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बार बछड़ों को अलग ले जाकर अविश्वसनीय अमानुषिक तरीके अपनाकर भूखा मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। जानवरों की दूध देने वाली अवस्था समाप्त होने पर उनको फिर पैदल ही देहातीं इलाकों में पुनः गर्भधारण हेतु भेज दिया जाता है। वापस आने पर बछड़ों के लिए वही प्रक्रिया दुहराई जाती है। इस तरह के दमघोंटू वातावरण में प्रत्येक जानवर 5 या 6 ऋतु दूध दे पाते हैं, फिर उन्हें भी कसाई खाने भेज दिया जाता है। सर्वेक्षण के अनुसार प्रतिवर्ष 80,000 बछड़े एवं 40,000 गाय−भैंस इस तरह मौत के घाट उतार दिए जाते हैं।
गाय−भैंस के बच्चों को बिना लगाए ही शीघ्र व ज्यादा मात्रा में दूध उतारने के लिए उन्हें हारमोन के इंजेक्शन लगाए जाते हैं। इन हारमोन इंजेक्शनों में ‘ऑक्सीटोसिन’ या ‘पिट्यूटरी’ प्रमुख हैं। इनके इस्तेमाल से पशुओं के हारमोन्स तुरंत क्रियाशील हो जाते हैं तथा थनों में दूध जल्दी आता है। इंजेक्शन लगते रहने के कारण दूध में पशुओं के रक्त व हड्डियों के तत्त्व आने शुरू हो जाते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद घातक हैं। विशेषज्ञों के अनुसार इन इंजेक्शनों के प्रयोग से जो दूध प्राप्त होता है, उनके उपयोग से बच्चे विशेष रूप से बालिकाओं में हारमोन संबंधी असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। कम उम्र के बालक−बालिकाएँ असमय ही परिपक्व हो जाती है। यह दूध मनुष्य की प्रजनन क्षमता को भी प्रभावित करता है तथा इसके अधिक दिनों के प्रयोग से नपुँसक होने का खतरा रहता है।
इस इंजेक्शन के इस्तेमाल से पशुओं की गर्भधारण क्षमता कम हो जाती है तथा मृत बच्चे पैदा होने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। थनों में सूजन और संक्रमण की शिकायतें बढ़ जाती हैं। पाचनतंत्र से संबंधित रोग उत्पन्न हो जाते हैं तथा पशुओं के पैरों के जोड़ों और हड्डियों में विकृति आ जाती है। ‘ऑक्सीटोसिन’ कृत्रिम रूप से संश्लेषण द्वारा निर्मित किए जाने वाला एक ऐसे हारमोन का रासायनिक रूप है, जो प्राकृतिक रूप से मस्तिष्क स्थित पियूष ग्रंथियों द्वारा उत्सर्जित किया जाता है। इस इंजेक्शन का प्रयोग प्रसवोपराँत महिलाओं में दूध की मात्रा बढ़ाने के लिए किया जाता है। यह इंजेक्शन पशुओं की मांसपेशियों में दिया जाता है। शरीर द्वारा उत्सर्जित न हो पाने के कारण यह पशुओं की माँसपेशियों में जमा होता रहता है। इस तरह पशु−वध के बाद ऐसे पशुओं का माँस खाने वाले मनुष्यों में भी यह हामोर्निनिक तत्त्व प्रवेश कर जाता है।
ब्रिटेन में जब ‘मैडकाउ’ बीमारी का पता चला, तो पूरे यूरोप में तत्काल गौमांस प्रतिबंधित कर दिया गया। उपभोक्ता संगठन, मीडिया सभी एकजुट होकर उसके खिलाफ खड़े हो गए। यहाँ तक कि सरकार पर भी संकट के बादल घिर आए परंतु भारत में जहरीले दूध को लेकर अभी तक कोई विशेष कारगर कदम नहीं उठाए गए। मिलावटखोरी के चलते ही आज भारतीय डेयरी उत्पाद विश्व बाजार में आधी कीमतों पर बिक रहे हैं। जहाँ से प्रतिवर्ष कम−से−कम तीन सौ करोड़ रुपये का निर्यात किया जा सकता था, वहाँ से सिर्फ डेढ़ सौ करोड़ रुपये का ही निर्यात हो पा रहा है।
वस्तुतः इस स्थिति से उबरने के लिए सशक्त जनक्राँति की आवश्यकता है। प्रत्येक उपभोक्ता का जागरूक होना जरूरी है। गो−पालन की बहुआयामी महत्ता से जन−जन को परिचित कराया जाए। घरेलू गो−पालन को बढ़ावा देने के लिए सरका द्वारा और ज्यादा साधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए। ऐसे कानून बनाए जाने चाहिए, जो जन−स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने वालों को कड़ी−से−कड़ी सजा दें। नकली दूध का विष सामूहिक प्रयास से ही समाप्त हो सकता है।
सरकारी उच्च नौकरी पर बने रहते हुए भी बंकिम बाबू नेउन दिनों की परिस्थितियों को दृष्टिगत रख ‘आनंदमठ’ की रचना की। ‘वंदेमातरम्’ का जयघोष पहली बार इसी में किया गया। यह उपन्यास एक ऐसे देशभक्त संन्यासी दल की कथा, जिसने देश को गुलामी से मुक्त कराने हेतु गुप्त रूप से सैनिक तैयारी की व लड़ते−लड़ते अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। इस गाथा व वंदेमातरम् के नारे ने क्राँति की जो लहर देशभर में फैलाई, उसने अन्यायी−अनाचारी प्रशासन को झकझोरकर रख दिया। ऐसा साहस प्रखर प्रतिभाशाली ही कर सकते हैं।