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देह परिधि है और आत्मा अपने अस्तित्व का केन्द्र। परिधि से केन्द्र की ओर यात्रा करने से ही आध्यात्मिक विकास सुनिश्चित होता है। जो इस सच से अनजान हैं, वे सारे जीवन परिधि पर ही टिके रहते हैं। ऐसे आत्म विमुख लोगों के लिए देह और उससे जुड़े वैभव-भोग ही जीवन का सब कुछ बन जाते हैं। साँसारिक पद-प्रतिष्ठ के भ्रम एवं झूठे मान-यश के अंधेरों की चाहत ही उनकी चेतना को हर पल घेरे रहती है।
लेकिन ज्यों ही आत्म चेतना परिधि से केन्द्र की ओर मुड़ती है आध्यात्मिक-अन्तर्यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। आत्मजिज्ञासा की पहली प्रकाश किरण का उजियारा जीवन में प्रवेश कर जाता है। परन्तु परिधि से केन्द्र की ओर इस यात्रा की शुरुआत कैसे हो? गिरीशचन्द्र घोष ने अपने सद्गुरु श्री रामकृष्ण देव से एक समय यही सवाल पूछा था।
उत्तर में परमहंस देव ने मुस्कराते हुए गिरीश बाबू को बड़ी ही ममता से छू लिया। परमहंस देव के इस अलौकिक स्पर्श से गिरीश बाबू रोमाँचित हो उठे। वह कुछ बोल पाते, इससे पहले श्री रामकृष्ण देव ने उनसे कहा- ध्यान के समय, निद्रा की गोद में जाते समय मन ही मन मेरे इस स्पर्श को बड़ी ही प्रगाढ़ता से अनुभव करना। और सोचना तेरी चेतना, तेरा समूचा अस्तित्व मुझमें, मेरी चेतना में विलीन हो रहा है।
बात छोटी सी है, परन्तु अभ्यास करने वाले के लिए इसके परिणाम बहुत बड़े हैं। क्योंकि मन ही मन सद्गुरु के स्पर्श की प्रगाढ़ रूप से होने वाले अनुभूति में देह से प्राण, प्राण से मन और मन से आत्मा की ओर अन्तर्चेतना गतिशील हो जाती है। इस अनोखे अभ्यास से सम्पन्न होने वाली अन्तर्यात्रा ने ही श्रीयुत गिरीशचन्द्र घोष को महात्मा बना दिया।
बाद के दिनों में वह अपने अनुभवों को अपने गुरुभाइयों से बताते हुए कहा करते- सर्वोत्तम ध्यान है- सद्गुरु के कृपापूर्ण स्पर्श का ध्यान। उनके स्पर्श के समय हुए अनुभव का ध्यान। इससे सहज ही अन्तर्चेतना देह की परिधि से अपने अस्तित्व के केन्द्र आत्मा की ओर बढ़ चलती है। और इसकी तीव्रता के अनुपात में ही आत्म शक्तियों का अलौकिक जागरण स्वयमेव होने लगता है।