‘अगले दिनों संसार का समग्र परिवर्तन करके रख देने वाला एक भयंकर तूफान विद्युत गति से बढ़ता चला आ रहा है, जो इस सड़ी-गली दुनिया को समर्थ, प्रबुद्ध, स्वस्थ एवं समुन्नत बनाकर ही शाँत होगा।’ (अखण्ड ज्योति पृष्ठ 65 सितंबर 1981)
‘यदि पूरा भगवान एक जगह जन्में तो फिर शेष सारे संसार की व्यवस्था कौन संभालेगा। सदा अंशावतार ही होते हैं। अवरण की वेला में एक नहीं, प्रबुद्ध आत्माएं एक साथ अवतरित होती है और वे मिलजुलकर दैवी प्रयोजनों की पूर्ति करती है।’ (अखण्ड ज्योति पृष्ठ 16 अक्टूबर 1967)
‘यदि पूरा भगवान एक जगह जन्मे तो फिर शेष सारे संसार की व्यवस्था कौन संभालेगा। सदा अंशावतार ही होते हैं। अवतरण की वेला में एक नहीं, प्रबुद्ध आत्माएं एक साथ अवतरित होती हैं और वे मिलजुलकर दैवी प्रयोजनों की पूर्ति करती हैं।’ (अखण्ड ज्योति पृष्ठ 16, अक्टूबर 1967)
यहाँ दो संदर्भ युगद्रष्टा पूज्यवर की लेखनी से दिए गए हैं। इन्हें भी पढ़ें तथा पृष्ठ 61-62 पर दिए गए लेख ‘युगद्रष्टा दो महापुरुष और आज का युगधर्म’ विषय पर अभिव्यक्तियों का भी मनन करें। हीरक जयंती साधना वर्ष के एक बड़े महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े हैं हम सभी। सारे विश्व में महायुद्ध के बादल मंडरा रहे हैं। विश्व एक महात्रासदी से गुजर रहा है। जो भी परिस्थितियाँ पैदा हुई हैं, अप्रत्याशित नहीं है, पर निश्चित ही यह संकट टलेगा, नवसृजन की संभावनाएं , साकार होंगी एवं वर्तमान विभीषिका का समापन होगा। समय कुछ अधिक लग सकता है, परिस्थितियाँ आगामी कुछ माह में और जटिल हो सकती हैं, पर यह जो अवधि 2002 के मध्य तक के कुछ दिनों तक की हैं, बड़ा विशेष स्थान रखती है युगपरिवर्तन की प्रक्रिया में। संकटों का सामना अधिक जागरुकता एवं साहसिकता के साथ करने के लिए सभी को अपेक्षाकृत अधिक तत्परतापूर्वक कटिबद्ध होना चाहिए। निराशा को जरा भी पास नहीं फटकने देना चाहिए। सतयुग की वापसी जैसी महान उपलब्धि के स्वप्न संजोए ही रखने चाहिए।
प्रतिकूलताएं हटेंगी, नवसृजन का लक्ष्य पूरा होगा
जो भी कोई दंगल में लड़ने की इच्छा रखता है, उस पहलवान को चोटें भी खानी पड़ती हैं, वर्जिश भी पूरी करनी होती है, पर दंगल जीतने का गौरव मन में उमंगें भरता रहता है। विद्यार्थी जो डॉक्टर या इंजीनियर बनना चाहते हैं, फीस देने, पुस्तकें खरीदने के अलावा और भी कुछ यत्न करते रहते हैं, विशेष कोचिंग लेते हैं एवं कॉलेज की नियमित प्रायः 9-10 वर्ष की पढ़ाई में भी अनवरत लगे रहते हैं। कोई यह सोचे कि बिना स्कूल या कॉलेज जाए काम चल जाए व ऐसे ही पुरस्कार रूप में डिग्री मिल जाए, तो यह शेखचिल्ली का ख्वाब कहा जाएगा। न छात्र ऐसा सोचते हैं न अभिभावक उन्हें बढ़ावा देते हैं। अध्यापक भी ऐसी उपेक्षा दिखाने वालों पर अप्रसन्न ही होते हैं। युगसंधि के इन विशिष्ट दिनों में प्रतिभावानों का अन्यमनस्क रहना, असमंजस में या अकर्मण्यता में पड़े रहना ऐसा ही अपनाया गया अवरोध कहा जाएगा, जिससे किसी को यह भले ही लगता हो की तत्काल तो राहत मिल गई, सुविधा में समय कट गया, पर भविष्य तो निश्चित ही अंधकारमय एवं विपन्न ही कहलाएगा।
अग्निपरीक्षा में जब धातु खंड को गुजारा जाता है तो उस पर जो भी बीतता हो, जब कसौटी पर कसे जाने और तपाने में अधिक चमकने की प्रामाणिकता सिद्ध हो जाती है, तो फिर किसी को क्वालिटी-गुणवत्ता पर कोई संदेह नहीं रह जाता। खरे सोने को महत्त्व दिया जाता है, उच्च स्तर पर उसका मूल्याँकन होता है। यह उदाहरण आज की परिस्थितियों पर पूरी तरह लागू होता है। वरिष्ठों, विशिष्ठों, विशेषज्ञों ही नहीं सामान्यजनों की भी खरी परीक्षा का समय है यह। आगामी इस समय में जो पूर्णतः श्रेष्ठतम स्थिति में पहुँचने में भी दस-ग्यारह वर्षों का समय और लेगा, सभी को विकट परीक्षाओं की घड़ी से गुजरना है, यह किसी प्रकार की तप−साधना से कम नहीं है।
सप्तर्षियों की तप−साधना सुप्रसिद्ध है। ऋषिश्रेष्ठ विश्वामित्र जिनने नवयुग की कल्पना की, नूतन सृष्टि की रचना की एवं गायत्री मंत्र के ऋषि कहलाए, कठोर तप से ही ब्रह्मर्षि बन पाए। सप्तर्षियों की तपःस्थली शाँतिकुँज भी मूल रूप में उन्हीं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की तपोभूमि है।
सप्तर्षियों ने तप किया तो वे अजर-अमर बनकर आकाश में जाकर स्थापित हुए, चमकने-दमकने लगे। ध्रुव को ब्रह्माँड का ध्रुवकेन्द्र बनने का अवसर तप-साधना से ही मिला था। च्यवनऋषि जब तप में निरत हुए तो वे सुकन्या जैसी पत्नी एवं अश्विनीकुमार जैसे चिकित्सक पा सके और जराजीर्ण शरीर का कायाकल्प करके खोए यौवन को पुनः प्राप्त कर सकने में सफल हुए।
पार्वती ने भी सती का जन्म पाने के बाद अपने आराध्य को खोने पर लंबा तप करके शिव को पति के रूप में वरण कर सकने का सुयोग पाया। अनुसूया की तपस्या भी भगीरथ गंगा की तरह मंदाकिनी धरती पर लाने में सफल हुई। कुँती, अंजनी, शकुँतला, गार्गी, मैत्रेयी, कात्यायनी ने भी अपने-अपने स्तर के तप करके उच्चस्तरीय उपलब्धियाँ अर्जित कीं। स्वयं मनु और शतरूपा की तपस्या ही उन्हें अवतारों की जन्मदात्री बना सकी।
जमीन से सभी धातुएं मिट्टी मिली हुई अयस्क (और ओ.आर.ई.) के रूप में उपलब्ध होती है। उन्हें भट्टी में तपाने के उपराँत ही महत्वपूर्ण कामों में आ सकने योग्य बनाया जाता है। अग्नि संस्कार के बाद गलाई-ढलाई करने पर ही उपकरण-औजारों का निर्माण संभव हो पाता है। सूर्य का तपता तेज न हो तो समुद्र का खारा पानी भाप बनकर न बादल बने और न हम सबको पेयजल मिले। पारद जैसी विष समान धातु भी अग्नि संस्कार-तप के माध्यम से संजीवनी औषधि बन जाती है। आयुर्वेद की सभी गुणकारी भस्में लौह, ताँबा, पारद, हीरा तथा मकरध्वज तपाए जाने पर ही गुणकारी बनती है। ईंटें आँवे में पककर ही मजबूत होती है। यह तप-संस्कार जहाँ भी संपन्न होता है, परिणाम फलदायी ही होते हैं।
गंगा की गोद, हिमालय की छाया में स्थित शाँतिकुँज तप-साधना के संस्कारों से अनुप्राणित है। नित्य इस सीमित साठ एकड़ के परिकर में जितना गायत्री जप संपन्न होता है, उसकी संख्या करोड़ों में जाती है। पाषाण परिकर हिमालय देवात्मा है, क्योंकि उसकी कंदराओं में रहकर अगणित तपस्वी ऋषियों ने अपनी प्रचंड तपऊर्जा का समावेश किया एवं अभी भी कर रहे हैं। उसी की छाया में, वादियों में प्रवेश द्वार पर स्थित हरिद्वार की इस पावन तपोभूमि में निरंतर कुछ साधक मौन एकाकी तप−साधना भी कर रहे हैं,जो 26 अक्टूबर से निरंतर चल रही है एवं आगामी नवरात्रि तक चलती रहेगी। इसके अतिरिक्त दो हजार से अधिक साधक नौ-नौ दिन के अपने अनुष्ठान यहाँ आकर करते हैं। एक वर्ष के लिए आरंभ हुई अभियान साधना विगत गायत्री जयंती से आरंभ हुई थी। इसे करने वालों की बड़ी संख्या शाँतिकुँज में भी है एवं क्षेत्र में तो यह संख्या लाखों में चली जाती है। अब इसे 2002 की समाप्ति गीताजयंती 15 दिसंबर तक आगे बढ़ा दिया गया है। नियमित गायत्री साधना इसके अतिरिक्त सभी परिजन कर रहे हैं।
युगचेतना का उद्भव ऋषिकल्प सामूहिक तपश्चर्या पर भी ही बहुत कुछ निर्भर है। रचनात्मक दृष्टि से हर प्रयास किया जाना चाहिए। भौतिक स्तर पर प्रत्यक्ष प्रयासों का अपना महत्व है, पर तप से ही आरंभ हुए इस मिशन गायत्री परिवार का साधना आँदोलन एक विशेष उद्देश्य के साथ आरंभ किया गया है। यह मात्र उपासना तक सीमित न रह जीवन साधना बन जाए, हर श्वास में योगसाधना, संयम तपश्चर्या का समावेश हो जाए, तो वातावरण निश्चित ही बदलेगा।
परमपूज्य गुरुदेव द्वारा संपन्न 24-24 लक्ष की 24 महापुरश्चरणों की साधना युगपरिवर्तन-सतयुग की वापसी हेतु सुरक्षित रखी हुई है। उस ‘फिक्स्ड डिपॉजिट’ के ब्याज से ही मिशन की इतनी बड़ी-बड़ी योजनाएं पूरी हुई हैं। साथ में देव कन्याओं द्वारा 1971-72 में संपन्न इतना बड़ा तप का कोष परमवंदनीया माताजी की पचास वर्ष की तप−साधना भी है। विशिष्ट अमडडडड तो इस युगपरिवर्तन की महान प्रक्रिया में अपना विशिष्ट तप नियोजित करेंगी ही, पर सर्वसाधारण भी जुड़ जाए, तो न केवल युगधर्म का निर्वाह होगा, वे अनुदानों के लाभार्थी भी बनेंगे। संयुक्त देवशक्ति द्वारा दैवी दुर्गा के अवतरण का एक अभिनव प्रयोग चल रहा है और हम सबको उसमें भागीदारी करनी चाहिए।