आत्मैव आत्मनो बंधु आत्मैव रिपु आत्मनः

December 2001

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

श्रेष्ठी सुयश के पास सुविधा-साधनों की कमी न थी। अभाव था तो बस मन की शान्ति का। जिसकी खोज उन्हें अनवरत थी। पर शान्ति भी भला कहीं आसानी से मिलती है। वस्तुस्थिति तो यही है- शान्ति की खोज जितनी, उतनी ही अशान्ति। मन पर जितना नियंत्रण रखने की कोशिश, उतना ही वह काबू के बाहर। यह एक बड़ी ही अजीब सी विचित्रता है, जिसका समाधान ढूंढ़ते तो अनेक हैं, पर पाता कोई बिरला एक है।

अनेक सत्संग करते रहो, साधनाओं में भटकते रहो, तपस्या करके सूखते रहो, पाठ, भजन, कीर्तन करके घर-संसार में शोर मचाते रहो। पर जब तक यह गुत्थी नहीं सुलझती कि आत्मा और परमात्मा एक है, तब तक सब कुछ सारहीन, बेकार बना रहता है। श्रेष्ठी सुयश की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी। वह शान्ति की खोज में, आत्मा का परमात्मा से सम्बन्ध ढूंढ़ने में हैरान परेशान थे। पर जैसा कि उन्होंने एक दिन पढ़ा था-

फूल वही, चमन वही फर्क नजर-नजर का है, अहदे-बहार में था क्या दौरे खिजाँ में क्या नहीं।

लेकिन नजर का यह फर्क भला कहीं आसानी से मिटता है। श्रेष्ठी सुयश भी ढूंढ़ते गए, बढ़ते गए, करते रहे खोज, सुनते रहे उपदेश। मन में एक संकल्प था कि मेरे हृदय की जिज्ञासा कहीं न कहीं अवश्य शान्त होगी। आत्मा को कहीं न कहीं तो सत्य का स्पर्श होगा ही। मन की दौड़ कहीं तो थमेगी ही।

अपनी साधना के पलों में श्रेष्ठी सुयश सोचते कि आत्मा को निर्बन्ध कहा गया है। आत्मा को परमात्मा कहा गया है। शास्त्रकारों ने ‘अयमात्मा ब्रह्म’ की घोषणा की है। यह सब सच है तो फिर जीव संसार में भला क्यूँ अटका रहता है। आखिर यह सब क्यों, कैसे व किस अनुराग से है। परन्तु उनके ये प्रश्न समय के साथ गहराते तो थे, पर मिटते न थे। हाँ समाधान के लिए उनकी कोशिशें बरकरार थीं।

अपनी इस ढूंढ़-खोज में एक बार वे एक आश्रम में जा पहुँचे। यह आश्रम न तो जन-जीवन से एकदम दूर था और न ही एकदम घुला-मिला। इसे देखकर वैदिक ऋषियों के आरण्यक की कल्पना साकार हो उठती थी। इसका संचालन एक गृहस्थ सन्त करते थे। उनका नाम था आचार्य श्रीकृष्ण। सद्विचारों के प्रसार को वह अपने जीवन का लक्ष्य मानते थे। आए जिज्ञासुओं को अपना आत्म स्वरूप मानकर उसे अपने सद्ज्ञान का प्रसाद देते थे।

श्रेष्ठी सुयश भी अपने प्रश्नों की पोटली सिर पर लादे वहाँ पहुँचे। आश्रम के श्रद्धालु अन्तेवासियों ने उन्हें आचार्य श्री से मिलवाया। कुशल-क्षेम के सवालों का उन्होंने अनमने भाव से उत्तर दिया। उनके मन में उफान था कि आचार्य श्री से सब कुछ एक ही साँस में कह दिया जाय। पर आचार्य श्री उनसे बातें करते हुए भी अपना कुछ काम निबटाने में लगे थे। थोड़ी ही देर में उन्होंने अपना काम निबटा लिया। और श्रेष्ठी सुयश को देखकर हल्के से मुस्कराए। उनकी इस मुस्कान में एक गहरी रहस्यमयता थी। सच पूछों तो यह रहस्यमयता उनके समूचे व्यक्तित्व को अपने में लपेटे हुए थी। हाँ इस रहस्यमयता के पर्दे से उनकी अलौकिक साधना एवं आश्चर्यजनक सिद्धियाँ यदा-कदा यथार्थ परिचय दे जाती थी। पर अभी इन पलों में वह श्रेष्ठी सुयश को सम्बोधित करते हुए कहने लगे- सेठ जी! एक बार एक ऊंटवाला अपने सौ ऊंटों का काफिला लेकर घूम रहा था। जगह-जगह ठहरता जाता और चलता जाता। ऊंटों का पेट भी इस प्रकार जंगल में भर जाता था।

एक दिन ऊंटों का यह कारवाँ एक धर्मशाला के पास आकर ठहरा। ऊंटवाला एक-एक खूँटा गाड़ता जाता और उसके साथ हर ऊंट को बाँधता जा रहा था। निन्यानवे खूँटे गाड़ चुका और उतने ही ऊंट बाँध चुका था, पर उसके पास खूँटा कम पड़ गया। वह धर्मशाला के व्यवस्थापक के पास गया और उसे अपनी समस्या कह सुनायी। व्यवस्थापक भी खूँटा ढूंढ़ने में असफल रहा। इस पर ऊंटवाला परेशान हो गया कि इस ऊंट का क्या किया जाए?

इस बीच व्यवस्थापक को कुछ सूझा और उसने ऊंटवाले को एक तरकीब सुझायी। तरकीब के अनुसार उसने ऊंट के पास जाकर झूठमूठ का एक अभिनय किया, जैसे कि वह सचमुच ही खूँटा गाड़ रहा हो। फिर उसने अभिनय किया मानो वह रस्सी से उसे खूँटे के साथ बाँध रहा हो।

प्रातः उसे आगे जाना था। उसने सभी ऊंटों को खोला तो वे खड़े हो गए और चलने को तैयार हो गए। लेकिन सौवाँ ऊंट टस से मस नहीं हुआ। आखिर हार कर वह पुनः व्यवस्थापक के पास पहुँचा और उसे अपनी विपदा कह सुनायी। व्यवस्थापक ने उससे कहा- जैसे तुमने बाँधने का अभिनय किया था, अब ठीक वैसे ही खोलने का अभिनय करो। तभी यह ऊंट उठेगा।

ठीक यही हुआ। ऊंटवाले ने व्यवस्थापक के बताए अनुसार ठीक वैसा ही किया। अब न केवल ऊंट उठकर खड़ा हो गया, बल्कि चलने को भी तैयार हो गया। यह कथा सुनाते हुए आचार्य श्रीकृष्ण बोले- कहिए सेठ जी- अब आप बताइए इस प्रसंग से आप क्या समझे। सेठ जी अपना मौन तोड़ते हुए बोले- आचार्य जी! मेरे तो कुछ भी समझ में नहीं आया। आप ही कृपा करके इसे स्पष्ट करें।

आचार्य श्री सेठ की इस नादानी पर हंस पड़े और बोले- इस सौवें ऊंट जैसी ही हमारी गति है। हमारी आत्मा निर्बन्ध है- मुक्त है, निर्लेप है, पर हम हैं पूरे अज्ञानी। हम अज्ञानवश इसे जकड़े हुए हैं और स्वयं को विवश समझ रहे हैं। जबकि असलियत यह है कि सौवें ऊंट की ही तरह हम कहीं भी बंधे हुए नहीं हैं, पर भ्रमवश अपने को बंध हुआ मान रहे हैं। सर्वमान्य सच्चाई यही है कि अपने कष्टों एवं समस्याओं के स्वयं हम ही जिम्मेदार हैं।

आचार्य श्री यह कहकर चुप हो गए। श्रेष्ठी सुयश को अब समझ में आने लगा कि दोषी तो हम स्वयं ही हैं। यह सब हमारे मानने का ही चक्कर है। आत्मा निर्बन्ध है, पर हम इसे बंधा हुआ मान कर दुःखी होते रहते हैं। और जब बन्धन ही नहीं है, तब फिर अशान्ति कैसी? क्योंकि सारी अशान्ति तो बन्धन में है।

श्रेष्ठी सुयश भाव विह्वल होकर आचार्य श्री के चरणों में दण्डवत प्रणाम करने लगे। आचार्य श्री स्नेह उड़ेलते हुए बोले- ‘सेठ जी! यह तथ्य जानते तो सब हैं, पर मानता कोई नहीं। आप लगातार इतने दिनों से स्वाध्याय और सत्संग करके अपने मन को माँजते रहे हैं- इसीलिए यह बात आपको समझ में आ सकी।’

श्रेष्ठी सुयश कुछ कह पाते- इससे पहले ज्ञानमूर्ति, तपोनिष्ठ आचार्य श्री के अधरों पर एक दोहा उभर आया-

हानि तनिक न कर सकै, दुश्मन बैरी कोय। अधिक हानि निज मन करै, जो मन मैला होय।

श्रेष्ठी सुयश भी इस दोहे के भाव को गुनते हुए अपनी भावी साधना में प्रवृत्त होने की तैयारी करने लगे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118