गुरुकथामृत-28 - सद्गुरु सवाँ नं कों संगाँ

December 2001

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सतगुरु सवाँ न को सगा, सोधी सई न दाति। हरि जी सवाँ न को हितू, हरिजन सइ न जाति॥

कबीरदास जी इस साखी में कहते हैं, ‘सदगुरु के समान कोई अपना सगा नहीं है। विद्वान के समान कोई देने वाला नहीं है, भगवान के समान कोई हितैषी नहीं है और भक्त के समान कोई जाति नहीं हैं।’

उपर्युक्त साखी से संत कबीर के ज्ञान-विज्ञान की गहराई का हमें भान होता है। उन्होंने कहा है कि सदगुरु जैसा कोई सगा नहीं है, वह हमारा अपना है। उससे दिल खोलकर सब कुछ कहा जा सकता है। अपना अंतःकरण उसके समक्ष खोलकर उड़ेल दो, वह पग-पग पर तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। उंगली पकड़कर तुम्हें चलना सिखाएगा। उससे कभी छल-कपट मत करो। अपना सगों से भी सगा मानकर उससे अपनी सारी मन की बात कह डालो। परमपूज्य गुरुदेव भी तो ऐसे ही सदगुरु थे, जिनसे हजारों लाखों व्यक्ति जुड़े व उनको अपना सगा मानकर उनके समक्ष खुलते चले गए। अपना सब कुछ उन्हें कहकर वे हलके हो लेते थे एवं फिर उनके योगक्षेम का निर्वाह पूज्यवर ही करते थे। चाहे वह निष्कासन तप के रूप में साधकों द्वारा प्रायश्चित विधान में अपने सभी पाप उनके समक्ष उजागर कर देना हो अथवा पाती जो नित्य समय पर पहुँच जाती थी, उससे अपने दाँपत्य जीवन की भी बात करना हो, वे विश्वास रखकर लिखते थे या कह देते थे। ऐसा ही एक पत्र हम एक बहन के हाथों लिखे पत्र के जवाब में पूज्यवर की ओर से प्रस्तुत कर रहे हैं। देखें इसकी भाषा। 14/9/1954 को लिखे इस पत्र में लिखते हैं-

प्रिय पुत्री चुन्नु आशीर्वाद,

पत्र मिला। पढ़कर अपने बच्चों के साथ खेलने जैसी प्रसन्नता हुई। तुम हमें हमारी पुत्री के समान प्रिय हो। तुम्हारे लिए कोई चिंता की बात हमारे लिए भी वैसी ही दुखदायी होगी।

तुम चिंता न करो। चि. देवव्रत की पिछली बातों पर आशंका न करें। अब वह तुम्हारे अलावा और किसी को न चाह सकेंगे। तुम हमारे ऊपर निश्चिंत रह सकती हो। बच्चे को स्नेह।

श्रीराम शर्मा आचार्य

पत्र की भाषा पर ध्यान दें। चुन्नू (सही नाम हमें भी विदित नहीं, मात्र पत्र उपलब्ध है) बहन ने जो भी अपनी आशंकाएं थीं, लिख भेजीं, अपना जी खोलकर रख दिया। पूज्यवर ने उस वेदना को समझा एवं पूरी तरह आश्वस्त कर दिया कि उनके पति व उनके संबंधों को वे अपनी प्रार्थना द्वारा घनिष्ठतम बनाने का प्रयास करेंगे। अपने आध्यात्मिक पिता-अभिभावक-संरक्षक-गुरु का अपने दाँपत्य जीवन के विषय में यह संकेत पाकर वे निश्चिंत हो गई। यह पत्र एक शिष्या का अपने गुरु के प्रति विश्वास का प्रतीक है एवं इस बात का भी कि गुरु से बड़ा सगा और कोई नहीं हो सकता।

संभवतः यही बात थी कि एक बहन संतानप्राप्ति संबंधी अपनी मनोकामना लिख भेजती है। एक बार नहीं, कई बार। तब वे 29/6/1954 को लिखे इस पत्र में आश्वासन देते हैं एवं सही मार्गदर्शन करते हैं, मुन्नी नाम से इन बहन का।

‘तुम अपना मन आत्मकल्याण की दिशा में लगाओ। निरंतर भक्तिपूर्वक गायत्री माता की उपासना करती रहो। वृद्धावस्था की संतान स्वयं दुःख पाती है और माता-पिता को भी चिंता में डालती है। आजकल मनुष्यों की आयु अधिक नहीं होती। कौन जाने आप लोगों की आयु कितनी है। यदि थोड़ी आयु रही तब तो बेचारे बच्चों की कैसी दुर्दशा होगी, इसकी कल्पना करके तुम सब समझ सकती हो। यह भगवान की दया ही है कि जीवन के अंतिम वर्षों में कोई चिंता तुम्हें नहीं हैं और आत्मकल्याण का पर्याप्त अवसर है। दूसरी ओर पूर्वकृत प्रारब्ध को भुगतते जाने का भी अच्छा मार्ग है।

तुम अकारण ही चिंता मोल लेकर व्यर्थ परेशान मत हो। शाँतिपूर्वक भगवान में मन लगाकर शाँति प्राप्त करो, घर में सबको आशीर्वाद।’

श्रीराम शर्मा आचार्य

समझाने का तरीका भी निराला है। निस्संतान मुन्नी बहन (सही नाम अज्ञात) को जो संदेश पूज्यवर ने दिया है, आज के आशीर्वाद देने वाले ढेरों संत-धर्मोपदेशक-महामंडलेश्वर समझ लें एवं साथ-ही-साथ आशीर्वाद माँगने वाले भी, तो हमारे देश से बहुप्रजनन की समस्या ही मिट जाए। औरों से बिल्कुल अलग एक सुधारक मार्गदर्शक व अपने सगे की तरह वे समझाते हैं कि यह एक भगवान सत्ता का अनुदान ही है कि उनके पास कोई संतान नहीं है। यदि बच्चा इस बढ़ती उम्र में हो भी गया, तो वह दुःख ही पाएगा। हम जानते हैं कि ढेरों सुपात्रों को पूज्यवर ने सुसंततियाँ भी दी हैं, पर प्रारब्ध की जानकारी तो सदगुरु को ही हो सकती है। वही उसे बदल भी सकता है एवं जहाँ चाहे वहाँ विधि के विधान को बदल भी सकता है। पर यहाँ इस मामले में उन्होंने अपनी मानस पुत्री-शिष्यता के हित की बात सोची है एवं यही समझाया है कि यह समय भजन, भगवद् चिंतन का है, सारे समाज को अपनी संतान मानकर उसकी सेवा करने का है। कितना सही व सशक्त मार्गदर्शन है। यही अपनत्व, सगे-संबंधी वाली आत्मीयता, खरी बातें हमारी गुरुसत्ता की विशेषता को स्थापित करती हैं।

22/12/1967 को ऐसा ही एक पत्र उनके द्वारा बहन निर्मला को लिखा गया। उसकी भी भाषा को पाठकगण पढ़ें व तत्वदर्शन को आत्मसात करें।

‘प्रिय पुत्री निर्मला आशीर्वाद, पत्र मिला। तुम्हारी निराशा और चिंता से दुःख हुआ। संतानोत्पादन का मनुष्य जीवन में केवल राई-रत्ती स्थान है। संतान होना न कोई सौभाग्य है और न होना दुर्भाग्य। बात बहुत छोटी हैं, उसे इतना अधिक महत्त्व देना व्यर्थ है।

लोगों की समझ उलटी हैं। तुम किसी के तानों की रत्तीभर भी परवाह न करो। विद्या पढ़ने का क्रम जारी रखो। स्वावलंबन लक्ष्य रखो। मानव जीवन का मूल्य और महत्व समझो और उसको प्राप्त करने के लिए आशा एवं उत्साह के साथ परिपूर्ण परिश्रम और पुरुषार्थ करो।

यही तुम्हारे लिए उचित एवं श्रेयस्कर है। संतान वाली बात का हमारी दृष्टि में कोई महत्त्व नहीं। फिर भी जो बन पड़ेगा, तुम्हारी प्रसन्नता के लिए प्रयत्न करेंगे।’

कितनों में साहस है इतना स्पष्ट लिखने का। पूज्यवर ने न केवल उन्हें हिम्मत बंधाई, शिक्षा अर्जन, विद्या ग्रहण कर स्वावलंबी बनने की बात समझाई है और कहा है कि यह कोई दुर्भाग्य नहीं कि संतान नहीं है। हजारों लोग तो इसी वेदना में कलपते, दुःख पाते, अपना पैसा गंवाते, लुटते-लुटाते देखे जाते हैं। हाँ, कहीं भी कोई योग हो तो देने वाला उदार है, देता है, पर स्पष्ट इस प्रकार लिखकर तो कोई अपना सगा ही देता है, जो किसमें हित है, किसमें नहीं, यह जानता है।

परमपूज्य गुरुदेव को कई लोग लेखक, संगठक, विद्वान मानते हैं, पर उनका एक बड़ा सबल समाज सुधारक, कुरीति उन्मूलक स्वरूप अभी भी बहुतों को अविज्ञात है। उन्होंने जीवनभर संघर्ष किया एवं अपनत्व के नाते सच्चा मार्गदर्शन देकर शिष्यों को सही रास्ते पर चलाया है। चाहे वह माता-पिता की बात मानना हो, चाहे अपनी निज की विवाह की बात हर विषय पर एक खरा चिंतन वे पत्र द्वारा देते थे। ये पत्र भी एक अनाम अपने आत्मीय साधक को 29/5/52 को लिखा गया, ऐसी ही कुछ कहानी कहता है।

हमारे आत्मस्वरूप,

आपका पत्र मिला, दो बार पढ़ा और आपकी परिस्थितियों को समझा। आपके सभी निश्चय बहुत ही सही, उपयुक्त, बुद्धिमत्तापूर्ण और सतोगुणी वृत्ति में परिपूर्ण हैं। हम उन सभी से सहमत हैं और सभी में सफलता चाहते हैं।

पिता, प्रत्यक्ष देवता है। आप पिताजी को प्रत्यक्ष देव मानकर उनकी सुविधा और सेवा के लिए सभी प्रयत्न करना। यह आपके लिए बहुत ही ऊंचा धर्म-कर्त्तव्य है।

विवाह में दहेज प्रथा को ठुकराकर आपने एक बड़े ही साहस का आदर्श कार्य किया है। आप जैसे कुछ युवक आगे बढ़ें, तभी इस हत्यारी प्रथा का अंत हो सकता है। सौ. चंद्रलेखा के साथ तुम्हारा जीवन बहुत ही सुखी रहेगा। हमें यहाँ से ही उसकी सद्बुद्धि, सेवाभावना, सतीत्व एवं अनेक सद्गुणों की प्रवृत्ति दिखाई दे रही हैं। ऐसी अच्छी सहधर्मिणी प्राप्त करने के आपके सौभाग्य को बधाई। सौ. चंद्रलेखा तक हमारा आशीर्वाद पहुँचा दें।’

पत्र को पूरा पढ़ें, एक बार नहीं दो बार पढ़ें। आप सभी को इसमें हर पंक्ति में छिपा अपनत्व-ममत्व एवं वह मार्गदर्शन मिलेगा, जो हमें कोई अपना देता है। आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व लिखे उस पत्र में क्राँतिकारी तेवर हैं एवं एक उच्चस्तरीय मार्गदर्शन है। पिता को प्रत्यक्ष देव मानकर उनकी सेवा करने की जहाँ प्रेरणा इसमें हैं, वहीं उनके शिष्य के साहस की प्रशंसा भी है, जिसने दहेज प्रथा को ठुकराया। यह बात उस जमाने की दृष्टि से कितनी विवेकसम्मत, तार्किक एवं क्राँति के स्वर लिए थी, इसे समझा जा सकता है। यही स्वर तीखे होते चले गए एवं युगनिर्माण योजना के आधारभूत सिद्धाँत बन गए। यह कार्य मात्र एक ऐसी ही सत्ता ही कर सकती थी, जिसे संवेदना को, अपनेपन को अपने पत्रों की भाषा में, लेखनी जो ‘अखण्ड ज्योति’ लिखती थी, उसके शब्दों में तथा अपनी वाणी में गूँथना आता था, जो हम सबका, सभी शिष्यों का अपना था, सगा था।


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