सिनेमा को दर्शन, चिंतन, विधि, मान्यता, परंपरा तथा नैतिकता जैसे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष मूल्यों का सम्मान करना आना चाहिए।
सिनेमा सामाजिक जीवन को नई दिशा प्रदान कर सकता है। यह सामाजिक विचार को परिष्कृत एवं भावना हो सुकोमल बनाने का कार्य कर सकता है। इससे समाज और भी अधिक उन्नत हो सकता है। फिल्मों द्वारा अकल्पनीय सफलता प्राप्त हो सकती है। ऐसा रूस ने किया है। फ्राँस कर रहा है, इंग्लैंड ने आरंभ कर दिया, अमेरिका भी इस दिशा में प्रयासरत है। हम भी अपने देश में प्रगतिशील एवं उत्कृष्ट कलात्मक सिनेमा द्वारा लोगों एवं समाज को उन्नत दिशा प्रदान कर सकते हैं।
सिनेमा एक मनोरंजन का साधन भी है। मनोरंजन को चरित्रवान् होना चाहिए। यही उसका वास्तविक स्वरूप सी है। जिस मनोरंजन का उत्कृष्ट चरित्र नहीं होता, उसका प्रभाव विनाशक हो सकता है। अतः सिनेमा को, मन को स्वस्थ बनाए रखकर उसकी रुचि को उच्चस्तरीय बनाना चाहिए। सिनेमा का कार्य है कि लोगों की पसंद को बदले, परिष्कृत बनाए और क्रियात्मक व सृजनशील रखे सिनेमा समाज के पथ−प्रदर्शक की भूमिका निभा सकता है। उसे सदैव समाज के प्रति ईमानदार व जिम्मेदार होना चाहिए। सामाजिक परिवर्तन में सिनेमा की भूमिका नजर−अंदाज नहीं की जा सकती, हालाँकि उसकी एक सीमा है।
भारतीय समाज की संरचना अनोखी एवं विचित्र है। अब तक फिल्म निर्माता इस संरचना को समझ नहीं लेता, उसकी सफलता संदिग्ध बनी रहेगी। जब तक सिनेमा में समाजरूपी जमीन में बिखरे पड़े बीजों का अंकुरण नहीं होगा, वह सिनेमा इस समाज में स्वीकृत नहीं होगा। अंतःचेतना से लगातार संपर्क एवं संबंध बनाए रखना उसकी अनिवार्य आवश्यकता है। फिल्में समाज से कटकर जीव नहीं बनी रह सकतीं। सिनेमा जो कुछ भी चुता उसके मूल बीज समाज में विद्यमान होते हैं। अतः नाव का आधार भी इसी को लेकर होना चाहिए।
सिनेमा निर्माण से जुड़ी एक विशेषता उसकी व्यापकता जो उसे करोड़ों लोगों के पास ले जाती है और वह भी बहुत आसानी से। आज सिनेमा के इस व्यापक प्रभाव को कोई अनुभव कर रहा है। सामान्यतया सिनेमा देखने के दर्शकों की चेतना सुप्त रहती है और भावना प्रबल वह जाग्रत्। भावनाओं का यह दुबार सिनेमा देखने तक ही अमित नहीं रहता, वरन् इसके बाद तक बना रहता है। भावनाओं को सही पोषण नहीं मिल पाता, तो परिणाम भयावह होता है। दुर्भाग्य से आज की व्यावसायिक फिल्मों ने मानवी मानसिकता को ऊँचा उठाने के बजाय उसे विकृति की गहरी खाई में धकेल दिया है। आर्थिक लाभ हेतु यह व्यवसाय समाज एवं खासकर युवा वर्ग के लिए आत्मघाती सिद्ध हो रहा है।
आज सिनेमा ने विचारों को निकृष्ट एवं भावनाओं को कलुषित कर दिया है। इसके अनुसार रिश्तों एवं संबंध का आधार त्याग व प्रेम नहीं बल्कि स्वार्थ है। पावन एवं पवित्र प्रेम को व्यावसायिक व दैहिक वासना तक सीमित कर दिया है। नारी ममत्व एवं स्नेह की मूरत नहीं, उसे शोषण व मनोरंजन का साधन बना दिया गया है। सिनेमा के बोला, अंगद जिस राम ने तेरे पिता को मारा, तू उन्हीं की सहायता कर रहा है। मेरे मित्र का पुत्र होकर भी तू मुझसे बैर कर रहा है। अंगद हँसा और बोला, रावण! अन्यायी से लड़ना और उसे मारना ही सच्चा धर्म है, चाहे वह मेरे पिता हों अथवा आप ही क्यों न हों? अंगद के यह तेजस्वी शब्द सुनकर रावण को उत्तर देते न बना।
वैभव एवं ऐश्वर्य की चकाचौंध में कमजोर मानसिकता में गहरा भटकाव आ गया है। यह जीवन−शैली को तहस−नहस कर रहा है। अश्लीलता, हिंसा, हत्यारूपी ये दृश्य जीवन−मूल्यों का क्षरण कर रहे हैं।
उलटे को उलटकर ही सीधा किया जा सकता है। यह उक्ति सिनेमा के लिए सही सिद्ध हो सकती है। सिनेमा जितना जहर उगल चुका है, उसे बंद कर पुनः नैसर्गिक मूल्यों की प्राप्ति हेतु उन्मुख होना होगा। उसे अपने अति व्यावसायिक मोह को परित्याग कर व्यक्ति, समाज व राष्ट्र को ऊँचा उठाने हेतु प्रयास करना चाहिए। कला की पहुँच भावनाओं व संवेदना क्षेत्र तक होती है। अतः सिनेमारूपी कला के इस माध्यम द्वारा समाज का भावनात्मक परिष्कार किया जा सकता है, किया जाना चाहिए।