विदर्भ देश में एक अपरिग्रही परिव्राजक रहता था, नाम था श्रुतिकीर्ति। भजन भाव तो नित्यकर्म जितना ही बन पड़ता, पर प्रवास में यही खोजता रहा कि पीड़ा और पतन से ग्रसितों के पास पहुँचे और उनकी श्रम एवं ज्ञान के द्वारा सेवा-सहायता करे। यही थी उसकी जीवनचर्या जिसे किशोरवय से लेकर वृद्धावस्था तक अविचल श्रद्धा के साथ चलता रहा।
समय आया और मरण का दिन आ पहुँचा। स्वर्ग लोक से विमान आया, देवता उसे नला रहे थे। श्रुतिकीर्ति स्वर्ग पहुँच गए, पर शीघ्र ही वहाँ के वैभव विलास से दुःखी होकर उन्होंने अपना स्थान पृथ्वीलोक में बदलने का निश्चय किया।
ब्राह्मण ने देवताओं से प्रार्थना की- यदि सचमुच उन्होंने पुण्य कमाया है, तो इच्छित वरदान मिले। उन्हें पृथ्वीलोक तक पहुँचा दिया जाए, जहाँ पीड़ितों और पतितों की सेवा-सहायता करते हुए आत्मसंतोष का अर्जन हो सके। स्वर्ग सुख से मुझे सेवा संतोष अधिक प्रिय है।
देवताओं ने तथास्तु कहकर उसे पृथ्वीलोक पहुँचा दिया। पृथ्वीलोक में रह रहे श्रुतिकीर्ति की भेंट एक दिन उनके ही गुरु से हो गई। गुरु ने पूछा, ‘भला आप तो स्वर्ग में थे, फिर वापस कैसे आए?’
संत ने कहा, ‘पुण्य का फल नहीं पाप का दंड भुगतने वहाँ गया। सेवा में प्रगाढ़ निष्ठा होती तो पहले दिन ही स्वर्ग को अस्वीकार कर देता। यही था मेरा पाप, जिसका दंड विलास-व्यसन में घुटने सहन कर लौटा हूँ।’