युग की माँग: सक्षम प्रतिभाएँ

February 2001

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आज हम 21वीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं, 20वीं सदी कल की विषयवस्तु बन गई है। 20वीं सदी परिवर्तन की सदी रही। इसके तूफानी प्रवाह में वैज्ञानिकों से लेकर मनीषी एवं भविष्यविदों ने नए युग की झलक देखी, जिसका सूक्ष्म दर्शन विश्वपटल पर तीव्रतम गति से बदलते परिदृश्यों को देखकर किया जा सकता है। इसके अंतर्गत पुराने तौर−तरीके पिछड़ते जा रहे हैं, जो कल काम करते थे, वे आज काम नहीं कर रहे हैं। इस क्रम में सफल जीवन एवं नेतृत्व के तौर−तरीकों में भी नवीन निर्धारण अपेक्षित है और युग−मनीक्षा गहन विचार−मंथन करती हुई, इस विषय में अपने निष्कर्ष भी प्रस्तुत कर रही है।

उभर रहे सामाजिक परिदृश्य के संदर्भ में प्रख्यात विचारक एल्विन टॉफलर ने अपनी पुस्तक ‘पॉवर शिफ्ट’ में अपनी भविष्यवाणी व्यक्त करते हुए कहा था, “भावी समाज में प्रत्येक स्तर पर नवीन शक्ति ढाँचे का आधार भूत तत्त्व ‘ज्ञान’ होगा। आर्थिक उत्पादन का प्राथमिक स्रोत ज्ञान ही होगा और यह नया शक्ति संघर्ष हमारे मन और व्यक्ति के जीवन की गहराई में प्रवेश करने जा रहा है।”

अमेरिकी मनीषी डेविस ह्विटले अपनी पुस्तक ‘एम्पायरज ऑफ द माइंड’ में इसी आधार पर कहते हैं कि 21वीं सदी में एकमात्र साम्राज्य मन का होगा। इट−गारे, बुर्ज−कंगूरे, मेहराबों द्वारा बना साम्राज्य कल की वस्तु होगा। अर्थात् बाहरी सफलता एवं नेतृत्व का निर्धारक तत्त्व वैयक्तिक नेतृत्व होगा, हो सफलता ही नहीं, अस्तित्व रक्षा के लिए भी आवश्यक होगा और इसके लिए हमें जीवनपर्यंत विद्यार्थी एवं नेता बनना होगा, अन्यथा नए विश्व में अज्ञान एवं पिछड़ापन पूर्व से भी अधिक पीड़ादायक एवं घुटन भरा होगा। अतः प्रगति में बाधक दीर्घकालीन पूर्वाग्रहों एवं धारणाओं को बदलने व चुनौती देने का समय आ गया है। मन के साम्राज्य का मार्ग प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं कि यह बाहरी ज्ञान की बजाय अंदर के अपने ज्ञान द्वारा खुलेगा।

लेखक के अनुसार, प्रभावी स्व नेतृत्व के लिए सर्वप्रथम अपने गुणों, क्षमताओं, रुचियों, शक्तियों, दुर्बलताओं और योग्यताओं का ज्ञान होना आवश्यक है। तभी हम जीवन के महत्त्वपूर्ण निर्णयों को प्रभावी ढंग से ले सकते हैं, अन्यथा अपने सही−सही ज्ञान के अभाव में जीवन के अधिकाँश निर्णय अपनी अभिरुचि एवं प्रकृति के विपरीत बाहरी प्रभावों एवं दबावों द्वारा निर्धारित देखे जाते हैं, जो असंतोषजनक जीवन का निर्माण करते हैं। इन कारकों में सर्वप्रथम धन का लोभ होता है। धन के बाद दूसरा प्रभाव अनगढ़ सलाहें होती हैं, जो अच्छे भाव से कही होने के बावजूद भी अपने परिणाम में बेहूदी होती हैं। तीसरा प्रभाव पारिवारिक एवं सामाजिक दबाव होता है। चौथा व्यवसाय मार्केट का सर्वेक्षण होता है, जो प्रायः गहन तथ्यों की बजाय उथले तथ्यों पर आधारित होता है। पाँचवाँ कारक, सब कुछ भाग्य के भरोसे छोड़ देना होता है, परिणामस्वरूप अधिकाँश व्यक्ति एक विचित्र जड़ता भरा रूखापन लिए अपने कार्य एवं व्यवसाय में पड़े रहते हैं और प्रायः भयंकर परिणामों के साथ जीते हैं। इनसे बचने के लिए अपना गहन अध्ययन, निरीक्षण एवं अन्वेषण आवश्यक है। आप क्या करना चाहते हैं? कहाँ जाना चाहते हैं? इन प्रश्नों का जवाब जहाँ मिलना शुरू हो जाए समझना चाहिए कि मन के साम्राज्य का आधा मार्ग तय हो गया।

आत्मज्ञान के अनुपात में ही व्यक्ति में सच्चे आत्म−सम्मान का भाव जाग्रत् होता है, जो कि रचनात्मक उत्प्रेरणाओं, व्यवहार एवं कार्यों को जन्म देता है। इसके समुचित अभाव में व्यक्ति अपने प्रति हीनता के भाव से ग्रस्त होता है या दंभ से भरा होता है, जो परिणाम में सृजन की बजाय ध्वंस को ही बुलावा देते हैं। स्वस्थ आत्मगौरव का भाव अपने मूल्य व महत्त्व की उचित समझ देता है और अपने व दूसरों के प्रति जिम्मेदारी भरे व्यवहार को प्रेरित एवं प्रोत्साहित करता है।

लेखक ने आत्मसम्मान के मूल्याँकन के लिए चार प्रश्न कसौटी रूप में दिए हैं, 1-क्या हम अपना सम्मान करते हैँ? 2-वर्तमान में जो हम हैं या जो बनना चाहते हैं, क्या उसे संतुष्ट हैं? 3-क्या हम वह कर रहे हैं, जो बनने चाहते हैं? क्या हम वहाँ जा रहे हैं, जहाँ हम जाना चाहते हैं? 4-क्या हम अपने जीवन के स्वामी आप अनुभव करते हैं अर्थात् जो कर सकते थे, उसे सफलतापूर्वक करने की क्षमता व रूप में अपना मूल्याँकन कर सकते हैं। यदि उत्तर न में हो तो इस संदर्भ में विशेष ध्यान देने की जरूरत है।

आत्मज्ञान द्वारा आँतरिक उत्प्रेरणा पर आधारित प्रयास से ही चरम उत्पादकता एवं उपलब्धि सुनिश्चित होती है। अपने क्षेत्रों में सफल व्यक्तियों के उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि सफलता एवं स्वतंत्रता का आँतरिक उत्प्रेरक धन, सत्ता या नाम, यश की इच्छों के बाह्य उत्प्रेरक से अधिक सशक्त होता है। बाह्य प्रेरित व्यक्ति की क्षमता, बाह्य कारक के हटते ही तुरंत घटनी शुरू हो जाती है।

बाह्य प्रेरित लक्ष्य में प्रतिद्वंद्विता का खतरा सदैव बना रहता है। यह सत्ता और प्रभुत्व की इच्छा, दूसरों को नीचा दिखाने की इच्छा से प्रेरित होती है। ऐसे में ध्यान दूसरों में बँट जाता है। अतः हम अंतःप्रेरित की बजाय बाह्य प्रेरित इंसान बन जाते हैं। संबंध हार−जीत पर आधारित हो जाते हैं, जबकि जीत−जीत (विन−विन) संबंध अपेक्षित है। जिसके अंतर्गत लेखक के अनुसार हमें सहकर्मी, ग्राहक, पड़ोसी और प्रियजनों की जीतने में वह आगे बढ़ने में मदद करके शुभ इच्छा का संपादन करना चाहिए।

इसके लिए हमें बचपन एवं युवावस्था के एकाँगी एवं संकीर्ण भाव से ऊपर उठकर प्रौढ़ता एवं नेतृत्व के उदार भाव को ग्रहण करना चाहिए। बचपन में प्रधान प्रश्न रहता है, “आप मेरे लिए क्या कर सकते हैं? युवावस्था में, “मैं अकेले करना चाहता हूँ” यह भाव हावी रहता है। प्रौढ़ भाव “आओ साथ करें” का रहता है, जबकि नेता का प्रश्न होता है, “मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ?”

लेखक के अनुसार उदारता की इस उच्च भूमि के लिए अपनी सत्ता व अर्जित उपलब्धि की स्थिति को देना व बाँटना बहुत कठिन होता है, क्योंकि यह हमारी प्रकृति का अभिन्न अंग प्रतीत होता है, किंतु अपने दीर्घकालीन हित एवं समाज की भलाई में यही स्वस्थ प्रक्रिया है व इसे आत्मानुशासन द्वारा स्वाभाविक बनाया जा सकता है। एम, स्काँट अपनी पुस्तक ‘द रोड लेस ट्रेवल्ड’ में इस संदर्भ में ठीक ही लिखते हैं, “मेरी यह पक्की धारणा है कि मनुष्य के रूप में, विशेष रूप से प्रौढ़ मनुष्य के रूप में जो हमारे अंतर एवं व्यक्तित्व को सबसे अधिक प्रकाशित कर सकता है, वह है अस्वाभाविक बनने की हमारी क्षमता अर्थात् अपनी प्रकृति का अतिक्रमण कर इसे रूपांतरित करने की क्षमता।” वस्तुतः यह आध्यात्मिक जीवन शैली को अपनाने का चुनौती भरा आह्वान है।

लेखक के अनुसार, वैयक्तिक नेतृत्व एवं सुप्रबंध का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व व्यक्ति की ‘इंटेग्रिटी’ है। ईमानदारी, सत्यनिष्ठा एवं चरित्रनिष्ठा इसी के पर्यायवाची हैं। इसका मर्म जीवन की हर परिस्थितियों में जीवन के उच्चतम मानदंडों के अनुरूप अपने को खरा उतारने की तत्परता एवं निष्ठा में निहित है। इसके लिए राजनायिका एवं उथले मन से किए गए निर्णय पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए प्रचलित ढर्रे एवं अनगढ़ आदतों को दरकिनार एवं दुरुस्त करते हुए वही करना होगा, जिसे कि अंतरात्मा सही मानती है। इसकी आवश्यकता केवल बड़े निर्णयों भर में अपेक्षित नहीं है, बल्कि छोटे−से−छोटा निर्णय एवं कार्य इससे प्रभावित होना चाहिए। यह कभी छोटी−बड़ी नहीं होती। जैसे स्त्री या तो गर्भवती होती है या नहीं होती। वैसे ही यह कभी आँशिक नहीं होती। नेतृत्व का जहाँ यह सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है वहीं यह आपसी संबंधों का भी कीमिया है। क्योंकि प्रामाणिकता एवं चरित्रनिष्ठा के आधार पर ही उस विश्वसनीय का जन्म होता है, जो कि संबंधों को मधुर एवं टिकाऊ बनाती है। बच्चों एवं नई पीढ़ी के लिए यह सबसे बड़ा तोहफा हो सकता है, जिससे कि प्रतिपादित आदर्श उनके लिए अनुकरण योग्य एक जीवंत उदाहरण बन जाए।

‘इंटेग्रिटी’ जहाँ आँतरिक प्राणतत्त्व द्वारा पोषित होती है, वहीं यह व्यक्तित्व को भी सुदृढ़ करती है। इसके आधार पर ही उस जिम्मेदार व्यक्तित्व का विकास होता है, जिसे परिभाषित करते हुए स्टीफन काँवे अपनी प्रख्यात पुस्तक ‘सेवेन हेविट्स ऑफ द हाइली इफेक्टिव पर्सन’ में लिखते हैं, “सफल व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी को समझते हैं वह यह थोपी हुई नहीं होती, बल्कि अंतः स्फूर्त होती है। वे अपने व्यवहार के लिए परिस्थितियों, वातावरण या व्यक्तियों को दोष नहीं देते। उनका व्यवहार मूल्यों पर आधारित अपने स्वतंत्र एवं सचेतन निर्णयों द्वारा निर्धाथ्रत होता है।”

लेखक के अनुसार, सचाई यह है कि यदि हमारे अंदर मूल्य का कोई स्पष्ट एवं सुदृढ़ भाव नहीं है, तो हमारे पास बाँटने के लिए भी कुछ नहीं होता, ऐसे में हमें दूसरों की जरूरत हो सकती है, हम उन पर निर्भर हो सकते हैं, सुरक्षा की खोज कर सकते हैं, किंतु हम किसी को भाव दे या बाँट नहीं सकते, जब तक कि वे हमारे अंदर नहीं होते। वह हीरा हमारे अंदर हर व्यक्ति में विद्यमान रहता है, जो प्रतीक्षा में होता है कि उसे खोजा जाए व उसे तराशा जाए और यह हर व्यक्ति का परम कर्त्तव्य है।

यहाँ वैयक्तिक नेतृत्व के संदर्भ में असफलता एवं हताशा का अवरोध एक महत्त्वपूर्ण कारक है। लेखक के अनुसार परिवर्तन इस संसार में स्वाभाविक है और इससे निपटने के लिए दृष्टि की समग्रता अभीष्ट है। इसी के बल पर भूत के अनुभव रचनात्मक निवेश में बदलते हैं और इच्छित भविष्य रचनात्मक निवेश में बदलते हैं और इच्छित भविष्य के दर्शन होते हैं। ह्विटले समग्र दृष्टि के तीन तत्त्वों का उल्लेख इस तरह से करते हैं, 1- असफलता से सीखने का अनुभव, जिससे कि इसे दुबारा न दुहराया जाए, 2-भूतकालीन सफलताओं से नए खतरों के लिए विश्वास का अर्जन, 3-भावी सफलताओं के अज्ञात होने के बावजूद उनकी वास्तविकता पर सुदृढ़ विश्वास।

वैयक्तिक नेतृत्व को युग की महती आवश्यकता बताते हुए व इसके राजमार्ग पर प्रकाश डालते हुए डेविसह्विटले लिखते हैं कि भाव नेतृत्व वैयक्तिक दृष्टि से सफल व्यक्तियों द्वारा ही संभव होगा। लेखक के अनुसार, व्यवहार एवं क्रियाएँ व्यक्ति की वाणी की अपेक्षा अधिक जोर से बोलती हैं। बिना प्रतिबद्धता के शब्द अपना मूल्य खो बैठते हैं। बिना क्रिया के द्वारा पोषित शब्द अंततः निराशा और कटुता को जन्म देते हैं। जैसे−जैसे हम 21वीं सदी की ओर जा रहे हैं, यह चुनौती बढ़ती जा रही है। अब प्रवचन मात्र से पहले की तरह पेट भरने वाला नहीं है, क्योंकि लोगों के दिल−दिमाग कोरे उपदेश सुनते−सुनते वैसे ही रीते और प्यासे हैं। नए युग में अधिक−से−अधिक लोग अपना निर्णय वास्तविक वैयक्तिक आचरण एवं व्यवहार की कसौटी पर कसकर करेंगे और कम−से−कम लोग वाक् जाल में फँसेंगे।

हमारा जीवन प्रेरणादायी बने, अपनी सार्थकता के साथ फलीभूत हो, इसके लिए अपने अंदर की श्रेष्ठतम क्षमता एवं प्रतिभा उभरकर आनी ही चाहिए। दूसरों का सम्मान पाने के लिए हमें प्रथम इसके काबिल बनना होगा, हमें प्रामाणिक बनना होगा। अनुकरण योग्य एक आदर्श मॉडल बनने के लिए हमें प्रथम एक सकारात्मक उदाहरण प्रस्तुत करना होगा, अर्थात् दूसरों का नेतृत्व करने से पूर्व हमें स्वयं का नेतृत्व करना होगा।

अपने मन के साम्राज्य के संचालन की सफलता ही अगले दिनों सभी के सफल जीवन एवं सक्षम नेतृत्व का एक मात्र ठोस आधार बनेगी।

अश्वघोष को वैराग्य हो गया। संसार से विरक्त होकर उन्होंने घर−परिवार त्याग दिया तथा ईश्वर दर्शन की अभिलाषा से वह जहाँ−तहाँ भटके, पर शाँति न मिली। कई दिन से अन्न के दर्शन न होने से क्षुधार्त और थके हुए अश्वघोष एक खलिहान के पास पहुँचे। एक किसान शाँति व प्रसन्नमुद्रा में अपने काम में लगा था। उसे देखकर अश्वघोष ने पूछा, “मित्र! आपकी प्रसन्नता का रहस्य क्या है?”

“ईश्वर दर्शन”−उसने संक्षिप्त उत्तर दिया। “मुझे भी उस परमात्मा के दर्शन कराइए।” विनीत भाव से अश्वघोष ने याचना की। “अच्छा” कहकर किसान ने थोड़े चावल निकाले। उन्हें पकाया। दो भाग किए, एक स्वयं अपने लिए, दूसरा अश्वघोष के लिए। दोनों ने चावल खाए, किसान खाकर अपने काम में लग गया। कई दिन का थका होने के कारण अश्वघोष सो गया। प्रचंड भूख में भोजन और कई दिन में श्रम के कारण गहरी नींद आ गई और जब वह सोकर उठा, तो उस दिन जैसी शाँति वह हल्का−फुल्का उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था। किसान का दिया संदेश अब उन्हें अच्छी तरह समझ में आ गया। क्षणिक वैराग्य मिटा और उन्होंने अनुभव किया कि अनासक्त कर्म ही वह सीढ़ी है, जिस पर चढ़कर ईश्वर साक्षात्कार का पथ प्रशस्त हो सकता है, कर्म से पलायन नहीं।

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