यम−नियम−6 (शौच) - पवित्रता से अर्जित होती है पत्रिता

February 2001

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शरीर, वस्त्र और दैनिक उपयोग की वस्तुओं को स्वच्छ रखना।

सुबह उठते ही पृथ्वी माता को प्रणाम और भगवान का स्मरण करना। रात को सोने से पहले भी ईश्वर का स्मरण और दिनभर के कार्यों की समीक्षा करना।

जो भी काम करें, उसे भगवान् की आराधना समझना।

आत्मविकास या परम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पतंजलि ने जिन गुणों को आधार बताया है, उनमें शौच का स्थान छठा है। आठ अंगों के हिसाब से देखें, तो नियमों के क्रम में यह प्रथम आता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि पाँच व्रत यम की श्रेणी में आते हैं। यम अर्थात् विधान और नियम अर्थात् अनुशासन। विधान अंतरंग पक्ष का द्योतक है। वह आस्था से शुरू होता है और आचार्य विनोबा भावे के अनुसार आचरण को सँभालता है। नियम का आरंभ आचरण से शुरू है और अंतरंग तक जाता है। घड़ा बनाते समय चाक पर रखी गीली मिट्टी को बाहर से थपकी देते हैं और भीतर से विस्तार के लिए दबाव बनाते हैं। बाहर और भीतर दोनों तरफ से सहेजने पर कुँभ आकार लेता है। यम और नियम के अभ्यास से साधक की पात्रता भी उसी तरह आकार लेने लगती है।

शौच का सामान्य अर्थ शुद्धि किया जाता है। टीकाकारों ने बाहर और भीतर की अर्थात् शरीर और मन की शुद्धि के रूप में अर्थ को विस्तार दिया है। शरीर की शुद्धि स्नान, प्रक्षालन और साफ−सुथरे वस्त्र पहनने से समझी जाती है। मन की शुद्धि का अर्थ है, राग−द्वेष आदि विकारों का नहीं होना। इन अर्थों से शौच की परिभाषा तो हो जाती है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं होता कि उनका पालन किस तरह किया जाए। शुचिता का अर्थ शरीर और मन के मैल की सफाई तो है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं होता कि यह कैसे किया जाए।

स्नान करने, समय−समय पर हाथ−पाँव−मुँह धोते रहने, पंचाँग शुद्धि का निर्वाह करने से शौच व्रत सधने लगता है। किंतु इतना ही काफी नहीं हैं। स्नान आदि से स्वच्छता की आवश्यकता पूरी होती है, लेकिन शौच व्रत का अर्थ स्वच्छता ही नहीं है। वह शुचिता का एक छोटा−सा हिस्सा है। बहुत संभव है कि नहा−धो लेने और सज−सँवर जाने के बावजूद व्यक्ति शुचिता की कसौटी पर खरा नहीं उतरे। श्रृंगार प्रसाधनों का कलात्मक उपयोग कर लेने पर भी व्यक्तित्व से कुटिलता के भाव टपकते रहें। रहन−सहन में सुरुचि−संपन्नता दिखाई देने पर भी चित्त में अशाँति, आवेग, लिप्सा, विषाद आदि विकार छाए रहते हैं। उनके कारण आत्मिक प्रगति की दिशा में निरंतर अवरोध उत्पन्न होते रहते हैं।

शौच व्रत स्वच्छता की तुलना में पवित्रता के अर्थ में ज्यादा ध्वनित होता है। पवित्रता एक भाव है, जो सध जाए, तो मन को प्रसाद से भर देता है। स्वच्छता इसके काय−कलेवर की तरह है। पवित्रता एक भाव है, जो सध जाए, तो मन को प्रसाद से भर देता है। स्वच्छता इसके काय−कलेवर की तरह है। पवित्रता का बोध न होता स्वच्छता एक भावहीन स्थिति है। यह अपने आप को कोई आत्मिक पात्रता विकसित नहीं करती। वह बोध होने पर लोग कुँभ, ग्रहण, अमावस, पूर्णिमा और दूसरे स्नान पर्वों पर हजारों लोगों के साथ गंगा में नहाने पर भी अहोभाव से भर देता है। हजारों लोगों के एक साथ स्नान करने पर वह जल स्थूल दृष्टि से दूषित हो जाता है, लेकिन श्रद्धा से स्नान करने गए लोगों के मन में शुचिता का भाव भर देता है।

आशय यह नहीं है कि स्वच्छता का कोई महत्त्व नहीं है। स्वस्थ रहने के लिए उन उपायों की निताँत आवश्यकता है। कहा इतना भर जा रहा है कि स्वच्छता की दृष्टि से किए गए उपचार भाव के साथ संपन्न किए जाएँ, तो शुचिता को सिद्ध करते हैं। जिन दिनों कीटाणुनाशक और त्वचा को कोमल−स्वस्थ−निरोग रखने वाले औषधीय साबुन नहीं बनते थे, उन दिनों लोग जल और मृत्तिका आदि से ही स्नान कर लेते थे। पाँच−सात दिन में एकाध−बार साबुन लगाने वाले लोग आज भी लाखों की संख्या में होंगे। वे किसी अभाव या अज्ञान के चलते ऐसा नहीं करते, बल्कि अपने विवेक से पानी और मिट्टी आदि उपयोग में लाते हैं। सिर्फ इसलिए कि इनका उपयोग उनके पवित्रता−बोध को गहन बनाता है। अभ्यास या संस्कार के कारण उन्हें ऐसा लगता है कि साबुन आदि साधनों का उपयोग किया गया, तो शुचिता का बोध आहत होगा, क्योंकि इन वस्तुओं में रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है।

कृत्रिम साधनों को तिलाँजलि देने के आदर्श को पूरी तरह नहीं अपनाया जा सकता। कम−से−कम आज की भाग−दौड़ वाली शहरी जिंदगी में यह सुझाव नहीं दिया जा सकता। जिन दिनों प्रकृति पूरी तरह स्वच्छ और निर्दोष थी, उन दिनों मिट्टी−राख आदि के उपयोग से आरोग्य और स्फूर्ति देने वाली स्वच्छता आ सकती थी। आज चारों ओर प्रदूषण फैल हुआ है, इसलिए सहज उपलब्ध साधनों पर ही निर्भर रहने में समझदारी है। पवित्रता किसी कृत्य से नहीं, भाव से संबंध रखती है। शरीर, वस्त्र और दैनिक उपयोग की वस्तुओं को स्वच्छ रखने के साथ प्रत्येक काम को भगवान् की आराधना समझते हुए करने का अभ्यास इस आवश्यकता को पूरी करता है।

पवित्रता का अभ्यास प्रतीक के तौर पर सुबह उठते ही पृथ्वी माता को प्रणाम से आरंभ किया जाता है। पृथ्वी को प्रणाम के लिए एक विशिष्ट श्लोक का पाठ भी किया जाता है। उसमें पृथ्वी को माँ मानकर संबोधित किया गया है। माँ को पाँव से स्पर्श करना अपराध है। साधक कहता है कि माँ आप पर पाँव रखना अपराध है, लेकिन मुझे क्षमा करो, क्योंकि ऐसा नहीं किया गया तो जीवन नहीं चल पाएगा।

स्थूल दृष्टि से यह क्षमा−प्रार्थना निरर्थक है। नहीं करें तो कुछ बिगड़ नहीं जाता। पाँव से छूने पर पृथ्वी आहत नहीं हो रही और क्षमा नहीं माँगें, तो वह कोई दंड नहीं दे रही। लेकिन चित्त में आह्लाद भरने के लिए भावपूर्वक की गई इस प्रार्थना का बहुत महत्त्व है। पृथ्वी को जीवंत प्रतिमा मानने और क्षमा माँगते हुए जिस संवेदना से दिनचर्या शुरू होती है, वह पूरे दिन को धन्य बनाती है। संवेदना को लगा लिया जाए, तो प्रत्येक कृत्य के साथ संवेदना का अभ्यास दिनोंदिन बढ़ाया जाना चाहिए। वह पृथ्वी के प्रति ही नहीं, जिस किसी भी क्षण, जिन किन्हीं भी लोगों और वस्तुओं के संपर्क में आते हैं, उन सबके लिए एक पुनीत रखना चाहिए। सजग रहें कि चित्त में संवेदना जागी रहे। किसी के प्रति द्वेष का भाव नहीं आए।

शुचिता की सिद्धि के लिए सुबह पृथ्वी माता को प्रणाम भाव ईश्वर के स्मरण से जो प्रयोजन पूरा होता है, वही उद्देश्य रात को सोने से पहले के स्मरण से पूरा होता है। उस समय दिनभर के कार्यों की समीक्षा की जानी चाहिए। स्मरण साधक की चेतना को एक स्तर पर पहुँचाता है। समीक्षा में इस तथ्य का ध्यान रखा जाता है कि दूसरों को क्षुब्ध करने वाला कोई कृत्य तो नहीं हो गया। पृथ्वी को प्रणाम के साथ दिनचर्या शुरू करने वाले चित्त से किसी के प्रति अनजाने में कोई अपराध हो गया हो, तो उसके लिए क्षमा माँगना, ग्लानि अनुभव करना और दोबारा वैसी गलती नहीं हो, इस तरह की सावधानी बरतने का संकल्प उभरे, तो समझना चाहिए कि शुचिता की दिशा में प्रगति हो रही है। समीक्षा के समय सजगता बनी रहे, इतना ही काफी है।

यह सजगता अपने काम को भगवान की आराधना समझने के नियम से प्रखर होती है। किसी काम को बोझ समझकर नहीं किया जाए। आराधना समझकर किए गए कार्य दूसरों के प्रति द्वेष, विषाद या स्पर्द्धा के भाव को तिरोहित करते हैं। इन भावों या दुर्भावना से किए गए कार्य ही मन में मलीनता लाते हैं। उन्हीं के कारण कषाय−कल्मष उत्पन्न होते हैं। आराधना को व्यवहार और कर्म की कसौटी मान लें, तो किसी भी आचरण से दूसरे का अहित नहीं होगा। किसी के प्रति द्वेष−दुर्भाव ही नहीं होगा तो ईर्ष्या, क्रोध, विषाद आदि विकारों का अपने आप शमन हो जाएगा।

योगशास्त्र ने शौच का परिणाम बताया है कि वह पूरी तरह सिद्ध हो गया, तो जो भी निरर्थक है, उससे छुटकारा मिल जाता है। चित्त में न भ्रम रहता है और न ही संशय, क्योंकि सभी विकार तब नष्ट हो जाते हैं। शास्त्र की भाषा में इस स्थिति को जुगुप्सा और असंसर्ग कहा गया है। जुगुप्सा का शाब्दिक अथ मलिन स्थिति से घृणा है, लेकिन घृणा स्वयं विकार है और शुचिता पूरी तरह सिद्ध हो जाए, तो विकार के लिए कोई स्थान कहाँ बच रहता है। वस्तुतः शुचिता जीवन और जगत् के प्रति यथार्थ दृष्टि जगाती है। वही चाहिए भी।


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