राजा महेंद्रप्रताप के पास ज्योतिषी पहुँचे। कहा, “आपके भाग्य में पुत्र नहीं है, पर आप अमुक अनुष्ठान करेंगे तो अवश्य पुत्र होगा।” राजा साहब ने उन्हें तुरंत विदा करते हुए कहा, “आपको व्यर्थ मेरे जैसे व्यक्ति के पास आकर समय भी नष्ट करना पड़ा व तुरंत जाना भी पड़ रहा है। आप अपनी सलाह अपने पास रखें। मुझे अपना वंश चलाने के लिए जीवधारी रूपी बेटा नहीं चाहिए। जो राशि बेटे पर खरच होती, उसे मैं सत्प्रयोजनों में नियोजित करूंगा।
राजा साहब ने वृंदावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की। उसे ही अपना बेटा माना व लाखों की संपत्ति उसे दे गए। विरासत में उन्होंने लिखा कि मेरा वंश यह प्रेम महाविद्यालय ही आगे चलाएगा। समाज में ऐसे सत्प्रवृत्तियाँ चल पड़ें, तो मैं समझूँगा कि मेरा पुत्र सपूत निकला।
एक बार एक सेठ जी स्वयं महामना मालवीय जी के पास अपने यहाँ विवाह पर आयोजित विशाल भोज में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए पहुँचे। महामना जी ने उनके इस निमंत्रण को इन विनम्र किंतु मर्मस्पर्शी शब्दों में अस्वीकार कर दिया, “यह आपकी कृपा है, जो मुझ अकिंचन के पास आप स्वयं निमंत्रण देने पधारे, किंतु जब तक मेरे इस देश में, मेरे हजारों−लाखों भाई आधे पेट रहकर दिन काट रहे हों, तो मैं विविध व्यंजनों से परिपूर्ण बड़े−बड़े भोजों में कैसे सम्मिलित हो सकता हूँ। ये सुस्वादु पदार्थ मेरे गले कैसे उतर सकते हैं। क्या भोजन मात्र से ही यश मिलता है। यश अर्जन का आप कोई अच्छा तरीका नहीं सोच सकते?”
महामना जी की यह मर्मयुक्त बात सुन सेठ जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भोज में व्यय होने वाला सारा धन गरीबों के कल्याणार्थ दान दे दिया।