एक राजा ने संन्यासी से कहा, राजकाज में बड़े झंझट हैं तथा संन्यास में निश्चिंतता। आप मुझे संन्यास की दीक्षा दे दीजिए। संन्यासी ने प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दे दी। पर पूछा, राजकाज कौन करेगा? उत्तर मिला, किसी को दान कर दूँगा और अपने निर्वाह के लिए कुछ मेहनत मजूरी कर लूँगा।
संन्यासी ने कहा, राज मुझे दान कर दो। मेरे नौकर की तरह शासन की व्यवस्था चलाओ, कर्म से पलायन मत करो। वह तो अध्यात्म दर्शन का मूल है। तुम्हारे ऐसा करते रहने पर संन्यास भी सध जाएगा और गुरु का सौंपा हुआ काम करते हुए शांतिपूर्वक निर्वाह भी होता रहेगा। स्वामित्व को त्यागना और कर्त्तव्य को धर्म मानकर करते रहने से घर में रहकर भी संन्यास सध सकता है।