गुरु कथामृत−99 - वे पाती नहीं, प्राणचेतना का शक्तिप्रवाह संप्रेषित करते थे

February 2001

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

चाहे आधुनिक साइबर क्राँति हमें कहीं−से−कहीं पहुँचा दे, ई−मेल व ई−चैट आदि के माध्यम से संचार क्राँति की बात कही जा रही हो, अपनी भाषा में हाथ से लिखी चिट्ठी जो डाकिया लेकर आता है, की बात कुछ और ही है। ई−मेल में चाहे आप कितनी भाव−संवेदना उड़ेल दें, उसमें याँत्रिकता की गंध तो रहेगी ही। परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी ढेरों चिट्ठियों से अगणित परिजनों को इतना आत्मीय बना डाला कि वे उनके लिए सब कुछ करने को तैयार हुए। पत्रलेखन एक कला भी है एवं लेखन विधा में इस बड़ा ऊँचा स्थान प्राप्त है। जिस परमभाव में प्रवेश कर हमारी गुरुसत्ता पत्र लिखा करती थी एवं वह जब शिष्य के पास पहुँचता था, तो उसका आनंद वही जानता था। लोग चिट्ठी लिखकर प्रतीक्षा करते रहते, कभी देरी नहीं होती, समय पर व कभी−कभी भौगोलिक दृष्टि से असंभव प्रतीत होने वाले समय में भी चिट्ठियाँ आ जातीं। अपने प्रिय−आत्मीय परिजन की हर वैयक्तिक, पारिवारिक, साधनात्मक, सामाजिक उलझन−ऊहापोह में गुरुसत्ता की भागीदारी रहती थी। क्या पत्र लेखन की विधा भी एक संगठन खड़ा कर सकती है? यह प्रश्न जब भावी शोधकर्त्ताओं−अन्वेषकों के समक्ष आएगा, तो निश्चित ही वे पूज्यवर के पत्रों को उस कसौटी पर खरा पाएँगे।

हम इस स्तंभ में कई तरह के वैविध्यपूर्ण ढंग से परामर्शपरक अथवा दिव्य परोक्ष मार्गदर्शन देने वाले अथवा लौकिक मार्गदर्शन वाले पत्र देते रहे हैं। उद्देश्य यही है कि इन पत्रों द्वारा हम उस परामर्श को अपने लिए भी मानकर जीवन में उतारने का प्रयास करें। गुरुकथामृत पढ़कर ढेरों पाठकों ने हमें भी पत्र लिखे हैं व अपने जीवन में आमूल−चूल परिवर्तन की बात लिखी है। होगा क्यों नहीं? उस युगऋषि के एक−एक शब्द में प्राण जो छलकता है।

पत्रों के क्रम में हम सबसे पहले एक पत्र 23/2/43 का श्री मोहनराज भंडारी के नाम लिखा हुआ ले रहे हैं। ये सज्जन ब्यावर अजमेर के निवासी हैं एवं बड़े आत्मीय भाव से पूज्यवर को 41-42 से ही पत्र लिखते रहे हैं। कभी−कभी उलाहना होता कि आप हमें भूल तो नहीं गए। पत्र का जवाब, प्रत्येक का जल्दी न मिलने पर हैरान होना स्वाभाविक था। पत्र का जवाब दिया गया−

“देखो मोहन! यह वक्त किफायत का है। हर चीज महँगी हो जाने के कारण समय की माँग है कि हर बात में खरच कम किया जाए। मंगलचंद के पास अखबार जाता ही है, उसी को पढ़ लिया करो। जो पैसा बचे, उससे एक और अखबार मँगा लो, इस तरह तुम दोनों दो अखबार पढ़ लिया करोगे। इसी तरह जब मंगीचंद पत्र भेजा करें, उसी के साथ तुम भी अपना पत्र भेज दिया करो। इसी प्रकार एक ही लिफाफे में हम भी दोनों को उत्तर दे दिया करेंगे। क्यों ठीक है न! इसमें खरच भी कम पड़ेगा और काम भी निकल जाया करेगा।”

मित्रवत् परामर्श है। द्वितीय विश्वयुद्ध की महँगाई में किस तरह जीवनयापन करना चाहिए, यह व्यावहारिक मार्गदर्शन है। इसी पत्र के आरंभ में पूज्यवर ने लिखा था, “ऐसा कभी मत सोचा करो कि हम तुम्हें भूल गए हैं या किसी प्रकार स्नेह कम हो गया है। तुम हमें अपने छोटे भाई के बराबर प्रिय हो और आगे रहोगे।”

पेज 55

यह पत्र एक सिखावन है, एक लोकशिक्षण है। तब पूज्यवर की आयु रही होगी, यही लगभग 32 वर्ष की। ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका निकलते हुए तीन−चार वर्ष ही हुए थे। पत्रिका ने जितने सदस्य गायत्री परिवार के या उनके आत्मीयों के नहीं बनाए, उनसे अधिक प्रेमभाव से लिखे इन पत्रों ने बनाए हैं।

सारे राष्ट्र में 2001 को ‘नारी शक्ति जागरण वर्ष ‘घोषित किया गया है। परमपूज्य गुरुदेव के इस अभियान को सात आँदोलन में इस वर्ष हम और तीव्र गति दे रहे हैं,परंतु निम्न उद्धृत पत्र तो देखिए, जो पूज्यवर ने धामपुर (बिजनौर) की काँती देवी त्यागी को 22-12-56 को लिखा था। पत्र की भाषा पढ़कर आपको लगेगा कि कौन−सा क्राँतिकारी उनके अंदर से जन्म ले रहा था। वे लिखते हैं−

“शाखा बनाने में तुम्हारा प्रभाव अवश्य ही सफल होगा। सड़े−गले विचार के कूपमंडूक दंडी मुँडी ईश्वरीय संदेश तथा सनातन तत्त्वज्ञान को रोक नहीं सकते। ऐसे लोगों का मुँह बंद करने में तुम्हारी जैसी एक ही प्रतिभाशाली महिला काफी है। सैद्धाँतिक धर्मचर्चा में तो ऐसे लोग सदा मुँह की खाते हैं। इनके प्रभाव में पड़कर अपने महिला समाज को विचलित नहीं होने देना चाहिए।”

पत्र की भाषा देखने योग्य है। 1956 का समय कैसा था, सभी जानते है। गायत्री मंत्र नारी नहीं जप सकती, न अग्निहोत्र कर सकती हैं, ऐसा वातावरण चारों ओर छाया था। ऐसे में पूज्यवर अपनी शिष्या को शक्ति देते हैं, बल देते हैं व कहते हैं कि तुम अकेली ही आगे बढ़कर ‘महिला समाज’ को गति दो।

आध्यात्मिक दृष्टि से वे समय−समय पर मार्गदर्शन देते रहते थे, उच्च विकसित कक्षा में पहुँच गई शिष्याओं को। उनमें से एक थीं अंजार (कच्छ) की केशर बहन। इनके कतिपय पत्र हम पहले भी इस स्तंभ में दे चुके हैं। यह पत्र 27-3-1967 का है। वे लिखते हैं−

“तुम्हारी आत्मा दिन−दिन ऊँची उठ रही है, इसका हमें बड़ा संतोष तथा हर्ष है। गृहस्थ में रहकर तुम संत−महात्माओं की सी तपश्चर्या कर रही हो। ऐसा साहस कोई विरले ही कर पाते हैं। तुम्हारे पुण्य से तुम्हारा सारा परिवार फलेगा−फूलेगा। तुम्हारा कल्याण होना तो निश्चित है।”

निश्चित ही इस साधिका ने बहुत प्रगति की। कइयों की प्रेरणा स्रोत बनीं व अंत में उनकी ज्योति अपनी गुरुसत्ता के साथ ही एकाकार हो गई। इस प्रकार अनेक साधिकाओं, जाग्रत् नारियों को लिखे उनके पत्रों ने न केवल उनका सतत मार्गदर्शन किया, उनके समग्र विकास में भी उनका योगदान बड़ा भारी रहा। कभी−कभी अलौकिक रूप लेकर भी पाती पहुँच जाती थी। बरेली निवासी सुश्री कमल भटनागर को एक ऐसा ही पत्र 19/8/5/ का लिखा प्राप्त हुआ।

“चि. अतुल की माताजी को साँत्वना तथा शिक्षा देने के लिए हमारी ही आत्मा गई थी। वह स्वप्न नहीं, योग निद्रा थी। ऐसी स्थिति में हम अपने आत्मीय जनों को शिक्षा एवं साँत्वना देने जाया करते हैं।”

पत्र का संकेत समझने का प्रयास करें। चि. अतुल की माताजी को स्वप्न में पूज्यवर दिखे होंगे। वे आशंकित रही होंगी, गुरुसत्ता के दर्शनों से उन्हें साँत्वना मिली, पर पत्र भी दिख दिया तो जवाब आ गया कि उनका ही सूक्ष्मशरीर उन्हें योग निद्रा के माध्यम से शक्ति देने गया था। ऐसे परोक्ष संकेत देने वाले ढेरों पत्र हमारे संकलन में हैं।

किसी भी संगठन को सींचते हैं उसके संस्थापक के प्रति श्रद्धाभरे समर्पण के पत्र−पुष्प−जल। पूज्यवर ने एक निराली परंपरा डाली कि हमें बड़े धन्ना सेठों की नहीं भावनाशीलों के अंशदान की जरूरत है। ढेरों व्यक्तियों ने अपना अंशदान समर्पित कर भाव−श्रद्धाँजलियों से गायत्री परिवार का विराट् परिकर, पाँचों केंद्रीय संस्थान तथा साढ़े पाँच हजार छोटे−बड़े शक्तिपीठ खड़े किए हैं। ऐसे भी व्यक्ति अपवाद रूप में होते थे, जिनकी सामर्थ्य अधिक थी। कुछ अधिक करने की ताकत भी थी तथा इच्छा भी रखते थे। उनके समर्पण को भी पूज्यवर ने स्वीकार किया। गायत्री परिवार के एक आधारस्तंभ पूज्यवर के अनन्य शिष्य जबलपुर वासी री दानाभाई उन्हीं में से एक हैं। उन्हीं को लिखा एक पत्र यहाँ उद्धृत है।

“हमारे आत्मस्वरूप, 1-5-67

आपका पत्र और चैक मिला। आपकी श्रद्धा अनुपम है। राणाप्रताप के मिशन को भामाशाह ने और गाँधी जी के मिशन को जमनालाल बजाज ने सींचा था। यदि यह सहयोग न मिलता, तो दोनों उतना काम न कर पाते, जो उन्होंने किया। युग निर्माण मिशन का इतिहास लिखा जाएगा, तो उसमें आपकी श्रद्धा और अनुपम त्याग की पग−पग पर चर्चा होगी।”

श्री दानाभाई ने युग निर्माण विद्यालय गायत्री तपोभूमि मथुरा के छात्रावास का निर्माण भी कराया था व सारा खरच भी वहन किया था। इस सारे प्रयास की प्रशस्ति की बात लिखते हुए पूज्यवर अपने भाव इस प्रकार व्यक्त करते हैं−

“आपकी श्रद्धा ही गायत्री तपोभूमि की सुगंधित वाटिका बनकर संसार में शाँति और धर्म−ज्ञान का, कल्याण का अनुदान बिखेरेगी।”

जिस गुरुसत्ता ने जीवनभर औरों को बाँआ−ही−बाँटा, किसी का कुछ उधार अपने पर न रखा, उसके मन में एक ही वेदान थी कि उनके द्वारा आरंभ किया हुआ कार्य आगे हजारों वर्ष तक चलता रहे। ऐसे प्राणवानों में उनने प्राण फूँके एवं उन्हीं के भावभरे समर्पण का चमत्कार है कि मोती की लड़ियों के बने हार की तरह एक गायत्री परिवार आज सक्रिय−जीवंत एवं दिन−प्रतिदिन और बढ़ता दिखाई देता है। श्री दानाभाई अपनी पत्नी लक्ष्मी बेन के देहावसान के बाद डेढ़ वर्ष पूर्व ब्रह्मकालीन हो गए, पर उनका नाम युग निर्माण के इतिहास में अमर हो गया। यही तो वह निधि है,

जिसके बलबूते हम उनके नन्हें−नन्हें अनगढ़ से अनुचर देवसंस्कृति विश्वविद्यालय जैसे विराट् निर्माण की बात उनकी ही सूक्ष्म−कारण शक्ति के बल पर कह देते हैं। लगभग डेढ़ सौ करोड़ की लागत का निर्माण कैसे होगा, यह लौकिक स्तर पर नहीं, परोक्ष के स्तर पर सक्रिय सत्ता पर आरोपित कर सोचा जाए, तो कुछ भी असंभव नहीं। पत्रों की यह पुष्पमाला गुरुसत्ता के लीला−संदोह का वर्णन इसी तरह करती रहेगी। जन−जन को उनके उस स्वरूप का बोध कराती रहेगी, जिसने वर्तमान वट−वृक्ष का बीज बोया, सींचा व इतना बड़ा करके दिखाया।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118