम में ताला डालकर गाँधी जी अपने साथियों को लेकर नमक बनाने के लिए रवाना हो गए और वहाँ से जेल चले गए। उनके जेल जाने के बाद जो आग फैली, तो गाँधी जी के बच्चे, जनसेवक सभी ने कहा कि हमें भी जेल जाना चाहिए। यह प्रभाव व्याख्यानों का था? नहीं, त्याग के लिए गाँधी जी का स्वयं को प्रस्तुत करने का था। बिना कोई व्याख्यान दिए, बिना कोई कथा कहे, बिना कोई प्रवचन दिए, बिना कोई सम्मेलन बुलाए कितने सारे आदमी जेल चले गए। गाँधी जी के उस साहस, को त्याग को देखकर लोगों ने समझ लिया कि इस आदमी की कथनी और करनी के बारे में दो राय नहीं है। इसकी कथनी और करनी एक है।

सिख धर्म भी इसी का साक्षी

मित्रों! यही परंपरा बनी रही है और बनी रहेगी। सारे का सारा इतिहास, पुराणों का इतिहास, धर्म−शास्त्रों का इतिहास, अमुक का इतिहास जब हम देखते हैं, तो दूसरा कोई तरीका दिखाई नहीं पड़ता। यवनों के विरुद्ध जब सिख धर्म बनाया गया और इस बात की जरूरत पड़ी कि लोगों को हिंदू धर्म की रक्षा के लिए सिपाहियों के तरीके से, सैनिकों के तरीके से तनकर खड़ा हो जाना चाहिए और अपनी जान को जोखिम में डालना चाहिए। यह बहादुरी अब गुरुगोविंद सिंह पैदा करने वाले थे, तब उन्होंने लोगों से पूछा कि इसका कौन−सा तरीका हो सकता है? लोगों में बहादुरी कैसे भरी जा सकती है? अगर यह उपदेश से हो जाए कि उससे सब लोग सूली पर चढ़ जाएँ, सब मारे जाएँ और हम सुरक्षित बैठे रहेंगे, ऐसा नहीं हो सकता। गुरुगोविंद सिंह ने कहाँ, “पहला नंबर हमारा है।” उन्होंने जान−बूझकर ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कीं, ताकि लोगों में जोश और जीवन पैदा हो सके।

मित्रो! गुरुगोविंद सिंह के दो बच्चे दीवार में चिनवा दिए गए। दो बच्चे युद्ध में थे। एक बच्चा लड़ाई के मैदान में जब मारा गया दो दूसरा बच्चा, जो उसके साथ−साथ लड़ रहा था, भागकर आया और अपने पिता जी को खबर सुनाई कि हमारे भाईसाहब तो लड़ाई में मारे गए। गुरुगोविंद सिंह ने कहा, मारे गए, तो बेटा फिर तू कैसे आ गया? उस वक्त बच्चे से जवाब नहीं बन पड़ा। वह बेचारा समझ नहीं सका कि पिता जी का क्या इशारा है? पिताजी का यह इशारा था कि एक भाई लड़ाई के मैदान में मारा गया, तुझे भी मरना चाहिए। वह इशारा समझ गया, लेकिन उनके आगे जवाब क्या दे सकता था। उसने कहा, पिताजी! मुझे प्यास लगी थी। पानी पीने के लिए और आपको खबर सुनाने एवं सुस्ताने के लिए मैं आया था। ठीक है बेटा! जितनी देर सुस्ताना था सुस्ता लिया। हाँ और देख प्यासा है, तो बेटे बैरी के खून से अपनी प्यास बुझाना। चल यहाँ से और उसे भगा दिया।

मित्रो! वह चलता हुआ चला गया। मैं यह क्या कह रहा हूँ। ये अध्यात्म की बातें कह रहा हूँ, देव−परंपराओं की बातें कह रहा हूँ और ये बात कह रहा हूँ कि अगर दुनिया में कोई बड़े काम हुए हैं या बड़े काम हो सकते हैं, तो इससे कम में नहीं हो सकते और न इससे अधिक में हो सकते हैं।

तमाशों से उबरें, सच्चा अध्यात्म जानें

भाइयों! अपना ये कुटुँब हमने बहुत दिनों पहले बनाया था। उस समय हमारे पास बच्चे−ही−बच्चे थे। बच्चों के बारे में जो नीति अख्तियार करनी चाहिए, वो ही नीति हमारी थी। बच्चों के लिए, उन्हें देने के लिए क्या हो सकता है? पिताजी गुब्बारा देना, टॉफी देना, लेमनचूस देना। पिताजी चाबी की रेलगाड़ी लाना। हम बरफ की कुल्फी खाएँगे, आदि सारी−की−सारी माँगें, फरमाइशें− डिमाँड बच्चे करते रहते हैं। ये कौन हैं? बच्चे। अध्यात्म क्षेत्र में फरमाइश करने वाले ये कौन है? बिलकुल बच्चे हैं, बालक है। इनको इसी बात की फिक्र पड़ी रहती है कि हमको दीजिए, हमको दीजिए। इसलिए ये बालक हैं। बेटे, आज से तीस साल पहले हमने बिलकुल बालकों का समूह जमा किया था और लोगों से कहा था कि हमारे पास जो कुछ है, आप ले जाइए। तब लोगों ने कहा था, पिता जी! आपके पास क्या है? गुब्बारे हैं। तो हमको दे दीजिए। बस एक गुब्बारा पेटी से निकाला, फूँक मारकर हवा भर दी और कहा ये रहा तुम्हारा गुब्बारा। एक ने कहा, पिताजी! आपको सबको बेटा देते हैं? हाँ बेटे, हमारी पेटी में बहुत−सी चीजें हैं। ये देख टॉफी है, ये लेमनचूस है। ये नौकरी में तरक्की है। ये दमे की बीमारी का इलाज है।

ये क्या है? ये बेटे सब तमाशे हैं, खेल−खिलौने हैं। ये सब बहुत दिनों पहले थे। अब हमारी दुकान बड़ी हो गई है और अब मैं आपसे दूसरे तरीके से उम्मीद करता हूँ। अब आप गुब्बारे माँगते हैं, तो मैं नाराज होता हूँ और आप से कहता हूँ कि अब आप तीस साल के हो गए है। आपको शर्म नहीं करना चाहिए? बेटे अब हम बुड्ढे हो गए हैं और हमको कम दिखाई पड़ता है। डॉक्टर ने कहा है कि आँखों को टेस्ट कराना और चश्मा खरीद देना। डॉक्टर ने बताया था कि अट्ठाईस रुपये का चश्मा आएगा। बेटे, निकाल अट्ठाईस रुपये का चश्मा। बेटे, निकाल अट्ठाईस और हमारी आँखों का टेस्ट कराकर ला। चश्मा खरीदकर ला। अरे! पिताजी, आपने तो ‘टर्न’ ही बदल दिया। हाँ बेटे, बदल दिया। पहले हम गुब्बारे दिया करते थे, अब हम चश्मे के लिए पैसे माँगते हैं। ये क्या बात हो गई? ये तो बिलकुल उलटा हो गया। हाँ बेटे हमारा ही क्या उलटा हो गया, तेरा भी उलटा हो गया। जब तू गोदी में था तब नंगा फिरता था और अब तो तू कच्छा भी पहनता है, पैंट भी पहनता है। तूने बदल दिया कि नहीं? हाँ महाराज जी! मैंने तो बदल दिया। बेटे तू बदल गया, तो हम भी बदल गए।

मित्रो! अब हमारा कुटुँब जवान हो गया है। हम जवान आदमियों से अपेक्षा करते हैं देने की। अब हम माँगने की अपेक्षा करते हैं और हमारा हक है कि हम आपसे माँगें। अब आप से माँगा गया है और माँगना चाहिए। बेटे, जहाँ कहीं भी वास्तविकता का उदय हुआ है, जहाँ कहीं भी विवेकशीलता आई है, वहीं परंपरा पलट जाती है। अब हम आपसे लेने की परंपरा आरंभ करते हैं, क्योंकि आप अब जवान हो गए हैं। खासतौर से इस जमाने में, जिसमें हम और आप जिंदा है। यह जीवनभर का सवाल है। आज मनुष्य जाति जहाँ चली जा रही है, आदमी का चिंतन जिस गहराई के गड्ढे में धँसता हुआ चला जा रहा है, ये ठीक वही परंपराएँ हैं, जो कि रावण के जमाने में आई थीं। इसमें वह मनुष्यों को मारक हड्डियों के ढेर लगा देता था। आज हड्डियों के ढेर तो नहीं लगाए जाते, पर हम हड्डियों के ढेर को चलते−फिरते आदमियों का रूप में देख सकते हैं। हड्डियाँ जो जिंदा तो हैं, पर जिनको चूस लिया गया है। मैं समझता हूँ कि प्राचीनकाल में ज्यादा भले आदमी थे और शरीफ आदमी थे। कौन से आदमी? वे जो मारकर डाल देते थे, उनको मैं ज्यादा पसंद करता हूँ, क्योंकि तब आदमी को मारकर खत्म कर देते थे, लेकिन आज का तरीका बहुत गंदा है। आज तो आप रुला−रुलाकर मारते हैं, कोंच–कोंचकर मारते हैं, तरसा−तरसाकर मारते हैं। ये गंदा तरीका है। रावण के जमाने में तब भी अच्छा तरीका था, सीधे खत्म कर देने का।

आज की विडंबना

मित्रो! आज हम क्या करते हैं? आज हम अपनी स्वार्थपरता के कारण हर एक को चूसते हैं। किसको चूसते हैं? जो कोई भी हमारे पास आता है, हम उसको चूस जाते हैं, उसे जिंदा नहीं छोड़ना चाहते, केवल उसकी हड्डियाँ रह जाती हैं। उदाहरण के लिए जैसे हमारी बीबी। हमने अपनी बीबी को चूस लिया है। अब वह सिर्फ हड्डी का ढाँचा मात्र है। कैसे हुआ? बेटे, जब वह अपने आप के घर से यहाँ आई थी, तो वह उम्मीद लेकर आई थी कि हमारा स्वास्थ्य अच्छा बनाया जाएगा। हमको पढ़ाया जाएगा, शिक्षित किया जाएगा और यह उम्मीद लेकर आई थी कि बाप हमको जितना स्नेह देता है, जितनी हमें सुविधा देगा। लेकिन हमने उसको चूस लिया। हर साल बच्चे पैदा किए। कामवासना−पूर्ति की वजह से हमने उसके पेट में से पाँच बच्चे निकाल दिए। पाँच बेटियाँ हो गई, अभी एक बेटा और होना चाहिए। अब वह बेचारी लाश रह गई है। बार−बार हमारे पास आती रहती है और कहती रहती है कि हमारे पेट में दरद होता है, कमर में दरद होता है और हमारे सिर में दरद होता है। मैं कहता हूँ कि बेटी तू जिंदा है, भगवान् को बहुत धन्यवाद दे कि ये पिशाच तुझे अभी तक जिंदा छोड़े हुए है। इसका बस चले तो तुझे खाकर तेरी जिंदगी खत्म कर दे, चाँडाल कहीं का। इसे तो अभी और बच्चे चाहिए।

मित्रों! उस बेचारी के पास न माँस है, न रक्त है शरीर में और न उसके पास जान है। उसके पास कुछ भी नहीं है। न जाने किस तरीके से साँस ले रही है और कैसे दिन बिता रही है। नहीं साहब! मेरा तो वंश चलना चाहिए। इस राक्षस का, दुष्ट का वंश चलना चाहिए? ये क्या है? ये बेटे, कसाईपन है। आज हर आदमी कसाई होता हुआ चला जा रहा है। आज हम देखते हैं कि न हमको अपनी बीबी के प्रति दया है, न अपने माँ−बाप के प्रति दया है, न अपने बच्चों के प्रति दया है। रोज बच्चे पैदा कर लेते हैं। इस बात की लिहाज−शर्म नहीं हैं कि आखिर इनको पढ़ाएगा कौन? शिक्षा के लिए पैसा कहाँ से आएगा? इनको खेलने के लिए रेल कहाँ से आएगी? हमको तो बस काम−वासना से प्यार है। हम तो चौरासी बच्चे पैदा करेंगे। आज आदमी चाँडाल होता हुआ चला जा रहा है।

मित्रो! आज हमें किसी के ऊपर दया नहीं है। हमारे पास कहीं भी धर्म नहीं है। हमारे पास कहीं भी ईसान नहीं है। आज आदमी इतना खुदगर्ज होता हुआ चला जा रहा है कि मुझको ये मालूम पड़ता है कि हमारी खुदगर्जी का पेट इतना बढ़ता हुआ चला जा रहा है कि इंसानों से हमारा गुजारा नहीं हो सकता। अब जो कोई भी सामने आएगा, हम उसको अपनी खुदगर्जी का शिकार बनाएँगे। किसको बनाएँगे? देवी−देवताओं में से जो भी हमारे चक्कर में फँसेगा, हम उसको खत्म करके रहेंगे। देवताओं के ईसान को खत्म करके उन्हें बेईमान बनाकर रहेंगे। संतोषी माता हमारे चक्कर में आ जाएँगी, तो उनको बदनाम करके रहेंगे। हम उन्हें दो बकरे, खिलाएँगे और ये कहेंगे कि हमको डकैती में फायदा करा हो। हम उसको बदनाम कराकर रहेंगे। हर एक को हम बदनाम कराएँगे। जो कोई भी हमारा गुरु होगा, हम उसको बदनाम कराकर रहेंगे। हम कहेंगे कि हमारा गुरु ऐसा है, जिसको न इंसाफ की जरूरत है, न उचित−अनुचित की जरूरत है। जो कोई भी हाथ जोड़ता है, जो कोई भी सवा रुपये देता है, उसी की मनोकामना पूरी कर देता है।

दुर्मतिजन्य दुर्गति से हुआ आदमी का अवमूल्यन

बेटे, हम कहाँ जा रहे हैं और न जाने क्या हो रहा है? हम जिस जमाने में रह रहे हैं, उसमें आदमी न जाने क्या होने जा रहा है? अगर आदमी इसी तरीके से बना रहा, तो उसका परिणाम क्या होगा? अभी जितनी ज्यादा मुसीबतें आई हैं, आगे उसे भी ज्यादा आएँगे। इससे तो अच्छा होता अगर युद्ध हो जाता और दुनिया खत्म हो जाती, लेकिन हमारी स्वार्थपरता जिंदा रही और आज हम पर हावी होती चली जा रही है। आदमी, जैसा निष्ठुर, जैसा नीच, जैसा स्वार्थी होता हुआ चला जा रहा है, अगर यही क्रम जारी रहा तो मैं आपसे कहे देता हूँ कि आदमी−आदमी को मार करके खाएगा। पकाकर खाएगा कि नहीं, मैं नहीं जानता, लेकिन आदमी−आदमी ने डरने लगेगा। अभी तक हमको भूत का डर लगता था, साँप का डर लगता था, चोरों का डर लगता था, लेकिन अब हमको मनुष्यों का डर लगेगा। इतना तो अभी ही हो गया है कि आदमी की कीमत उसके बिस्तर से कम हो गई है। आज आप बिस्तर लेकर धर्मशाला में आते हैं, तो धर्मशाला वाला कहता है, आइए साहब! कमरा खाली है, लेकिन अगर आपके पास बिस्तर नहीं है, अटैची नहीं है और आप एक थैला लेकर जाते हैं और कहते हैं कि साहब! धर्मशाला में ठहरने की जगह है कि नहीं? धर्मशाला वाला कहता है कि आपके साथ और कौन−कौन हैं। आपका सामान कहाँ है?

अरे भाई! गरमी के दिन हैं, सामान की क्या जरूरत है? अरे साहब! आजकल बड़ी भीड़ है। सारी जगह भरी हुई है। कहीं जगह नहीं है। आप ऐसा कीजिए, चौथे नंबर की धर्मशाला है, वहाँ चले जाइए। वहाँ जाते हैं, तो वह कहता है कि अरे साहब! आप अब आए हैं? आपसे पहले पच्चीस आदमियों को मना कर दिया है कि यहाँ जगह नहीं है। ऐसा क्यों होता है? क्यों मना करते हैं? यह आदमी का मूल्य, आदमी की प्रामाणिकता, आदमी की इज्जत को बताता है कि आदमी की कीमत से धर्मशाला के बिस्तर की कीमत ज्यादा है। आज आदमी का मूल्य इतना गिर गया है। कल आदमी और भी भयंकर होने वाला है।

मित्रो! आदमी जब कल और भयंकर हो जाएगा, तब वह भूत बन जाएगा, पिशाच बन जाएगा। तब आदमी को देखकर आदमी भागेगा और कहेगा, “आदमी आ गया’ चलो भागो यहाँ से। वह देखो आदमी खड़ा है।” कल यही परिस्थितियाँ पैदा होने वाली हैं। यह हमारे मन का घिनौनापन है। अभी हमारे ऊपर स्वार्थ छाया हुआ है। हम समाज के किसी काम में भाग लेना नहीं चाहते। हम समाज के लिए कोई सेवा करना चाहते हैं, तो पहले यह देखते हैं कि सेवा के बहाने हमारा उल्लू सीधा होगा कि नहीं होगा। हमारा उल्लू सीधा होता है, तो बेटे हम संस्था में जाते हैं, कमेटी में जाते हैं, प्रेसीडेंट बनते हैं, मीटिंग में जाते हैं, अगर उल्लू सीधा नहीं होता है, तो कहते हैं कि समाज के जीवन से हमारा कोई लगाव नहीं है, कोई संबंध नहीं है।

मित्रो! लोकहित के लिए हमारे मन खाली होते चल गए। उदारता हमारे मन में से निकलती चली जा रही है और निष्ठुरता हमारे मन में से निकलती चली जा रही है और निष्ठुरता हमारे रोम−रोम में घुसती चली जा रही है। परिणाम क्या होगा? आप देख लेना, इसका परिणाम बहुत भयंकर होगा। कलियुग के बारे में पुस्तकों में जो बताया गया है, उसको मैं सही मानता हूँ। आदमी का चिंतन जैसा और जितना घटिया होगा, मुसीबतें उसी हिसाब से आएँगी। आज भगवान की दी हुई मुसीबतें हमारे पास आती हुई चली जा रही हैं। बीमारियों हमारे पास बराबर बढ़ रही हैं। डॉक्टर बढ़ रहे हैं, अस्पताल बढ़ रहे हैं, लेकिन बीमारियों का दौर अभी और बढ़ेगा। डॉक्टर कितने बढ़ गए हैं, भगवान् करे डॉक्टर दोगुने−चौगुने हो जाएँ। लेकिन बीमारियों का क्या हो जाएगा? बीमारियाँ अच्छी नहीं हो सकतीं। बीमारियाँ सौ गुनी ज्यादा होंगी, हजार गुना ज्यादा होंगी। वे तब तक अच्छी नहीं हो सकतीं, जब तक आदमी आध्यात्मिकता के रास्ते पर लौटकर नहीं आएगा, तब तक आदमी का पिंड बीमारियों से नहीं छेटेगा और घर का नरक? बेटे घर का नरक भी दूर नहीं हो सकता।

(शेष अगले अंक में)


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