प्रकृति के प्रकोपों से कैसे बचें

December 2001

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मनुष्य ने विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति के साथ जो खिलवाड़ की है, हिमालय क्षेत्र भी उससे अछूता नहीं रहा है। देश का यह अत्यधिक संवेदनशील भूभाग पर्यावरणीय विनाश के दौर से गुजर रहा है। हिमालय की कोमल हरियाली को रौंदते विलासी पर्यटक एवं पर्वतारोही तथा इसके वनों की अंधाधुँध कटाई करते लालची मानव ने इसके हरे कवच को बेतहाशा नुकसान पहुँचाया है। ज्ञातव्य हो कि पर्यावरणीय संतुलन की दृष्टि से इस क्षेत्र में 60 प्रतिशत वन संपदा का आच्छादन अनिवार्य था, लेकिन वनों के अंधाधुँध विनाश ने इस सीमा को कबका लाँघ दिया है। उपग्रहों से प्राप्त चित्रों के अनुसार आज इसमें 20 प्रतिशत से भी कम वन क्षेत्र शेष बचा है। इस स्थिति से उत्पन्न पर्यावरण असंतुलन, हिमालय क्षेत्र में बादल फटने से लेकर प्रलयंकारी बाढ़ व ग्लेशियर पिघलने से लेकर नदियों में जल संकट की विपन्नताओं के रूप में अपना कहर बरपा रहा है।

उत्तराँचल व हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में बादल फटने की घटनाएं भयंकर तबाही का दृश्य प्रस्तुत कर रही है। पिछले वर्ष अगस्त माह में उत्तराखंड के धर्मगंगा जल ग्रहण क्षेत्र में बादल फटने की घटना के परिणामस्वरूप आई बाढ़ ने धर्मगंगा जल ग्रहण क्षेत्र में अब तक यह सबसे भयंकर बाढ़ थी, लेकिन जल स्तर इतना नहीं था। इसी तरह 19 जून की रात को रणखंडी खड्ड में बादल फटने के रूप में प्रकृति का प्रकोप बरसा था। जिसके परिणामस्वरूप आई बाढ़ से बड़े पैमाने पर खेत-खलिहान, पुल, स्कूल भवन, चक्कियों व विद्युत, पेयजल योजनाओं को भारी क्षति हुई थी तथा दो किमी. लंबी झील बन गई थी।

इसी तरह गतवर्ष अगस्त माह में हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले की उच्च पर्वत श्रृंखलाओं में बादल फटने की घटना घटी। इससे यहाँ की आँध्रा नदी में अचानक आई बाढ़ ने विनाश को जो ताँडव किया, उसमें 139 आदमी बह गए, दर्जनों लोग घायल हुए। पूरा रोहडू उपमंडल समूचे देश से बिलकुल कटा रहा। इस दुर्घटना में 70 करोड़ रुपये के नुकसान होने का अनुमान है। इसके अतिरिक्त प्राँत के विभिन्न भागों में व्यापक वर्षा, बाढ़, भूस्खलन एवं आकाशीय बिजली गिरने से भारी तबाही हुई। इसी तरह पिछले वर्षों बादल फटने के कारण आई बाढ़ से पर्वतीय घाटी में स्थित शाट गाँव का नामोनिशान ही मिट गया था। पूरा-का-पूरा गाँव, खेत एवं मकानों के साथ पार्वती नदी में बह गया था।

बादल फटने के रूप में बरसने वाले प्रकृति के प्रकोपों का कारण खोजने वाले पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि इसका वृक्षों के कटने से गहरा संबंध है। वनस्पति विशेषज्ञों का कहना है कि आए दिन बादल फटने व उससे होने वाली तबाही को कम करने के लिए समुद्र तल से 4000 से 8000 फुट की ऊंचाई पर अधिक-से-अधिक वृक्ष लगाए जाने चाहिए। उनके अनुसार रूस व आल्पस के पर्वतीय क्षेत्रों में भी एक समय बादल फटने की घटनाएं जब-तब होती रहती थीं। खोजने पर पाया गया कि ये घटनाएं एक निश्चित ऊंचाई वाले क्षेत्र में वृक्षारोपण किया गया। अब आधी शताब्दी से वहाँ इस तरह की प्राकृतिक दुर्घटनाएं नहीं सुनाई देती।

हिमालय क्षेत्र में वनों के कटाव के कारण बरसात में वर्षा का 70 से 75 प्रतिशत जल नदियों में बह जाता है, जो मैदानों में बाढ़ का कारण बनता है। असम, बिहार की तरह पंजाब, हरियाणा व उत्तरप्रदेश भी हिमालय से निकलने वाली नदियों की उपत्यिका में बसे हुए हैं।

तिब्बत पर चीन का आधिपत्य होने के बाद ब्रह्मपुत्र के जलग्रहण क्षेत्र में जिसका बड़ा भू-भाग तिब्बत में है, जंगलों की बेरहमी से कटाई हुई है। अरुणाचल में पेड़ों की कटाई पिछले कुछ ही वर्षों में तीव्र हुई है। नेपाल में वन विनाश चरम सीमा पर पहुँचा है। भूटान में इसकी शुरुआत हुई है। जम्मू, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश व उत्तराँचल के पर्वतीय क्षेत्र पहले ही वनों की कटाई के लिए कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं।

देश में बाढ़ की प्रथम दस्तक पूर्वोत्तर के असम राज्य में होती है। असम के जीवन की पर्याय ब्रह्मपुत्र नदी तथा उसकी सहायक नदियाँ जून के प्रथम सप्ताह में ही विनाश करने लगती है। हर वर्ष लाखों बाढ़ पीड़ित शरणार्थी इधर-उधर भागते हैं। असम में ब्रह्मपुत्र की बाढ़ इतनी तबाही लाती है कि वहाँ औसतन चार व्यक्तियों में एक बाढ़ की त्रासदी झेलता है।

बिहार देश का सर्वाधिक बाढ़ग्रस्त क्षेत्र है। राष्ट्रीय सिंचाई आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश के 400 लाख हेक्टेयर बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में 70 लाख हेक्टेयर भू-क्षेत्र बिहार में है। जो देश का 17.5 प्रतिशत है। 1954 में बिहार का बाढ़ग्रस्त क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर था। इसमें क्रमशः वृद्धि हुई है। 1971 में यह 45 लाख हेक्टेयर व 1987 में बढ़कर 64.61 में लाख हेक्टेयर हो गया। आज 70 लाख हेक्टेयर तक अर्थात् प्राँत का 41.27 प्रतिशत भाग बाढ़ प्रभावित हो गया है। बूढ़ी गंडक को छोड़कर उत्तर बिहार में बहने वाली किसी भी नदी का उद्गम बिहार नहीं है। कोसी (गंडक), बागमती, कमला, बलान, महानंदा, अधवारा समूह की नदियाँ उत्तर-बिहार के मैदानी भागों में नेपाल से हिमालय की तराई से आती है। कुछ नदियाँ तिब्बत से आती हैं। ये सभी नदियाँ उत्तर-बिहार से होते हुए गंगा में गिरती है। इनका 61 प्रतिशत विनाश के साथ ही क्रमशः नदियों में बाढ़ की स्थिति भी बिगड़ती जा रही है।

हिमालयी क्षेत्र में वन विनाश एवं पर्यावरण असंतुलन के कारण उत्पन्न बाढ़ का एक उदाहरण है-20 जुलाई 1972 की अलकनंदा में आई प्रलयंकारी बाढ़। बाढ़ का प्रभाव हनुमान चट्टी के पास अलकनंदा में तथा रेणी में धोलीगंगा के संगम से लेकर 230 किमी. दूर हरिद्वार और पथरी तक पड़ा था। बाढ़ में अलकनंदा के अमरी जलग्रण्हा क्षेत्र में व्यापक स्तर पर जन-धन की हानि हुई थी। इसी मौसम में मूसलाधार वर्षा तो अलकनंदा के दायीं ओर भी हुई थी, लेकिन वन विनाश से अछूता होने के कारण यहाँ इस तरह के किसी प्रकृति प्रकोप की नौबत नहीं आई।

इसी तरह देवताओं की घाटी कुल्लू-मनाली में सितंबर 95 में अपने इतिहास की सबसे विध्वंसक बाढ़ आई थी। जिसमें हजारों वृक्ष, सैकड़ों एकड़ फल वृक्ष व कृषि भूमि, मकान एवं सड़कें बह गए थे। इस क्षेत्र में जंगलों का विनाश बड़ी तेजी से हुआ है। इस कारण पिछले वर्ष भी बाढ़ की विपत्ति का सामना करना पड़ा है।

समूचे देश में बाढ़ के कारण उत्पन्न प्रलयंकारी स्थिति का खतरा हर वर्ष बढ़ता जा रहा है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार 1951 में देश का एक करोड़ हेक्टेयर भू-क्षेत्र बाढ़ ग्रस्त था। 1960 में यह ढाई करोड़ हेक्टेयर, 1978 में 3.4 हेक्टेयर तथा 1980 में बढ़कर 4 करोड़ हेक्टेयर हो गया। पिछले वर्ष आई बाढ़ में साढ़े नौ सौ से अधिक लोगों के मरने, 3 लाख मकान ढहने, चार लाख हेक्टेयर भू-क्षेत्र में खड़ी फसल नष्ट होने की घटनाएं हुई व लगभग सात करोड़ हेक्टेयर भू-क्षेत्र बाढ़ग्रस्त हुआ।

वर्षा द्वारा बाढ़ के नियमन हेतु वृक्षों का हरियाली भरा भू-आवरण बहुत ही सहायक है। भारत में वर्षा की प्रकृति के कारण इसकी महत्ता और भी अधिक बढ़ जाती है। मौसम विज्ञानी पी.आर. पिशारेटी भारत व यूरोप में वर्षा के लक्षणों के बारे में महत्त्वपूर्ण अंतर बताते हुए कहते हैं कि यूरोप में पूरे वर्षभर वर्षा धीरे-धीरे होती रहती है। इसके विपरीत भारत के अधिकतर क्षेत्रों में वर्षा वर्ष के 8760 घंटों में से मात्र 100 घंटे में ही होती है। इसमें से कुछ समय मूसलाधार वर्षा होती है। इसमें से कुछ समय मूसलाधार वर्षा होती है। इस कारण आधी वर्षा केवल 20 घंटों में ही हो जाती हैं, जबकि यूरोप की वर्षा की सामान्य बूँद काफी छोटी होती है। इस कारण भूमि को काटने की क्षमता यहाँ की वर्षा में कम होती है। दूसरा यूरोप में बहुत-सी वर्षा बर्फ के रूप में गिरती है, जो धीरे-धीरे मिट्टी में समाहित होती है। भारत में तेजी से गिरने वाली बहुत सी वर्षा में मिट्टी को काटने व बहाने की बहुत अधिक क्षमता होती है। इसका परिणाम यह होता है कि वृक्षाच्छादन के अभाव में अधिकाँश जल मिट्टी के साथ नालों में बह जाता है, जो उफनकर आगे बाढ़ का रूप लेता है। वनभूमि जल का अधिकतम अवशोषण करती है, जो भू-क्षरण के साथ अनावश्यक बहाव को रोकती है। वन, वृक्ष व हरियाली वर्षा के वेग को पहले अपने ऊपर लेकर धीरे से उतारते हैं। मिट्टी को कटने नहीं देते। दूसरा जल को ग्रहण कर पृथ्वी के नीचे के जल भंडार में वृद्धि करते हैं।

बरसात में हिमनदियों ने जहाँ बाढ़ का संकट पैदा किया वहीं हिमालय में बर्फ कम पिघलने के कारण जल संकट पैदा हुआ है। जल की कमी से सर्वाधिक प्रभावित नदियों में गंगा, यमुना, घाघरा व शारदा नदी है। पानी की कमी का इतना संकट पहली बार पड़ा है। पिछले वर्ष नरोरा में गंगा नदी की जल उपलब्धता का आकलन चौंकाने वाला रहा। यहाँ अप्रैल के द्वितीय पक्ष में पिछले वर्ष की अपेक्षा 57 प्रतिशत जल था। मई के प्रथम पक्ष में इसकी मात्रा 45 प्रतिशत रही। मई के द्वितीय पक्ष में गत वर्ष की अपेक्षा मात्र 43 प्रतिशत जल उपलब्ध था। जून के प्रथम पक्ष में स्थिति और बिगड़ गई। गतवर्ष की अपेक्षा गंगा में जल की मात्रा 49 प्रतिशत ही रही।

ऐसे ही घाघरा नदी में गतवर्ष की अपेक्षा मात्र 54 प्रतिशत जल उपलब्ध रहा। शारदा नदी में अप्रैल के प्रथम पक्ष में जहाँ 26 प्रतिशत कमी थी, अप्रैल के द्वितीय पक्ष में 28 प्रतिशत कमी रही। इसी तरह यमुना नदी में भी जल की मात्रा में 15 प्रतिशत कमी आई। जल की मात्रा में इस कमी का एक कारण जहाँ हिमालय क्षेत्र में बादलों के छाए रहने के कारण तापमान का न बढ़ना रहा, वहीं दूसरा कारण वनों के विनाश के कारण हिमालय क्षेत्र के हरित आवरण का उजड़ना भी है। ऐसी भूमि की जल अवशोषण क्षमता बहुत घट जाती है, जिसके कारण पृथ्वी के अंदर भंडारित जल की कमी के कारण नदियों को अप्रत्यक्ष रूप से मिलने वाले जल की मात्रा भी घट जाती हैं।

वृक्षों के घटते आवरण के कारण वायुमंडल का तापमान भी बढ़ रहा है। गंगा नदी का प्रमुख स्रोत गंगोत्री-ग्लेशियर गत चार वर्षों में 800 मीटर पीछे हट गया है। 1935 में जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के ब्रिटिश भू-विज्ञानी बी. आडेन के प्रथम सर्वेक्षण के अनुसार 19वीं सदी में यह मात्र 7.31 मीटर पीछे हटा। 1990 के बाद हर वर्ष यह 18 मीटर पीछे हट रहा है। इस गति से यदि इसका पिघलना जारी रहा तो 100 वर्षों में गंगा नदी, सरस्वती नदी की तरह विलुप्त न हो जाए। गंगोत्री के आगे भोजवासा क्षेत्र का नाम भोज वृक्ष के आधार पर पड़ा है। कभी यहाँ भोज के घने जंगल थे। आज यहाँ भोज वृक्ष का एक ठूँठ तक दिखाई नहीं देता। इन भोज वृक्षों का जहाँ पर्यावरणीय एवं आयुर्वेदिक दृष्टि से महत्व है, वहीं ये हमारी सांस्कृतिक धरोहर के रूप में महत्वपूर्ण रहे हैं। हमारे ऋषियों ने इसी के पन्नों में अपने ज्ञान को सुरक्षित रखा था।

इसी तरह काठमाँडू के उत्तर में 50 किमी. दूर जीराल्या ग्लेशियर धीरे-धीरे पिघल रहा है। इसके उत्तर-पश्चिमी हिस्से में पिघलने की प्रक्रिया तेज हो गई है। विशेषज्ञों के अनुसार इसके पिघलने से भयंकर विस्फोट हो सकता है। एक अनुमान के अनुसार इसमें आठ करोड़ घन मीटर जल विद्यमान है। इसके फटने से चार करोड़ घन मीटर जल बाहर निकलेगा। जिसकी बाढ़ का पानी बिहार में भी घुसकर तबाही कर सकता है।

विश्व का सर्वोच्च पर्वत हिमालय प्राचीनकाल से मानव सभ्यता संस्कृतियों का जनक, पोषक एवं संरक्षक रहा है, वहीं यह भी स्मरण रहे कि भौगोलिक दृष्टि से सबसे कम उम्र का पर्वत है। इसके विकास की प्रक्रिया सतत जारी है। इसका अधिकाँश भाग कठोर चट्टान न होकर कोमल मिट्टी है, जो वर्षा की तेज धार में आसानी से बह जाती है। इसके प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए वृक्षारोपण द्वारा इसके हरीतिमा कवच को अधिकाधिक पुष्ट करते हुए इसके पर्यावरण की रक्षा करनी होगी, तभी हम प्रकृति के विविध प्रकोपों से बच पाएंगे व समस्त मानव जाति के गौरव मुकुट को सुरक्षित रख सकेंगे।


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