मनुष्य अपने जीवन में सफलता के लिए तरह-तरह के प्रयास करता है। प्रायः मार्ग अथक श्रम एवं कड़े संघर्ष से होकर गुजरता है। शारीरिक टूटन, मानसिक चिंता, हताशा के बावजूद सफलता की झलक मिलती भी है, पर आँतरिक सुख-शाँति, स्वतंत्रता एवं बल न जाने पैरों तले कहाँ खिसक जाते हैं। भौतिक सफलता एवं समृद्धि कितनी ही बड़ी क्यों न हो, परन्तु जीवन में रिक्तता एवं अशाँति हृदय को सदैव कचोटती रहती है। अवश्य ही यह जीवन में किसी मौलिक चूक का परिणाम है और वह है- भौतिक सुख-समृद्धि के मूल स्रोत अपने वास्तविक स्वरूप की अज्ञानता अर्थात् अपने आध्यात्मिक स्वरूप के प्रति उदासीनता।
अपनी चर्चित पुस्तक ‘सद सेवेन स्प्रिचुअल लाँज ऑफ सक्सेस’ में दीपक चोपड़ा ने इस संदर्भ में गहरा प्रकाश डाला है व जीवन में सर्वांगीण सफलता के सात आध्यात्मिक सूत्रों की विशद विवेचना की है। यदि हम इन सिद्धाँतों को समझ सकें व जीवन में प्रयोग कर सकें, तो जीवन की सारी खुशियां एवं सफलताएं सहज एवं सरल ढंग से प्राप्त कर सकते हैं।
दीपक चोपड़ा के अनुसार सफलता का प्रथम सोपान विशुद्ध अंतःशक्ति का सिद्धाँत है। यह इस तथ्य पर आधारित है कि हम अपनी मूल अवस्था में विशुद्ध चैतन्य तत्व हैं। यही समस्त सृष्टि का स्रोत है। यही अनंत सृजन व समस्त संभावनाओं की उर्वर भूमि है। अंत एवं असीम होने के साथ यह पवित्र आनंददायक भी है। विशुद्ध-ज्ञान अनंत शाँति, पूर्ण संतुलन, अजेयता, सरलता सभी इसी के गुण हैं। यही हमारी मूल प्रकृति है। हम जितना अपने इस मूल स्वरूप का अनुभव करेंगे, उतना ही हम विशुद्ध अंतःशक्ति के क्षेत्र से जुड़ते जाएंगे।
यह अनुभव हमें अपने असली स्व (आत्मा) में प्रतिष्ठित करेगा वह बाह्य कारकों से मुक्त करेगा। बाह्य कारकों में व्यक्ति, परिस्थितियाँ, वातावरण एवं वस्तुएं आती हैं। सामान्यतः हम बाह्य कारकों के सहारे जीवन जीते हैं। वहाँ हमारा आँतरिक आधार अहंकार होता है, जो हमारा वास्तविक स्वरूप नहीं है। अहंकार हमारे स्व के प्रति भ्रामक धारणा है, यह एक सामाजिक मुखौटा है, नाटक की भूमिका का एक पात्र भर है। यह हमेशा अपने से बाहर तुष्टि की खोज करता है। इसमें बाह्य वस्तुओं के आधिपत्य का प्रबल भाव रहता है। बाह्य शक्ति की तीव्र भूख रहती है। यह तीनों भाव से जुड़े होते हैं, क्योंकि बाह्य कारकों के बदलते ही यह ध्वस्त होते ही यह भी ध्वस्त हो जाते हैं। मान लो कोई ऊंचे पद पर है या बहुत धन का स्वामी है। पद व धन के नष्ट होते ही इनसे जुड़ा वर्चस्व भी धूमिल हो जाता है, जबकि हमारा वास्तविक स्वरूप हमारी आत्मा, इन सभी बाहरी कारकों से मुक्त है।
विशुद्ध अंतःशक्ति के इस क्षेत्र का लाभ कैसे लें? विशुद्ध चेतना में निहित सृजनात्मक शक्तियों का उपयोग कैसे करें? इनसे संपर्क के तीन सूत्र वे बताते हैं, नीरव मौन, ध्यान व आत्मनिरपेक्षता।
नीरव मौन का अर्थ है- प्रतिदिन कुछ समय के लिए आत्मस्वरूप की गहराई में प्रतिष्ठित होना। इसके लिए बातचीत बंद करनी होगी। टीवी देखना, रेडियो सुनना, पुस्तक पढ़ना बंद करना होगा, क्योंकि तभी आँतरिक कोलाहल शाँत हो पाएगा। समयावधि क्रमशः कुछ मिनट से कुछ घंटे दिन व सप्ताह में बढ़ा सकते हैं। शुरुआत में आँतरिक चहलकदमी बढ़ जाएगी, लेकिन धीरे-धीरे यह शाँत होना शुरू होगी। क्योंकि मन को कुछ समय बाद यह अहसास हो जाएगा कि वह अपने असली स्व-आत्मा के निर्णय के विरुद्ध नहीं चल सकता। जैसे ही अंतर विवाद बंद होगा, विशुद्ध अंतःशक्ति क्षेत्र में नीरवता की अनुभूति शुरू होगी।
दूसरा पक्ष है ध्यान का। प्रत्येक दिन प्रातः व सायं न्यूनतम 30 मिनट बैठना होगा। इसमें विशुद्ध नीरवता व स्व-जागरुकता का अनुभव होता है। इस विशुद्ध ध्यान की स्थिति में सभी चीजें अखंड रूप से जुड़ी हुई अनुभव होंगी और तीसरा पक्ष है आत्मनिरपेक्षता का। निरंतर तुलना, विश्लेषण, आरोपण से अंतर्चेतना में बहुत हलचल होती है। यह विशुद्ध अंतःचेतना से आने वाले ऊर्जाप्रवाह को रोक देता है। आत्मनिरपेक्ष भाव मन में शाँति पैदा करता है व विशुद्ध चेतना से संपर्क बनाए रखता है। इसका अभ्यास भी कुछ मिनट से बढ़ाते-बढ़ाते धीरे-धीरे दिन भर कर सकते हैं।
मौन, ध्यान व आत्मनिरपेक्षता द्वारा प्रथम सिद्धाँत अर्थात् विशुद्ध अंतःशक्ति तक पहुँच हो जाएगी। फिर इसमें एक और चरण जोड़ सकते हैं, वह है प्रत्येक दिन कुछ समय प्रकृति से संवाद का। नदी, जंगल, पर्वत, झील, समुद्र किसी के भी सान्निध्य में बैठकर प्रकृति में विद्यमान बुद्धिमान व्यवस्था की समझ विशुद्ध अंतःशक्ति के क्षेत्र से संपर्क में सहायक होगी। इससे जीवन में सक्रिय शक्तियों की समस्वर प्रतिक्रियाओं के अनुभव के साथ समूचे जीवन से एकता का अनुभव होगा।
सफलता का दूसरा आध्यात्मिक सिद्धाँत है, देने का नियम। इसे आदान-प्रदान का सिद्धाँत भी कह सकते हैं। समूचा ब्रह्माँड इसी नियम पर आधारित है। मानवीय शरीर की मन व ऊर्जा, ब्रह्माँडीय शरीर की मन व ऊर्जा से सतत सक्रिय आदान-प्रदान की स्थिति में है। यही इनकी जीवंतता का प्रतीक है। इस आदान-प्रदान का रुकना वैसा ही घातक है जैसा कि शरीर में रक्तप्रवाह का रुक जाना।
प्रत्येक संबंध में लेन-देन से भरा है, लेना, देने को व देना, लेने को निर्धारित करता है और पाने का सबसे सरल तरीका है दूसरों को वह दें जो उन्हें जरूरत है। आपको जो भी चाहिए धन, प्रेम, खुशी, चीजों से उपकृत होना चाहते हैं, तो चुपचाप सभी को जीवन की अच्छी चीजों से उपकृत करो। यहाँ तक कि देने का विचार, आशीर्वाद का भाव व प्रार्थना भर में दूसरों को प्रभावित करने की शक्ति है? आप बिना चाहिए किए भी चुपचाप खुशी, आनंद व हंसी के उपहार दूसरों को दे सकते हैं।
हम देने का जितना अभ्यास करें, इसके चमत्कारिक प्रभाव के प्रति उतना ही विश्वस्त होते जाएंगे। देने से हमें कुछ भी कमी नहीं पड़ने वाली, क्योंकि हमारी मूल प्रकृति अनंत संभावनाओं से भरी पड़ी हैं। अतः बाह्य रूप से हम कितने भी हीन व असमर्थ हों, परन्तु नैसर्गिक रूप से हम समृद्ध है। क्योंकि समस्त संपदा का स्रोत विशुद्ध चेतना है, जो खुशी प्रेम, शाँति, संतुलन, ज्ञान जैसी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करना जानती है।
सफलता का तीसरा आध्यात्मिक सिद्धाँत है, कर्म का सिद्धाँत। अर्थात् क्रिया की प्रतिक्रिया, कारण-कार्य का सिद्धाँत अर्थात् हम जो बोएंगे हमें वही काटना होगा। अतः हमें खुशी के बीज बोने कीक कला सीखनी होगी।
युगद्रष्टा स्वामी विवेकानंद ने कहा है, ‘कर्म मनुष्य की स्वतंत्रता की अनंत अभिव्यक्ति है। हमारे विचार, शब्द और क्रियाएं जाले के धागे हैं, जो हम अपने चारों ओर बुनते रहते हैं।’ अर्थात् हमारा जीवन अनंत विकल्पों से भरा है। अब हम किसका चुनाव करते हैं, इसके लिए हम स्वतंत्र है। लेकिन अधिकाँशतः हम पेवलाँव की ‘कंडीशंड रिफ्लेक्स’ की तरह वातावरण द्वारा अनुकूलित अपनी अचेतन वृत्तियों के अनुरूप याँत्रिक ढंग से निर्णय लेते हैं।
यदि हम थोड़ी देर के लिए पीछे हटकर अपने निर्णय को देखें, तब मात्र द्रष्टा बनने की इस प्रक्रिया में हम अचेतन को सचेतन निर्णय में बदल देते हैं। यह बहुत ही शक्तिदायिनी प्रक्रिया है। अतः किसी भी निर्णय लेने से पूर्व हम दो प्रश्न पूछ सकते हैं। पहला तो यह कि इस निर्णय के क्या परिणाम होंगे? दूसरा क्या इससे चारों ओर दूसरे लोग भी खुश होंगे? यदि हाँ तो इसे स्वीकार किया जाए, यदि नहीं तो इसे त्याग दिया जाए, बस इतना भर करना है।
सफलता का चौथा आध्यात्मिक सिद्धाँत है- न्यूनतम प्रयास का नियम। यह इस तथ्य पर आधारित है कि प्रकृति की बुद्धिमान व्यवस्था प्रयासरहित सहजता एवं सरलता से क्रियाशील रहती है। यह न्यूनतम क्रिया व प्रतिरोधहीनता का सिद्धाँत है। यह प्रेम व सामंजस्य का सिद्धाँत है। जब हम प्रकृति के इस पाठ को सीखते हैं, तो हमारी इच्छाएं सरलता से पूरी हो जाती है।
इसके विपरीत जब हम शक्ति के लोलुप होते हैं व दूसरों पर नियंत्रण करने लगते हैं, तो ऊर्जा का क्षरण करते हैं। स्वार्थ एवं अहं से प्रेरित प्रत्येक क्रिया द्वारा हम ऊर्जा-प्रवाह से वंचित हो जाते हैं। प्रेम द्वारा प्रेरित क्रिया से ऊर्जा की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है और इस अतिरिक्त ऊर्जा व आनंद द्वारा हम कुछ भी सृजित कर सकते हैं।
इस सिद्धाँत को क्रियारूप में परिणत करने के लिए तीन घटकों पर ध्यान देना होगा। प्रथम है- स्वीकृति अर्थात् व्यक्ति, परिस्थिति व घटना को वैसे ही स्वीकार करना जैसे कि वे घटे। इसके लिए जब भी हम किसी व्यक्ति द्वारा व्यथित होते हैं या किसी परिस्थितिवश कुँठित हो जाते हैं, तो हमें स्मरण रखना होगा कि हम उस व्यक्ति या परिस्थिति से प्रतिक्रिया नहीं कर रहे हैं, बल्कि उस व्यक्ति या परिस्थिति के बारे में अपनी भावनाओं से प्रतिक्रिया कर रहे हैं। ये विचार-भाव किसी दूसरे की त्रुटियाँ नहीं है। इस तथ्य के हृदयंगम होते ही हम यह जिम्मेदार लेंगे कि हम कैसा महसूस करते हैं व कैसे बदला जाए। चीजों की वैसी ही स्वीकृति से हम उन सभी घटनाओं व परिस्थितियों के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हैं, जिन्हें पहले हम दूसरों को जिम्मेदार ठहराते थे।
यहीं से इस सिद्धाँत का दूसरा पक्ष होता है, वह है जागरुकता का। अर्थात् किसी भी घटना, स्थिति के लिए किसी को भी जिम्मेदार न ठहराने से जागरुकता की स्थिति बनती है। इस सबका तात्पर्य है-स्थिति के प्रति रचनात्मक रुख। प्रत्येक समस्याओं में अवसर का बीज होता है तथा इसके प्रति जागरुकता हमें अच्छी स्थिति की ओर ले जाने में सहायक बनती है। इतना करते ही तथाकथित प्रतिकूलताएं कुछ नवीन व सुन्दर रचना के अवसर बन जाती है और प्रत्येक तथाकथित पीड़क, शिक्षक बन जाते हैं।
न्यूनतम प्रयास का तीसरा पक्ष है। प्रतिरक्षाहीनता अर्थात् आग्रहरहित होना, किसी को अपने दृष्टिकोण या विचार को मनवाने या थोपने की आवश्यकता महसूस न करना। सामान्यतः लोगों का 19 प्रतिशत समय अपने दृष्टिकोण की प्रतिरक्षा में व्यर्थ जाता है। जब हम प्रतिरक्षा करते हैं, दूसरों को दोष देते हैं व आग्रहग्रस्त होते हैं, तो जीवन में अनावश्यक विरोध खड़े हो जाते हैं। ऊंचे ताड़ के वृक्ष की तरह खड़े होने की आवश्यकता नहीं, जो तूफान के झोंकों में धराशायी हो जाता है। इसकी जगह सरकंडे की तरह लचकदार होना चाहिए, जो तूफान आने पर झुककर अपना अस्तित्व सुरक्षित रखता है। इस तरह जब जीवन में स्वीकृति, जिम्मेदारी व आग्रहहीनता की समग्रता आएगी तब जीवन प्रयासरहित सरलता से प्रवाहित होता प्रतीत होगा।
सफलता का पाँचवाँ आध्यात्मिक सिद्धाँत है, अभिप्राय व इच्छा। यह इस तथ्य पर आधारित है कि ऊर्जा व जानकारियों का अस्तित्व प्रकृति के प्रत्येक स्थल पर है। वास्तव में ‘क्वाँटम फील्ड’ के स्तर पर ऊर्जा व जानकारियों के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। ‘क्वाँटम फील्ड’ विशुद्ध चेतना का, विशुद्ध संभावनाओं का ही दूसरा नाम है और मानवीय अंतःचेतना एवं स्नायु तंत्र न केवल ‘क्वांटम फील्ड’ की ऊर्जा व जानकारियों के प्रति जागरुक होने में सक्षम है, बल्कि सचेतन रूप से इन्हें परिवर्तित भी कर सकते हैं। इस तरह मानव अपनी अंतर चेतना से समस्त परिस्थितियों एवं वातावरण को प्रभावित कर सकता है।
यह सचेतन परिवर्तन चेतना में निहित दो गुणोँ के द्वारा होता है। 1. एटेंशन अर्थात् ध्यान एवं मनोयोग तथा 2. इंटेंशन अर्थात् उद्देश्य। ध्यान उत्तेजित करता है व उद्देश्य रूपांतरित करता है। जब तक हम प्रकृति के दूसरे नियमों का उल्लंघन नहीं करते, अपने उद्देश्यों द्वारा हम प्रकृति के नियमों को वश में करके अपने स्वप्नों-इच्छाओं को पूरा कर सकते हैं। उद्देश्य विशुद्ध संभावनाओं की अव्यक्त से व्यक्त में प्रयासरहित सहज व घर्षणरहित यह रखनी चाहिए कि यह मानव हित में हो। यह स्वतः ही होता है जब हम सफलता के अन्य आध्यात्मिक सिद्धाँतों के साथ होते हैं।
सफलता का छठा आध्यात्मिक सिद्धाँत है-अनासक्ति। इसके अनुसार जगत् में कुछ भी प्राप्त करने के लिए इसके प्रति आसक्ति का त्याग करना होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि आप इच्छा को ही छोड़ दें, बल्कि फल के प्रति अनासक्ति छोड़ दें। आसक्ति भय व असुरक्षा पर आधारित होती है, जो कि अपने वास्तविक स्वरूप पर अविश्वास की उपज है। बिना आसक्ति के हम दरिद्रता व दीनता के प्रतीक असहायपन, आशाहीनता एवं उद्विग्नता के दास बने रहते हैं। इसी तरह सुरक्षा की खोज एक भ्रम है। लोग इसे धन द्वारा पाने का प्रयास करते हैं, लेकिन यह जितना बढ़ता है, सुरक्षा से उतना ही दूर होते जाते हैं।
ऋषियों ने इसका समाधान आत्मविश्वास व भगवद्विश्वास के तत्वदर्शन में खोजा था। सुरक्षा या निश्चिंत का अर्थ है-ज्ञात से आसक्ति। ज्ञात क्या है? यह हमारा भूत है। अर्थात् ज्ञात भूतकालिक अनुकूलन के अतिरिक्त और क्या है? इसमें विकास व गति नहीं है, यहाँ जड़ता, अव्यवस्था और सड़न स्वाभाविक है।
आत्मविश्वास व भगवद्विश्वास दूसरी ओर विशुद्ध सृजन एवं स्वतंत्रता की उर्वर भूमि है। यह प्रत्येक क्षण आत्मा में प्रवेश करना है, जो कि समस्त संभावनाओं का क्षेत्र है। यहाँ प्रत्येक क्षण एडवेंचर, रोमाँच व रहस्य से भरा है। जीवन का आनंद यहीं पर है। अनासक्ति का नियम, उद्देश्य व इच्छा के सिद्धाँत का विरोधी भी नहीं है, क्योंकि अभी भी हमारे पास एक निश्चित दिशा में जाने की नीयत है। हमारा अभी एक लक्ष्य है, लेकिन सामने अनंत संभावनाएं हैं। आप कभी भी अपनी दिशा बदल सकते हैं। यहाँ समस्याओं पर समाधान थोपेंगे नहीं। अर्थात् आप अवसर के प्रति अधिक सतर्क होंगे।
यह नियम समग्र विकास की प्रक्रिया को त्वरित कर देता है। इसमें स्थिर होकर ही प्रत्येक समस्या को उच्चतर लाभ एवं विकास का साधन बना लेते हैं। बोलचाल की भाषा में इसे सौभाग्य कहा जाता है, जो कुछ नहीं तत्परता एवं अवसर का संयोग होता है और यही सफलता का विशुद्ध मसाला है।
जीवन में सफलता का सातवाँ व अंतिम सिद्धाँत है, धर्म का। धर्म अर्थात् जीवन का उद्देश्य। प्रत्येक व्यक्ति धरती पर एक विशेष उद्देश्य लेकर आता है। ईश्वरीय योजना में उसे अपना विशेष योगदान देना है, जिसे वह अपने विशेष ढंग से करेगा। बस यही उसका धर्म है। इस सिद्धाँत के भी तीन पक्ष है।
प्रथमतः हमें अपने वास्तविक स्वरूप को खोजना होगा जो आवश्यक रूप से इस शरीर में प्रसुप्त दिव्यता का भ्रूण है जिसे विकसित करना होगा। दूसरा यह कि हमें अपने विशेष गुण-प्रतिभा को व्यक्त करना होगा। दूसरा यह कि हमें अपने विशेष गुण-प्रतिभा को व्यक्त करना होगा, जिसे हमसे बेहतर दूसरा कोई इस ब्रह्माँड में नहीं कर सकता। जब हम इसे करते हैं तो समय की सीमाओं को लाँघ जाते हैं। तीसरा पक्ष है मानवता की सेवा। यह प्रश्न सतत पूछना होगा कि मैं जिसके भी संपर्क में आता हूँ, उसके लिए मैं क्या मदद कर सकता हूँ। अपनी विशेष गुण-प्रतिभा एवं मानवता की सेवा के साथ धर्म सिद्धाँत का पूर्ण उपयोग हो जाता है।
इसमें मेरे लिए क्या है? यह अहंकार का आँतरिक संवाद हमारे अपने आपसे है। मैं कैसे मदद कर सकता हूँ? यह हमें विशुद्ध संभावनाओं के क्षेत्र में ले जाता है व अपनी आध्यात्मिक संभावनाओं तक हमारी पहुँच हो जाती है। यह अंतर्संवाद हमें आत्मा के क्षेत्र में पहुँचा देता है। वैसे ध्यान इसका सबसे उपर्युक्त तरीका है।
हम स्वयं से एक प्रश्न पूछकर अपने धर्म की परीक्षा कर सकते हैं। यदि हमें संसार का सारा धन, ऐश्वर्य व समय मिलता तो हम क्या करते? यदि हम वही करते जो अभी कर रहे हैं तो हम धर्म में स्थित हैं, क्योंकि हम अपने विशेष गुण को व्यक्त करने में तल्लीन हैं। दूसरा प्रश्न यह है कि मैं मानवता की सेवा के लिए श्रेष्ठतम रूप से कैसे उपयुक्त हूँ? इसको जवाब देकर इसका अभ्यास करें।
इस तरह इन आध्यात्मिक सूत्रों का अनुगमन करते हुए जीवन में जो चाहे वह प्राप्त कर सकते हैं। इनका क्रम नैसर्गिक है, जिसे सरलता से समझा व जीवन में लागू किया ज सकता है।
उपर्युक्त सिद्धाँतों की समझ आते ही जीवन के असली मकसद पर ध्यान केन्द्रित होना प्रारंभ होता है, जो कि धर्म का सिद्धाँत है। इस नियम के प्रयोग से अपनी नैसर्गिक प्रतिभा की अभिव्यक्ति द्वारा मानवता की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए आप जो चाहें, जहाँ चाहें वहीं सृजन करना प्रारंभ करते हैं। तभी जीवन में असली आनंद व सफलता का अर्थ मालूम पड़ता है व जीवन प्रेम की अभिव्यक्ति बन जाता है। आत्मा की पूर्णता की अनुभूति जीवन की सफलता के चरम को छू लेती है।