अपनों से अपनी बात - हीरक जयंती वर्ष उमंग उल्लास के साथ सभी मनाएँ

February 2001

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विशिष्ट क्रम, विशिष्ट प्रशिक्षण केंद्र में भी, क्षेत्र में भी

“ब्रह्ममुहूर्त में साधक और तपस्वी जाग जाते है और उस पुण्य वेला में साधनारत होते हैं, जबकि विषयी लोग इसी समय अधिक गहरी नींद का मजा ले रहे होते हैं। इन दिनों ब्रह्ममुहूर्त है। असुरताभरी तमसाच्छन्न निशा का अब अंत होने जा रहा है और उसके स्थान पर ज्योतिर्मय प्रभात के उदय की संभावनाएँ उग जाती हैं। यह संधिकाल प्रभात की ऊषा लेकर आया है। मंदिरों में शंख−निनाद हो रहा है कि सजग आत्माएँ जगें और अपने पुनीत धर्म−कर्त्तव्यों में संलग्न हों। युग निर्माण योजना एक शंख−निनाद है, जो संस्कारी व्यक्तियों को जगाने और उन्हें प्रभातकालीन कर्त्तव्यों में जुटने का उद्बोधन कर रहा है। “ परमपूज्य गुरुदेव ने ये पंक्तियाँ अखण्ड ज्योति के अगस्त 1969 (विचार क्राँति विशेषाँक) के प्रारंभिक लेख में लिखी थीं। इन्हें बार−बार पढ़ना और अपने आपको सुनाना चाहिए, ताकि हम उस विशिष्ट भागवत् मुहूर्त को पहचान सकें, जो हमारे समक्ष आकर खड़ा हुआ है।

उज्ज्वल भविष्य की वेला आ पहुँची− युग चेतना के अभ्युदय की हीरक जयंती का वर्ष आ पहुँचा। बारहवर्षीय

ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की तरह चल रहा एक विराट् साधनात्मक महापुरुषार्थ संपन्न हो गया और हम सबके लिए एक वातावरण बनाया गया। 1989 से लेकर वसंत पर्व 2001 तक चले इस विशिष्ट अभियान के फलितार्थ क्या होंगे, इसे परमपूज्य की लेखनी से जानने का प्रयास करें, तो अच्छा रहेगा। यह उपर्युक्त चिंतन अगस्त 1969 विशेषाँक के पृष्ठ 17 से उद्धृत हैं। “हम सुषुप्ति की स्थिति में पड़ी हुई राष्ट्र चेतना को कुँभकरणी निद्रा से जगाने का प्रयास करेंगे। विश्वास है कि अगले दिनों राष्ट्र जगेगा और अँगड़ाई लेता हुआ उठ खड़ा होगा। जिस दिन यह महादैत्य जगेगा, उस दिन दसों दिशाएँ काँप उठेंगी। उसके पास अध्यात्म, तत्त्वज्ञान, शौर्य, साहस, विज्ञान एवं संपन्नता की इतनी अधिक परंपरागत पूँजी विद्यमान है, जिसके बल पर विश्व की अद्भुत−अनुपम शक्ति बनकर रहेगा। सर्वश्रेष्ठता से परिपूर्ण हमारा प्राचीन इतिहास है। अब उज्ज्वल भविष्य भी ऐसा होने जा रहा है, जिसमें कि हम प्रत्येक क्षेत्र में विश्व का नेतृत्व, मार्गदर्शन एवं सहयोग कर सकने में समर्थ हो सकें।”

ईश्वर ही है इस घड़ी का नियंता

पीछे मुड़कर देखते हैं, तो पाते हैं कि एक ऋषि−योगी की भी लेखनी बीसवीं सदी के प्रारंभ में इसी तरह की आग उगलने लगी थी। श्री अरविंद जो आय. सी. एस. परीक्षा में जान−बूझकर अनुत्तीर्ण हो भारत आए एवं ‘वंदेमातरम्’ पत्र से क्राँतिकारियों को दिशादर्शन देने लगे। उनके तत्कालीन लेखों का संकलन ‘पश्चिम के खण्डहरों में से भारत का पुनर्जन्म’ मीरा अदिति सेण्टर मैसूर द्वारा हिंदी में 1994 में प्रकाशित हुआ है। उनके विचार परमपूज्य गुरुदेव के चिंतन के परिप्रेक्ष्य में पढ़ने योग्य हैं। जुलाई 1979 को अपने लेख में वे लिखते हैं, “विशेष युगों में कुछ विशेष आँदोलन होते हैं, जब ईश्वरीय शक्ति अपने आपको प्रकट करती है और अपनी चरम शक्ति से मानवजाति के सारे आकलनों को तहस−नहस कर देती है। सावधान राजनेता और योजनाएँ रचने वाले कूटनीतिज्ञों की बुद्धिमानी का मजाक बना देती है। वैज्ञानिक विश्लेषण करने वालों के पूर्वानुमानों को वह झूठा बना देती है और जितनी प्रचंडता और तीव्र गति से वह आगे बढ़ती है, उससे उसका मानवातीत−अलौकिक शक्ति होना स्पष्ट रूप से प्रकट होता

चला जाता है। बौद्धिक व्यक्ति बाद में उस आँदोलन के कारण ढूँढ़ निकालने का और उन तत्त्वों को उजागर करने का प्रयास करता है, जिन्होंने उसे संभव बनाया, किंतु उस समय वह सरासर गलत होता है, प्रत्येक पग पर अच्छी बुद्धि भूल कर बैठती है और उसका विज्ञान काम नहीं करता। यही वह समय है जब हम कहते है कि इस आँदोलन में ईश्वर का हाथ है। वही उसका नेता है और उस अपना उद्देश्य पूरा करना ही है, चाहे मनुष्य के लिए उन साधनों को समझना कितना ही असंभव क्यों न हो, जिनसे उसे सफलता मिलेगी।” (पृष्ठ 57)

दो युगों की मध्याँतर वेला

कलकत्ता में रह रहे श्री अरविंद के प्रसिद्ध उत्तरपाड़ा भाषण के बाद यह लेख ‘कर्मयोगिन’ (अँग्रेजी दैनिक) में प्रकाशित हुआ था। उसने उनके द्वारा की गई उस भविष्यवाणी को और मजबूती प्रदान की, जिसमें उनने कहा था कि 1836 में ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस के जनम के साथ ही उस युग का सतयुगी समय आरंभ हो गया है। भारत को सारे विश्व का नेतृत्व करना है। मात्र थोड़ी प्रतीक्षा करनी होगी, क्योंकि दो युगों की मध्याँतर संधि वेला 175 वर्षों की होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस अवधि के, जो नानाप्रकार के उतार−चढ़ाव, क्राँतिकारियों की कीर्तिगाथाओं, भारत की आजादी के लिए किए गए अनवरत प्रयासों, योद्धा स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद, रमण महर्षि, परमपूज्य गुरुदेव के आविर्भाव तथा विश्व−वसुधा को रक्तरंजित कर देने वाले दो विश्व युद्धों, छोटे−बड़े प्रायः दो हजार युद्धों एवं वैज्ञानिक क्राँति की उपलब्धियों भरे क्षणों से युक्त रही है, अब मात्र अंतिम दस वर्ष बाकी हैं। 165वाँ वर्ष चल रहा है एवं यही अंतिम दस वर्ष नवयुग के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाएँगे।

ऐतिहासिक हीरक जयंती वर्ष

बात उज्ज्वल भविष्य की उस ऐतिहासिक हीरक जयंती वर्ष के संदर्भ में चल रही है, जो विगत वसंत पर्व 21 जनवरी 2001 से आरंभ होकर 17 फरवरी 2002 वसंत पंचमी तक संपन्न होने जा रहा है। महापूर्णाहुति शानदार ढंग से संपन्न हुई, अब इस वसंत से इसका अनुयाज भी आरंभ होना है। लाखों− करोड़ों साधकों− गृहस्थों ने जीवन−साधना के सूत्र विगत वर्षों में अपने जीवन में अंगीकार किए एवं एक नए अध्याय में सप्त आँदोलनों की सक्रियता के माध्यम से प्रवेश किया है। जैसा कि पिछले अंक में भी बताया गया एवं प्रज्ञा अभियान ‘पक्षिक’ के पृष्ठों पर स्पष्ट किया जाता रहा है कि जीवन−साधना की धुरी पर ही ये सारे आँदोलन गतिशील हो रहे हैं। वसंत पर्व से आरंभ हुआ यह हीरक जयंती वर्ष कई अर्थों में महत्त्वपूर्ण है। यह परमपूज्य गुरुदेव द्वारा 1926 में प्रज्वलित अखण्ड दीपक, जो अब शाँतिकुँज में स्थित है, के 75वें, वर्ष में प्रवेश वाला वर्ष है। इसी की साक्षी में परमपूज्य गुरुदेव व शक्तिस्वरूपा माताजी के सभी महत्त्वपूर्ण निर्धारण हुए, जिनने इस मिशनरूपी वटवृक्ष को इस समुन्नत स्थिति में पहुँचाया है। परमपूज्य गुरुदेव ने उसे एक अखण्ड अग्रि−अखण्ड यज्ञ की संज्ञा दी थी। परमवंदनीया माताजी के संरक्षण में 1971 में इसे यहाँ लाए जाने के बाद से लगातार 30 वर्षों से इसके समक्ष निरंतर अखण्ड जप चलता रहा है। कितना बड़ा शक्ति का स्रोत है, इसकी कल्पना सामान्यजन नहीं कर सकते। इसे अखण्ड ज्योति पाठकों−परिजनों को गुरुसत्ता की परोक्ष उपस्थिति का द्योतक एक प्रतीक मानकर स्वयं को सौभाग्यशाली मानना चाहिए। यह वर्ष परमवंदनीया माताजी के 1926 में आश्विन कृष्ण चतुर्थी को धरती पर अवतरण के संदर्भ में उनका भी हीरक जयंती वर्ष है। परमवंदनीया शक्तिस्वरूपा माताजी ने सजलता दी, स्नेह−ममत्व के अभिसिंचन से परमपूज्य गुरुदेव के पुरुषार्थ को पूर्णता दी। नारी जागरण के एक शक्तिशाली प्रतीक के रूप में स्नेहसलिला माताजी उभरीं एवं 1959-60 का समय हो अथवा 1971-72 का, सूक्ष्मीकरण की वेला (1984-86) हो अथवा पूज्यवर के महाप्रयाण के बाद के चार वर्ष, उनने सतत आगे चलकर मार्गदर्शन किया है। यह वर्ष इसीलिए ‘महिला जागरण वर्ष’ के रूप में भी मिशन द्वारा मनाया जा रहा है।

तीसरा एक संयोग यह कि श्री अरविंद ने भागवत् चेतना के धरती पर अवतरण के रूप में वर्ष 1923 को ऐतिहासिक माना था। उसके भी 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं। सह संयोग मात्र नहीं है, युग नियंता की भागवत् योजना का ही एक अंग है, जिसमें नए सिरे से सारी धरती का भाग्य लिखा जा रहा है। दो सहस्राब्दियों के कूड़े−कचरे को साफ होने में अभी न्यूनतम बीस वर्ष लगना है, किंतु

नवसृजन आरंभ हो चुका है, इसे हर कोई देख सकता है। हर दृष्टि से यह युग वसंत है, नई सहस्राब्दी के प्रथम वर्ष में नूतन उल्लास लेकर आया है एवं वर्षभर जन−जन में नूतन प्रेरणा, शक्ति चेतना का संचार करता रहेगा।

मात्र औपचारिकता न रह जाए

और वर्षों की तरह यह वर्ष एक औपचारिकता मात्र न बनकर रह जाए, हर व्यक्ति मं नूतन प्राण फूँके एवं उच्चस्तरी आत्मिक प्रगति के सोपानों पर चढ़ने की आकाँक्षा जगा दे, यह चुनौती यह हम सबके लिए लेकर आया है। वही इसे स्वीकार कर सकेंगे, जो निज की जीवन−साधना और सृजनधर्मी पुरुषार्थ को और अधिक प्रखर बनाने की समझदारी, तत्परता एवं कौशल दिखा पाएँगे। 75 वर्ष किसी भी मिशन−संगठन के लिए प्रौढ़ता की चरमावस्था

के प्रतीक हैं। शासन की किसी भी तरह की सहायता पर आधारित न रहकर मात्र समयदान−अंशदान की पूँजी से जाग्रतात्माओं का यह संगठन जो खड़ा हुआ है, इसे अब विभूतिवानों−प्रतिभाशीलों को सृजननिष्ठ आँदोलन में नियोजित करना है। उदार अनुदान भी ऊपर से बरसेंगे, पर उन्हीं पर जो जीवन−साधना की कसौटी पर खरे उतरेंगे। जीवन−साधना चौबीस घंटे की होती है। हर क्षण भगवत्चेतनामय, हर क्षण विधेयात्मक चिंतन से ओत−प्रोत तथा सतयुगी उल्लास भरे आनंद में सराबोर रहे, ऐसी अपेक्षा हमारी गुरुसत्ता की प्रत्येक परिजन से इस वर्ष विशेष में है। हम मात्र उत्साह में औपचारिकता न बरतकर रह जाएँ, गहरे उतरें व गुरुसत्ता के चिंतन−प्रवाह में निरंतर गोते लगाते रहने का अभ्यास करें, यह अपेक्षा स्वाध्यायक्रम में हम से की जा रही हैं।

परिजनों के लिए गायत्री तीर्थ में विशिष्ट सत्रों का क्रम

(1) इसी उद्देश्य से परिजनों के लिए इस वर्ष विशिष्ट साधना सत्रों की श्रृंखला का निर्धारण किया गया है। हमारे 75 वर्ष के परिपक्व वयोवृद्ध इस संगठन के प्राणवान् वरिष्ठ कहे जाने वाले प्रज्ञापुत्रों से यह अनुरोध किया जा रहा है कि अब इस वर्ष वे अखण्ड दीपक के सान्निध्य में एक अनुष्ठान से युक्त विशिष्ट सत्र प्रतिवर्ष करते रहने का क्रम बना लें। ये प्राण प्रत्यावर्तन स्तर के एकान्त साधना सत्र होंगे। इनमें साधक को एक ही कोठरी में 24 घंटे रहना होगा, मौत सहित तप के सारे उपक्रम पूरे करने होंगे, मात्र गुरुदेव को ही सुनना व पढ़ना होगा। प्रारंभिक दौर में अभी 36 कमरों में 36 साधकों के लिए 1 मार्च से 5 मार्च, 7 मार्च से 11 मार्च, 13 मार्च से 17 मार्च इस प्रकार तीन ही सत्र रखे गए हैं। इसके बाद 23 मार्च से नवरात्रि सत्र होने के कारण अलग से इन्हें चला पाना संभव नहीं होगा। बाद में ये आश्विन नवरात्रि से चैत्र नवरात्रि की छह माह की अवधि में 2001-2002 में अनवरत चलते रहेंगे। इन सत्रों के बारे में विस्तार से 1 फरवरी का प्रज्ञा अभियान पाक्षिक पढ़ें।

(2) 9 दिवसीय जीवन−साधना सत्र एवं एक माह के युगशिल्पी सत्र यथावत् चलते रहेंगे।

(3) शाँतिकुँज की बहनों का विशिष्ट प्रशिक्षण श्रद्धेया जीजी के मार्गदर्शन में आरंभ हो गया है। यही ब्रह्मवादिनी बहनें ग्रीष्मकाल के बाद शाँतिकुँज में क्षेत्र के नारी जागरण सत्रों का विधिवत् संचालन करेंगी। इनकी घोषणा समय− समय पर की जाती रहेगी। इस वर्ष मात्र केंद्र ही नहीं, क्षेत्रों में भी महिला जागरण सत्रों की श्रृंखला चले, ऐसा गुरुसत्ता का संकेत है। इसी कार्य के लिए प्राणवान् प्रशिक्षिकाओं को उच्चस्तरीय शिक्षण इस वसंत के बाद दिया जा रहा है। बाद में क्षेत्र की ओजस्वी−लोकनायक स्तर की बहनों को भी प्रशिक्षण में शामिल किया जाएगा।

(4) ग्रीष्मकाल में 16 मई से 30 जून की अवधि में 5-5 दिन के तीर्थसेवन सत्र यथावत् चलते रहेंगे।

(5) आँदोलन प्रधान एक प्रशिक्षण सत्र प्रतिमाह शाँतिकुँज में निर्धारित तिथियों में चलेंगे। ये सत्र अप्रैल, मई, जुलाई, अगस्त, सितंबर एवं अक्टूबर में छह आँदोलनों पर पृथक−पृथक आयोजित किए जाएँगे। ये भी पाँच−पाँच दिन के होंगे। चूँकि जीवन−साधना सभी आँदोलनों की धुरी में है, उसे सभी के साथ गूँथ दिया गया है। इनकी तिथियों के लिए परिजन पत्राचार कर लें।

गायत्री शक्तिपीठों−प्रज्ञासंस्थानों पर भी सत्र चलेंगे

इस वर्ष जनवरी माह में संपर्क प्रशिक्षण के लिए प्रायः साठ शक्तिपीठों का दौरा करने वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं की टोलियाँ पहुँची हैं। वे संभावनाओं को तलाशकर वसंत तक आ चुकी होंगी। अब निर्धारण यह है कि हर शक्तिपीठ, प्रज्ञा संस्थान पर, जहाँ स्थान भी है व जिनके पास संसाधन हैं, वहाँ तीन माह में एक बार दो सत्र अवश्य चलें। ये सत्र पाँच−पाँच दिन के कुछ दिनों का अंतर भी रखा जा सकता है। हमारे सभी शक्तिपीठ भागवत् चेतना के केंद्र है। क्षेत्र के कार्यकर्त्ताओं, जिले की शाखाओं प्रज्ञा, मंडलों, स्वाध्याय मंडलों एवं महिला मंडलों का उनसे संपर्क अब प्रशिक्षण स्तर पर जुड़ जाना चाहिए। यही सोचकर उस वर्ष माँग के अनुपात में कितने दल हम निकाल सकते हैं, यह देखकर मार्च 2002 से प्रति तीन माह न्यूनतम दो−दो सब दो सौ शक्तिपीठों पर आरंभ करने का मन है। प्रत्येक पीठ पर यह प्रति तीन माह के अंतर से पाँच दिन के लिए चलेंगे। 1 से 5 साधनाप्रधान चल सकता है एवं 21 से 25 आँदोलनप्रधान। यह तो मात्र नमूने के लिए लिखा गया है। तिथियाँ संगठन प्रकोष्ठ से चचौ कर तय की जा सकती हैं।

शक्तिपीठ साधना सत्र का प्रारूप

ये शिविर शाँतिकुँज के प्रशिक्षण कार्यकर्त्ताओं के मार्गदर्शन में चलेंगे। पूर्व संध्या को सभी को संकल्प दिलाया जाएगा, अतः सभी संध्या 5 बजे से पूर्व आकर अपनी पाँच दिन की रहने की व्यवस्था बना लेंगे। प्रातः चार बजे जागरण से क्रम आरंभ होगा। आरती, सामूहिक ध्यान, प्रज्ञायोग, पादुका नमन एवं सामूहिक यज्ञ तक सभी दिनों में यह एक−सा क्रम रहेगा। प्रातः 8 बजे शाँतिकुँज प्रतिनिधि द्वारा उद्बोधन होगा, 9.30 पर भोजन−प्रसाद, अपराह्न दो बजे विशिष्ट क्रियापरक गोष्ठी तथा सायं 6 से 6.14 की नादयोग साधना के बाद समाधान गोष्ठी, वीडियो संदेश, प्रज्ञा पुराण आदि का क्रम चलेगा। अपराह्न की गोष्ठी के बाद प्रतिदिन 3.30 पर सामूहिक श्रमदान तथा 5 बजे आरती होगी, जिसमें सभी भाग लेंगे। पाँचवे दिन प्रातःकाल के विदाई संदेश के बाद सभी अपने−अपने स्थानों के लिए रवाना हो सकेंगे। इस प्रकार प्रायः पाँच दिन में वे परिजन जो दूरी के कारण, छुट्टी न मिल पाने के कारण अथवा कई अन्य झंझटों में उलझे रहने के कारण शाँतिकुँज नहीं आ पाते, उसी प्राणप्रवाह से अभिपूरित हो सकेंगे, जो सुयोग गायत्री तीर्थ में आने पर मिलता। यदि उत्साह उभरा, तो प्रत्येक शक्तिपीठ एक जाग्रत् प्राणवान् केंद्र बनकर एक−डेढ़ वर्ष में प्रशिक्षण की प्रक्रिया संपन्न कर रहे होंगे। इसी तरह का एक पाँच दिवसीय सत्र आँदोलनों को गति देने की दृष्टि से प्रत्येक पीठ पर कम−से−कम तीन माह में एक बार चले, ऐसी अपेक्षा रखी गई है।

अब सब कुछ नूतन−उल्लासमय हो

वसंत नूतन उल्लास, नई प्रेरणा, पुलकन भरे प्राणप्रवाह के संचार का प्रतीक है। इस वसंत से प्रत्येक परिजन से कहा जा रहा है कि वे सूर्योदय पर सूर्यार्घ्यदान के साथ शंखनाद का क्रम अपनाएँ। सूर्योदय होते ही सभी घर के, शक्तिपीठ के मंडल के सदस्य एक साथ सूर्य को अर्घ्य दें एवं शंख ध्वनि करें। यह सभी को बताने के लिए है कि “सभी सावधान हों, नया युग आ रहा है।” हो सके तो इसके बाद प्रभातफेरी का क्रम बनाएँ। रोज नहीं संभव हो तो कम−से−कम प्रत्येक पूर्णिमा एवं अमावस्या तथा माह में पड़ने वाले पर्व पर सभी जगह उत्साहपूर्वक सूर्यार्घ्य, शंखनाद तथा प्रभातफेरी का क्रम सभी जगह चले। साधनाप्रधान एवं सातों आँदोलनों पर नए नारे, नए गीत बनाए जा रहे हैं। इस वर्ष यही नूतन उल्लास भरा क्रम सब ओर एक जैसा चले। सभी प्राणवान् परिजनों से अपेक्षा रहेगी कि हीरक जयंती वर्ष उसी उत्साह के साथ साल भर संपन्न होगा, जैसा कि ऊपर बताया गया है। बहुविधि कार्यक्रम हैं, ढेरों कार्य होना है। हमें तो बस अपने अंदर के उत्साह को जिंदा बनाए रख लगे रहना है। परिणाम निश्चित ही सुखद उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं से भरे होंगे।


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