अपना धर्म या कल्याण (Kahani)

February 2001

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एक बार एक विवाह के समय जब वहाँ बहुत मिष्ठान्न−पकवान बन रहे थे, तब घर की पालतू बिल्ली ने ऊधम मचाया। हर चीज में मुँह डाल देती औ जूठा कर देती। घर की मालकिन ने उसे पकड़कर नाँद के नीचे बंद कर दिया। फिर वह काम में लग गई। कई रोज काम में व्यस्त रहने के कारण उसे बिल्ली को निकालने की बात याद न रही और वह उसी में दबकर मर गई।

बारात जब लौटकर आई और बहू ने घर में प्रवेश किया, उस समय घर मालकिन को बिल्ली की याद आई। उसे निकाला गया, तो मरी मिली। उसे फिकवाया गया। नई बहू यह सब देख रही थी। उसने समझ लिया कि इस घर की यही परंपरा है। बाद में जब उसका बच्चा हुआ और उसके बड़े होने पर बारात गई और नई बहू, आई, तो उसने भी एक बिल्ली पकड़कर नाँद के नीचे बंद की और जब वह मर गई, तो ठीक उसी समय जब नई बहू ने घर में प्रवेश किया, उस बिल्ली को फिकवाया। जो उसने देखा था, उसे कुल परंपरा समझा और उसी का पालन करने में अपना धर्म या कल्याण समझा।

आजकल ऐसी ही कई अंध परंपराएँ फैली हैं, जिनका कारण मालूम ही नहीं है और पता लगाया जाए, तो उनका कारण बिना समझे−बूझे− किया गया अनुकरण ही सिद्ध होगा। क्या उपयोगी है क्या अनुपयोगी, इस पर विचार किए बिना क्रम चलता रहता है व भेड़ों की तरह सब उसका अंधानुकरण करते चले जाते हैं।


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