‘निसिचर हीन करौं महि’- यह प्रण काल के भी काल भगवान् महाकाल का है। जो विश्वमानवता का समवेत स्वर बनकर इन दिनों चहुँ ओर गूँज रहा है। 11 सितम्बर 2001 के दिन आतंकवादी असुरता ने अमेरिका में जो कुछ किया, उससे लाखों-आंखें ही नहीं छलकी-करोड़ों का आक्रोश भी उभरा। निःसन्देह ये आतंकवादी हमले बर्बरता और क्रूरता की पराकाष्ठा हैं। कुछ मिनटों में लगभग बीस-तीस हजार लोगों की मृत्यु और 200 अरब डालर की सम्पत्ति का नाश ऐसी घटना है, जिसने अमेरिकावासियों को ही नहीं सारी दुनिया को स्तब्ध कर दिया।
हालाँकि आतंकवादी असुरता के कहर की यह पहली घटना नहीं है। 1988 से सन् 2000 तक समूची दुनिया में आतंकवाद की 45 हजार से भी अधिक घटनाएँ घट चुकी हैं। इनमें से करीब 15 हजार लोगों के प्राण भी जा चुके हैं। इसमें 11 सितम्बर वाली घटना भी शामिल कर लें तो यह आँकड़ा 30 से 35 हजार तक जा पहुँचेगा। इस अवधि में 4 हजार लोगों का अपहरण हुआ, करीब 11 हजार घर तबाह किए गए और सैकड़ों पुल उड़ाए गए। अनेकों गगनचुम्बी इमारतों को नेस्तनाबूद कर दिया गया।
23 जून 1985 को जब इस आसुरी प्रकोप का शुरुआती दौर था, एयर इण्डिया का विमान गायब किया गया। 328 विमान यात्री मारे गए। भारत के दो शिखर नेताओं- इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की हत्या की गयी। श्रीलंका के कई शिखर नेताओं को आत्मघाती दस्तों ने उड़ा दिया। अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद की दृष्टि से पिछले दशक में प्रतिवर्ष तकरीबन 300 से 400 आतंकवादी घटनाएँ हुई। पर पिछले दिनों अमेरिका में हुआ आतंकवादी हमला तो जैसे आतंकवादी कहर की पराकाष्ठा थी।
यद्यपि पिछले दशक में इज़राइल के प्रधानमंत्री की हत्या कुछ कम दर्दनाक नहीं थी। मिश्र के राष्ट्रपति हुसनी मुबारक पर जानलेवा हमला किया गया। संयुक्त राष्ट्र के भवन को उड़ाने की कोशिश की गयी। टोक्यो की भूमिगत ट्रेन में आतंकवादियों ने जहरीली गैस छोड़कर 5 हजार से अधिक यात्रियों को मौत के कगार पर पहुँचा दिया। संक्षेप में शीतयुद्ध के दौरान और समाप्ति के पश्चात् भी अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय आतंकवाद की घटनाओं में कोई कमी नहीं आयी, बल्कि उल्टे इसकी नयी-नयी खौफनाक शक्लें उभरकर सामने आती गयी।
पिछले दो दशकों की हमारी राष्ट्रीय-सामाजिक एवं साँस्कृतिक जीवन यात्रा इन्हीं खौफनाक शक्लों की दहशत की मार झेलती आयी है। पहले पंजाब, फिर पूर्वोत्तर क्षेत्र और जम्मू-काश्मीर, कहीं कुछ भी तो ऐसा नहीं बचा जहाँ से चीत्कारें न उठ रही हों, जहाँ से आग की लपटें और बारूद का धुआँ न उठ रहा हो। यह सब कुछ इतना विकट और वीभत्स है कि देश का अस्तित्व और अस्मिता दोनों ही दाँव पर लगे हैं। इसमें दोष किसका, कितना और क्यूँ? इसकी व्याख्या बहुतों ने की और बहुतेरे कर रहे हैं। हम तो यहाँ महाकाल द्वारा उजागर किए जा रहे उस प्रकृति सत्य की बात कर रहे हैं, जो इन दिनों अपेक्षाकृत अधिक मुखर और प्रखर बनकर प्रकट हो रहा है।
और यह काल सत्य यही है कि जब परिस्थितियों पर इन्सान का बस नहीं रहता तो भगवान् महाकाल स्वयं ही युग प्रत्यावर्तन की बागडोर सम्भालते हैं। आज जिनके पास देखने वाली आँखें हैं, सोच-समझ सकने वाली बुद्धि है वे देख सकते हैं, सोच और समझ सकते हैं कि आतंकवादी असुरता को जन्म देने वाले को अपने वैभव और समृद्धि का अनुदान देकर उसका पालन-पोषण करने वालों को किस तरह मजबूरी और बेबसी में उनका विरोध करना पड़ रहा है। इन दिनों जो कुछ भी और जिस तरह भी हो रहा है, उसे उज्ज्वल भविष्य की प्रथम किरण और नवयुग के निर्माण का प्रथम चरण समझा जाना चाहिए।
घटनाओं का बाह्य स्वरूप अवश्य पीड़ादायक है। परन्तु यह सब मनुष्यता के विष को निचोड़ने का उपक्रम भर है। इस क्रम में दर्द की कराहटें अवश्य हैं, पर यही आगे चलकर स्वस्थ मानवीय जीवन का रूप ले लेंगी। आसुरी तत्त्वों और शक्तियों से संघर्ष की इस बेला में दैवी शक्तियों का एक पूरा समूह कार्यक्षेत्र में उतर पड़ा है। सूक्ष्मद्रष्टा इसे देख भी रहे हैं और अपनी भागीदारी भी निभा रहे हैं। इनमें से किसका, कितना परिचय किसे मिल सका इसका कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व इसका है कि आतंकवादी असुरता को कैसे-किस विधि से पराजित, परास्त और नेस्तनाबूद किया जाय।
विनाश का सरंजाम जुटाने वाले असुर निश्चित ही बलिष्ठ होते हैं, पर देवों की बलिष्ठता उसे कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी होती है। जो समय रहते मैदान में उतरते हैं और बिगड़ी को बनाकर ही दम लेते हैं। यह समय-समय पर भूतकाल में भी होता रहा है। और यही अब भी हो रहा है। महान् परिवर्तन के लिए देवशक्तियों की एक विशाल सेना युद्धक्षेत्र में उतर पड़ी है। इसकी गतिविधियों के परिणाम हम सब अगले ही दिनों अपनी आँखों से देखेंगे।
वर्तमान स्थिति जो कुछ भी है अपने भारत देश की महान् भूमिका में जाने से पूर्व की स्थिति है। भारत ने असुरता का पर्याप्त दंश झेला है और अभी भी वह इसके प्रभाव से गहरी पीड़ा में है। इन दिनों और आगामी कुछ वर्षों में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ जन्म लेंगी, जिससे उसकी पीड़ा दूर होगी। यही नहीं पीड़ा मुक्त भारत में कुछ ऐसी सृजन सामर्थ्य का विकास होगा, जिससे कि वह भावी नेतृत्व की नवीन भूमिका का सार्थक ढंग से निर्वाह कर सके। पर इन दिनों उसे पर्याप्त सावधानी स्वयं की शक्तियों को नष्ट होने से बचाना है। और उन्हें विकसित एवं समृद्ध करना है।
क्योंकि आज जो कुछ भी विश्व परिदृश्य में घटित हो रहा है। वह सिर्फ उतने तक ही सीमित नहीं रहेगा। आसुरी तत्त्व मरते-मरते भी काफी कुछ उत्पात मचाने से किसी भी तरह से न चूकेंगे। फिर भी सब कुछ के बाद ‘निसिचर हीन करौं महि’- इस धरती को राक्षसी तत्त्वों से रहित करने की युग प्रत्यावर्तन की योजना अवश्य पूरी होगी। क्योंकि यह स्वयं भगवान् महाकाल का प्रण है। इसके लिए जो और जैसा उचित होगा, प्रकृति वैसी व्यवस्था जुटाएगी। मानवीय योजनाएँ धरी रह जाएगी। सत्ता और शासन के नए गठजोड़ उभरेंगे। और थोड़ी बहुत ना नुकुर के बावजूद प्रायः सभी को आसुरी तत्त्वों एवं शक्तियों से लोहा लेने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। प्रकृति एवं परिस्थितियों का दबाव उनसे सहज ही वैसा करा लेगा।
बात कठिन है, लेकिन होना ऐसा ही है। ईश्वरीय कृतियों को हमेशा ही चमत्कार कहा जाता है। वह घोर अंधकार के बीच न जाने कहाँ से सूर्य का गरमागरम गोला निकाल देते हैं। चिर अभ्यास में आ जाने के कारण हालाँकि यह सब अजनबी नहीं प्रतीत होता। पर वस्तुतः है तो सही। आकाश में न जाने कहाँ से बादल आ जाते हैं और न जाने किस प्रकार बरस कर सारा जल-जंगल एक कर देते हैं। यह अचम्भा ही अचम्भा है। ऐसा कुछ अचम्भा इन दिनों भी होने जा रहा है। जिसकी अगली कड़ी विश्व चिन्तन में भारी उथल-पुथल के रूप में प्रकट होगी। विचार क्रान्ति ही इसकी दिशा निर्धारित करेगी और युग परिवर्तन को साकार रूप देगी।