राजा द्रुमिल, राजकुमार स्थावर सर्ग की दिनों−दिन बढ़ रही उच्छृंखल−वृत्ति से जितने पीड़ित थे, प्रजा उससे अधिक परेशान थी। महाराज द्रुमिल ने एक−से−एक विद्वान बुलाए, अच्छे−अच्छे नैतिक उपदेशों की व्यवस्था की गई, किंतु जिस तरह चिकने घड़े पर पानी का प्रभाव नहीं पड़ता, उसी प्रकार राजकुमार स्थावर सर्ग पर कोई प्रभाव न पड़ा।
अंत में महाराज द्रुमिल ने पूज्यपाद अश्वत्थ की शरण ली। प्रजा के हित की दृष्टि से महर्षि अश्वत्थ ने राजकुमार को ठीक करने का आश्वासन तो दे दिया, पर उन्होंने महाराज से स्पष्ट कह दिया कि उनकी किसी भी योजना में बाधा उत्पन्न नहीं की जाएगी। महाराज द्रुमिल ने उस शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया।
महर्षि अश्वत्थ की आज्ञा से सर्वप्रथम स्थावर सर्ग की राज्यवृत्ति रोक दी। उनके पास की सारी संपत्ति छीन ली और सम्राट की ओर से उन्हें बंदी बनाकर अप−द्वीप निष्कासित कर दिया। यह वह स्थान था, जहाँ न तो पर्याप्त भोजन ही उपलब्ध था और न ही जल। अतिवृष्टि के कारण रात में सो सकना कठिन था, वहाँ दिन में हिंसक जंतुओं का भय था। कुछ ही दिन में स्थावर सर्ग सूखकर काँटा हो गए अब तक उनके मन में जो अहंकार और दर्प था, प्रकृति की कठोर यातनाओं के आघात से टूटकर चकनाचूर हो गया। महाराज को इस बीच कई बार पुत्र के मोह ने सताया भी, पर अश्वत्थ को वचन दे चुके थे, अतएव कुछ बोल भी नहीं सकते थे।
समय पूरा होने को आया। प्रकृति के संसर्ग में रहकर स्थावर सर्ग बदले और जब वे लौटकर आए, तो सबने देखा, उनका मुख−मंडल दर्प से नहीं, करुणा व सौम्यता से दीप्तिमान था। जो कम मनुष्य नहीं कर सके, वह प्रकृति की दंड व्यवस्था ने पूरा कर दिखाया।