शरीर पंचतत्वों का बना है। हाथ की पाँच अंगुलियाँ इनकी प्रतीक-प्रतिनिधि हैं। जब कभी इन तत्वों के असंतुलन से शरीर में कोई उपद्रव खड़ा होता है या कोई व्याधि आती है, तो पृथक-पृथक अंगुलियों के पारस्परिक स्पर्श से उन तत्वों को उत्तेजित कर संतुलन कायम किया जाता है। अंगुलियों के संपर्क का यह तरीका ‘मुद्रा’ कहलाता है। इन मुद्राओं को यदि व्यक्ति नियमित रूप से करता रहे, तो उसकी स्वस्थता अक्षुण्ण बनी रह सकती है, ऐसा विशेषज्ञों का मत है।
अंगूठा अग्नितत्व को निरूपित करता है। तर्जनी वायु तत्व प्रधान है। मध्यमा आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व करती है। अनामिका में पृथ्वी तत्व का वास है, जबकि जल तत्व कनिष्ठा की विशेषता है। इन तत्वों के नियत आनुपातिक समन्वय से काया तंदुरुस्त बनी रहती है और मनुष्य प्रसन्न। इसे मानवी ज्ञान की विशिष्टता ही कहनी चाहिए कि उसने शारीरिक स्वस्थता के संदर्भ में अनेकों धाराएं ढूँढ़ निकाली हैं और हर एक के गहन अंतराल में उतरकर एवं व्यापक विस्तार में जाकर उसे ‘विज्ञान’ का स्वरूप प्रदान किया है। जड़ी-बूटी चिकित्सा, प्राकृतिक चिकित्सा, पंचकर्म, रस-भस्म, प्राण चिकित्सा, गंध चिकित्सा, चुँबक उपचार, यज्ञोपचार, एलोपैथी, होम्योपैथी, बायोकेमिक सब इसी शृंखला की कड़ियाँ हैं। सभी शरीर में व्याप्त पंचतत्वों के उस असंतुलन को ही न्यूनाधिक रूप में दूर करते हैं, जिसके कारण रोग उत्पन्न होते हैं। मुद्रा विज्ञान इन्हीं में से एक उपचारपद्धति है। यह हठयोग का एक अंग है। हठयोग की क्रियाएं प्राण-प्रवाह को सुचारु बनाती है। प्रवाह में किसी प्रकार के अवरोध की उपस्थिति ही अस्वस्थता का कारण है। यह अड़चन पंचतत्वों में से किसी के अति सक्रिय अथवा निष्क्रिय हो जाने के कारण उत्पन्न होती है। मुद्रा द्वारा इसी बाधा को दूर किया जाता है। इस दौरान जब दो या दो से अधिक अंगुलियों का स्पर्श करते हैं, तो उससे एक विद्युतीय तरंग पैदा होती है, जो तत्संबंधी तत्व की अनियमितता को दूर कर प्राण-प्रवाह को दुरुस्त करती है। यही आरोग्यता है।
मुद्राएं यों अनेकों हैं, पर यहाँ पर सबका उल्लेख न कर उनमें से केवल आठ का वर्णन किया जा रहा है। स्वास्थ्य-संरक्षण की दृष्टि से यह अतीव महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी हैं। इन्हें अपनाकर हर कोई नीरोग बना रह सकता है। ये निम्न हैं-
प्राण मुद्रा
सामान्य स्वास्थ्य हेतु यह अत्यंत ही उपयुक्त है। इससे हर प्रकार के प्राणघातक रोगों का शमन होता है। जैसा कि नाम से स्पष्ट हैं, यह शरीरगत प्राण-प्रवाह को एकदम आदर्श स्थिति में बनाए रखती है। इस मुद्रा के करने से जो ऊर्जा को शक्ति और स्फूर्ति से भर देती है। इसके कारण प्रौढ़ जीवकोशों में भी यौवन की सक्रियता और गतिशीलता दिखलाई पड़ने लगती है, जिससे देहगत क्रियाएं संतुलित, नियमित और सामान्य बनी रहती है।
यह मुद्रा रोग प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाती है और शरीर को ऐसी सामर्थ्य प्रदान करती है कि वह जानलेवा रोगों का मुकाबला कर सके। कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों में यह विशेष रूप से लाभकारी पाई गई है। देखा गया है कि रोगी जितना अधिक इसका अभ्यास करता है, परिणाम उतना ही उत्साहवर्द्धक सामने आता है। इसके अतिरिक्त थाइराइड संबंधी जटिलताओं एवं विभिन्न प्रकार के नेत्र रोगों में भी इसके नतीजे उल्लेखनीय पाए गए हैं।
अंगूठा, अनामिका और कनिष्ठा के मेल से यह मुद्रा बनती है। इन तीनों अंगुलियों के सिरों को मिलाकर इस प्रकार रखा जाता है कि उनका परस्पर हलका स्पर्श होता रहे, जबकि शेष दोनों अंगुलियाँ अर्थात् तर्जनी और मध्यमा सीधी बनी रहें। इससे आँखों के अंदर स्पष्ट हलचल तत्काल अनुभव की ज सकती है। यह मुद्रा जल, पृथ्वी और अग्नि तत्व का सम्मिलन है।
ज्ञान मुद्रा
इस मुद्रा से मस्तिष्कीय क्षमताओं का विकास होता है, स्मरण शक्ति बढ़ती और एकाग्रता गहरी होती है, चिंतन सामर्थ्य में पैनापन आता है और सीखने समझने की क्षमता प्रखर होती है। इसके अतिरिक्त मस्तिष्क संबंधी रोगों का निदान होता है। अनिद्रा के रोगियों को इससे विशेष लाभ होता देखा गया है। जो व्यक्ति चिड़चिड़े स्वभाव के और क्रोधी हैं, वे इसके नियमित अभ्यास से अपनी प्रकृति परिवर्तित कर सकते हैं।
ज्ञान का अर्थ होता है-ऋतंभरा प्रज्ञा। जो ज्ञान हमें सत्य-असत्य, सही-गलत, वास्तविक-अवास्तविक में अंतर करने का विवेक प्रदान करे, वही वास्तविक ज्ञान है। उसे उपलब्ध करने के लिए आध्यात्मिक अनुशासनों का सहारा लेना पड़ता है और जीवन को इतना तपपूर्ण बनाना पड़ता है कि केवल इस पथ के पथिक ही उसे कर गुजरने में सफल हो पाते हैं, दूसरे नहीं। इसी ज्ञान की प्रतीक यह ज्ञान मुद्रा है। इस मुद्रा को अक्सर भगवान बुद्ध को ध्यानस्थ प्रतिमाओं में देखा जा सकता है।
इस मुद्रा के अभ्यास से मस्तिष्क में रक्त संचार की गति बढ़ जाती है, जिससे न्यूरान्स नए ओज के साथ अपनी गतिविधियों में मुस्तैद हो जाते हैं। इससे दिमाग से संबंधित समस्याओं का निराकरण होने लगता है।
ज्ञानमुद्रा में केवल दो अंगुलियों का प्रयोग होता है- अंगूठा और अनामिका । दोनों के सिरों को आपस में स्पर्श किया जाता है और शेष तीनों अंगुलियाँ सीधी रहती हैं। इस स्पर्श के साथ ही मस्तिष्क में एक शमनकारी प्रभाव उत्पन्न होता है, जो बढ़ते-बढ़ते तंद्रा जैसी स्थिति में रूपांतरित हो जाता है। यदि बिस्तर पर लेटे-लेटे इसे किया जाए, तो यही बाद में नींद में बदल जाती है। इस मुद्रा में अग्नि और वायु तत्वों का संयोग होता है।
ध्यान मुद्रा
इसे करने से मन-मस्तिष्क में एक ऐसी शाँति का अवतरण होने लगता है, जो सुखकर होती है। सारे तनाव, सारी उलझनें, जो दिमाग को आलोड़ित करती हैं और उद्भिजों की तरह एक-एक करके मानसपटल पर उगती डूबती रहती है, उनका धीरे-धीरे शमन हो जाता है। मस्तिष्क के निश्चिंत हो जाने पर परेशान मनोदशा से व्यक्ति जब इस अवस्था में प्रवेश करता है, तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो वृक्ष की शीतल छाया में वह विश्राम कर रहा हो। ध्यान तभी लगता है, जब मन शाँत हो। उक्त मुद्रा इस प्रयोजन की पूर्ति करती है, इसलिए इसे अक्सर ध्यान-साधना के अभ्यासी करते पाए जाते हैं। इसका नाम इसी कारण ध्यान मुद्रा रखा गया है।
इस संपूर्ण शरीर में एक शिथिलीकरण प्रभाव पैदा हो जाता है, जिससे काया से समस्त अवयव नहीं स्फूर्ति और ताजगी से भरे उठते हैं। यही कारण है कि इस अवस्था से अभ्यासी जब बाहर आता है, तो वह अपने अंदर एक नई ऊर्जा और उत्साह का स्पंदन अनुभव करता है।
इस मुद्रा को प्रायः बैठकर करने का विधान हैं। इसके लिए दोनों हाथ गोदी में रखे जाते हैं- बायाँ हाथ नीचे दांया हाथ ऊपर। ऐसा करते ही मन-मस्तिष्क शाँत होने लगते हैं। यदि चित्त को तनिक नियंत्रित रखा जा सके, तो यह अवस्था शनैः शनैः बढ़ती हुई एक ऐसी स्थिति में जा पहुँचती है, जिसमें चिंतन का केन्द्रीय संस्थापन पूर्णतः निर्विचार दशा में आ जाता है, जो काफी आनंददायक होता है।
वरुण मुद्रा
यह वृक्क संबंधी समस्याओं को दूर करने के लिए अत्यंत उपयोगी मुद्रा है। इसके अतिरिक्त यह रक्त संबंधी विकारों को भी मिटाती है। वरुण अर्थात् जल। इसलिए इसके द्वारा शरीर में जल की कमी से उत्पन्न सभी प्रकार की जटिलताओं का निराकरण होता है। हमारे शरीर में लगभग 85 प्रतिशत जल है। जब कभी यह अनुपात घटता है, तो शरीर तंत्र असंतुलित हो जाता है। देह में जकड़न पैदा हो जाती है एवं खून अपनी संपूर्ण क्षमता से कार्य नहीं कर पाता। काया में अग्नि तत्व के हावी होने से यह स्थिति पैदा होती है, जिसको आसानी से यह मुद्रा दूर करती हैं।
यह मुद्रा काफी सरल है। इसमें अंगूठे के शीर्ष को कनिष्ठा के शीर्ष से मिलाना पड़ता है। शेष तीन अंगुलियाँ सीधी रहती है। यहाँ अग्नि तत्व का जल तत्व से संयोग होता है।
लिंग मुद्रा
इससे वक्षस्थल से संबंधित हर प्रकार की कमजोरी समाप्त हो जाती है। इसे करने से एक ऐसी शक्तिधारा उत्पन्न होती है, जो संपूर्ण शरीर में गर्मी पैदा करती है। अतः यह मुद्रा ठंड के दिनों में शीत से बचने के लिए एक उपयोगी उपाय है। इसके अतिरिक्त सर्दी, जुकाम और खाँसी के पुराने रोगियों के लिए यह काफी लाभकारी है। इसे नियमित रूप से करने वाले रोगी इससे आश्चर्यजनक फायदा उठाते देखे गए हैं।
शरीर में अग्नि तत्व पहले से ही मौजूद है, पर जल तत्व की सक्रियता के कारण जब कभी इसका संतुलन बिगड़ता है, तो व्यक्ति ‘कफ प्रधान’ बन जाता है। ऐसा आदमी सदा सर्दी, जुकाम, नजला, खाँसी से परेशान रहता है। इस पर काबू पाने का एकमात्र उपाय यही है कि देह में तत्वों का संतुलन स्थापित हो और कमजोर पड़ा अग्नि तत्व सक्रिय होकर जल तत्व की प्रधानता को निरस्त करे। लिंग मुद्रा इसी उद्देश्य को पूरा करती है।
लिंग मुद्रा को करने के लिए पहले दोनों हथेलियों को आपस में मिलाना पड़ता है, तत्पश्चात अंगुलियों को परस्पर गूँथते हुए ऐसा शिकंजा बनाना पड़ता है कि बायें हाथ के अंगूठे के ऊपर दायें हाथ का अंगूठा रहे। फिर दाएं हाथ का अंगूठा और तर्जनी उसे चारों ओर से इस प्रकार कसकर पकड़ें बायें हाथ का अंगूठा लगभग सीधी खड़ी स्थिति में आ जाए, तदुपराँत दोनोँ हाथों का शेष अंगुलियाँ भी एक-दूसरे से आबद्ध हो जाएं। यह लिंग मुद्रा है। अंगूठा अग्नितत्व का वाहक है। अस्तु, मुद्रा के दौरान उस पर जब चतुर्दिक् दबाव पड़ता है, तो उसका अग्नि तत्व उत्तेजित होकर संपूर्ण शरीर को ऊष्मा प्रदान करता है। इससे कफजनित बीमारियाँ शाँत होने लगती हैं।
सूर्य मुद्रा
यह मुद्रा व्यक्ति में सक्रियता और गतिशीलता पैदा करती एवं सुस्ती और आलस्य को दूर भगाती है। सूर्य प्रखरता का प्रतीक है। उसकी अनुपस्थिति में रात्रि के समय प्राणिमात्र को निद्रा, निष्क्रियता, अनुत्साह, आलस्य जैसे तत्व घेरे रहते हैं। प्रातः जब भगवान भास्कर अपनी अरुणिमा बिखरते हैं, तो कीट-पतंगों से लेकर मनुष्य तक में चैतन्यता दौड़ पड़ती है और सब अपनी-अपनी गतिविधियों में व्यस्त हो जाती हैं। यह अंशुमाली का प्रताप है। इसी के कारण संसार जागता और सोता है।
उक्त मुद्रा अभ्यासकर्त्ता में ऐसी ही उमंग का संचार करती है। उससे तन-मन इतना हलका हो जाता है और ऐसी स्फूर्ति अनुभव होती है कि सुस्ती का पता तक नहीं चलता। साथ ही इसके नियमित और लंबे समय तक के अभ्यास के बाद कर्त्ता में कुछ अलौकिक शक्ति भी प्रकट हो सकती है, ऐसा मुद्रा विज्ञान के आचार्यों का मत है।
इस मुद्रा में अनामिका और अंगूठे का इस्तेमाल होता है। इसमें सर्वप्रथम अनामिका अंगुली द्वारा अंगूठे के आधार को छूना पड़ता है। उसके बाद अंगूठे को अनामिका के पोरुवे के ऊपर रखते हैं। यह सूर्य मुद्रा हुई। इसमें परस्पर अग्नि और पृथ्वी तत्व मिलते हैं।
वायु मुद्रा
आयुर्वेद में वायुजनित बीमारियों को वात प्रकोप कहा जाता है। वात जब कुपित होता है तो अस्थि-संधियों में दर्द शुरू हो जाता है, जिसे गठिया या संधिवात का रोग कहते हैं। मुद्रा वायु विकार को दूर कर देह में उसका संतुलन समीकरण बनाए रखती है। अस्तु जो संधिशोध या संधिवात से पीड़ित हैं, उनके लिए यह मुद्रा विशेष रूप से लाभकारी है। इसके अतिरिक्त पक्षाघात में भी इससे फायदा होता है। अच्छे परिणाम के लिए प्राणमुद्रा के साथ इस मुद्रा को बारी-बारी से किया जाता है। यह मुद्रा दाँत दर्द, सिर दर्द, पेट दर्द जैसे शूलों में निष्प्रभावी होती हैं, कारण कि ऐसे दर्द वायु प्रकोप के कारण नहीं होते।
यह मुद्रा सूर्य मुद्रा के ही समान है। अंतर सिर्फ इतना है कि यहाँ अनामिका अंगुली की जगह तर्जनी का प्रयोग होता है। तर्जनी द्वारा अंगूठे की जड़ को छूते और हलका सा दबाते हैं। फिर अंगूठे को उसके पोर के ऊपर झुकाते हुए इस प्रकार रखा जाता है कि तर्जनी अंगुली पर थोड़ा दबाव पड़े। यहाँ अग्नि और वायु तत्व का युग्म बनता है।
पृथ्वी मुद्रा
खनिज तत्वों एवं विटामिनों की कमी जब शरीर में होती है, तो आदमी कमजोरी महसूस करने गलता है। ऊपर से देह के हृष्ट-पुष्ट और मजबूत दिखाई पड़ने पर भी भीतर से वह दुर्बल और खोखला बनता जाता है। ऐसा व्यक्ति यदि थोड़ा-सा श्रम कर ले, तो बुरी तरह थक जाता एवं आगे और मेहनत करने की हिम्मत नहीं रह जाती। ऐसे लोगों के लिए पृथ्वी मुद्रा अत्यंत उपयोगी है।
इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर में ऐसी प्रखर ऊर्जा का संचार होता है कि जो अंग अवयव अब तक इसके अभाव के कारण दीन-दुर्बल जैसी स्थिति में पड़े हुए थे, वे अचानक इतने सबल और सशक्त हो उठते हैं कि काया को पहले वाली विपन्नता का आभास तक नहीं मिलता। वह अंदर से बलिष्ठता अनुभव करने लगती है।
उत्पन्न शक्ति मन को भी प्रभावित करती है, जिससे व्यक्ति के मस्तिष्क में अधिक खुलापन आ जाता है। उसके विचार करने की शैली बदल जाती है। उसमें लचीलापन झलकने लगता है और पूर्व के उसके दुराग्रही स्वभाव में उल्लेखनीय कमी आ जाती है। अंगूठे और अनामिका अंगुली के सिरों को मिलाने से यह मुद्रा बनती है। इसमें अग्नि और पृथ्वी तत्व आपस में समन्वित होते हैं।
मुद्राएं एक बार में कम-से-कम 45 मिनट तक दोनों हाथों से करनी चाहिए। एक बार में इतना संभव न हो सके, तो उसे 30 एवं 15 मिनट के दो खंडों में बाँट लेना चाहिए।
पंचतत्वों के असंतुलन को दूर करना मुद्रा का कार्य है। इससे देह की स्वस्थता और क्षमता बढ़ती है तथा मन-मस्तिष्क अधिक अनुशासित और आध्यात्मिक बनते हैं। इससे हर एक को लाभ उठाना चाहिए।