वातव्याधि निवारण की यज्ञोपचार प्रक्रिया-10

December 2001

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पिछले अंक में यज्ञ चिकित्सा द्वारा प्रमेह एवं डायबिटीज अर्थात् मधुमेह जैसे कष्टसाध्य रोगों से पूर्णरूपेण छुटकारा पाने के लिए विशिष्ट प्रकार की हवन-सामग्री आदि का वर्णन किया जा चुका है। बताया गया कि किस तरह आहार-विहार को संयमित करके नित्य-नियमित रूप से संबंधित रोगों में विशेष प्रकार की वनौषधियों से तैयार की गई हवन सामग्री से सूर्य गायत्री मंत्र द्वारा हवन करने व उसी हवि सामग्री से सूर्य गायत्री मंत्र द्वारा हवन करने व उसी हवि सामग्री के सूक्ष्म पाउडर को सुबह-शाम खाते रहने से इन बीमारियों से मुक्ति मिल जाती है और रोगी व्यक्ति पूरी तरह से स्वस्थ हो जाता है। यहाँ वातव्याधि की विशिष्ट हवन सामग्री का वर्णन किया जा रहा है।

चरक संहिता के अनुसार-’अशीतिर्वात विकारः’ अर्थात् वात विकार अस्सी प्रकार के होते हैं। यह सभी वातव्याधियाँ शरीरस्थ पाँच प्राणों अर्थात् प्राण, उदान, समान, व्यान तथा अपान के कुपित होने, अपने मार्ग से हटकर विपरीत मार्ग में गमन करने क्षीण या वृद्ध होकर विकृत रूप धारण करने आदि कारणों से उत्पन्न होती हैं। प्राणों में अर्थात् वायु में विकृति पैदा करने के मूल कारणों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ‘अत्यंत रूखे और शीतल पदार्थ खाने से, हलके अन्न, कड़वे, कसैले और चटपटे पदार्थ अत्यधिक खाने से,कम खाने से, अत्यधिक उपवास करने से, रात्रि में अधिक जागने से, अत्याधिक वमन-विरेचन करने से विषम उपचार करने से, अत्यधिक रक्तस्राव होने से, अधिक कूदने-तैरने से, अधिक पैदल चलने से, शरीरगत रस, रक्त आदि धातुओं के क्षीण होने से अधिक चिंता या शोक करने से, किसी रोग के अधिक दिनों तक बने रहने के कारण कृशकाय होने से मर्म स्थान में चोट लगने से, कष्टदायक शय्या पर सोने से या कष्टप्रद कुर्सी, चौकी, चारपाई पर बैठने से, दिन में सोने से, अत्यधिक क्रोध करने से, भयभीत होने से, आमदोष उत्पन्न होने से, मल-मूत्र आदि वेगों को रोकने से वायु प्रकुपित होकर शरीर के खाली स्रोतों या छिद्रों पर भर जाती हैं और सर्वांगव्यापी अथवा एकाँगव्यापी अनेक प्रकार के वात विकार उत्पन्न करती हैं।’

आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार सर्वांगवात उसे कहते हैं जब प्रकुपित वात सारे शरीर की शिराओं एवं स्नायुओं को सुखाकर पूरे शरीर को चेष्टारहित अर्थात् शून्य बना देता है और सभी अंग-प्रत्यंगों में पीड़ा होती है। इसके विपरीत जब प्रकुपित वायु शरीर के दायें या बायें किसी एक भाग पर आक्रमण करके उस भाग की शिराओं तथा स्नायुओं को सुखाकर एक हाथ या पैर को संकुचित कर देती है और पीड़ित अंग में सुई चुभाने जैसा दर्द और शूल होता है, तो उसे एकाँग वात, पक्षाघात या अर्द्धांग कहते हैं। इसमें एक तरफ का आधा शरीर शून्य हो जाता है। इसे फालिज भी कहते हैं। ‘अर्दितवात’ या लकवा इससे भिन्न होता है।

मूर्द्धन्य आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार वातव्याधि का आक्रमण प्रायः वर्षा ऋतु में, दिन और रात्रि के तीसरे प्रहर में तथा अन्न पचने पर एवं शिशिर ऋतु में, ठंडी के दिनों में अधिक होता है।

यहाँ पर उन वातव्याधियों की यज्ञोपचार प्रक्रिया का वर्णन किया जा रहा है, जिन्हें प्रायः हर कोई जानता है और सर्वाधिक संख्या में लोग इनसे प्रभावित एवं पीड़ित रहते हैं। ये हैं- 1. कटि स्नायुशूल्य या गृध्रसी, जिसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में ‘साइटिका’ के नाम से जाना जाता है। 2. आमवात या संधिशोध ‘रियूमेटाइड आर्थ्राइटिस’ 3. संधिवात या जोड़ों का दर्द ‘ओस्टिओ आर्थ्राइटिस’ 4. घुटने का शोध एवं दर्द सनोवाइटिस आफनी’ आयुर्वेद में इसे क्रोष्टुशीर्ष कहते हैं। 5. गठियावात या वातरक्त ‘गाउट’ 6. चेहरे का लकवा या अर्दित वात ‘फेशियल पैरालिसिस’ 7. पक्षापघात, अर्द्धांग या फालिज ‘हेमिप्लेजिआ’ 8. अधराँग घात ‘पैराप्लेजिआ’ जिसमें दोनोँ पैर लकवाग्रस्त हो जाते हैं।

आयुर्वेद में वर्णित ‘गृध्रसी’ रोग को ही एलोपैथी में ‘साइटिका’ कहते हैं। बोलचाल की भाषा में यह कमर, कूल्हे, जाँघ व पंजे का वात रोग, लंगड़ी का दर्द वायुपीड़ा, कुलंग का दर्द आदि नामों से जाना जाता है।

साइटिका अर्थात् गृध्रसी रोग का प्रमुख कारण रीढ़ की हड्डियों के बीच की कशेरुकाओं के मध्य की डिस्क का खिसक जाना माना जाता है, जिसे ‘स्लिप डिस्क’ कहते हैं। इसके कारण स्पाइनल कॉर्ड मेरुरज्जु से निकलकर पैर तक जाने वाली ‘सियाटिका नर्व’ पर आस-पास की अस्थियों का अधिक दबाव पड़ता है जिससे कमर कूल्हे व पैर का दर्द होता है। रीढ़ की हड्डी में संक्रमण, हड्डियों की अभिवृद्ध, शोध आदि कारणों से भी साइटिका रोग हो जाता है।

यह व्याधि कमर से लेकर जाँघ, घुटने तथा पैर के टखने तक फैली होती है। इसमें कूल्हे की संधि, कमर, पीठ, उरु, जंघा एवं पैर में अर्थात् कमर से लेकर एड़ी तक अंगों में जकड़न तथा सुई चुभाने जैसी पीड़ा होती है। दर्द कभी हलका तो कभी तेज होता है, जिससे रोगी को खड़ा होना तक मुश्किल हो जाता है। दर्द किसी समय पैर में और घुटने के पिछली तरफ से होता हुआ टखने तक जाता है, जिसके कारण चलने में लंगड़ापन होता है और जानुसंधि के पीछे जाँघ की पेशियों को छूने तक में असाध्य दर्द अनुभव होता है। झुकने, छींकने, खाँसने आदि के समय दर्द बढ़कर और तीव्र हो जाता है। इस रोग में दर्द के साथ-साथ अंगों में बार-बार स्पंदन होता रहता है। साइटिक रोग प्रायः चालीस-पचास वर्ष की आयु वालों को होता है और प्रायः एक ही ओर होता है, दोनों ओर कभी-कभी ही देखा जाता है।

साइटिका वातव्याधि के उपचार के लिए जो हवन सामग्री तैयार की जाती है, उसमें निम्नलिखित जड़ी-बूटियाँ मिलाई जाती हैं-1. ग्वारपाठे की जड़ 2. सलई की गोंद 3. सलई की छाल 4. निर्गुंडी 5. पुनर्नवा 6. अश्वगंधा 7. डवत्रक 8. नागरमोथा 9. मुलहठी 10. हरसिंगार के पत्ते 11. दशमूल अर्थात् सारेवन पिठवन, छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, गोक्षरु, बेल, सोनापाठा, गनियार (अग्निमंथ), गंभारी और पाढल की छाल 12. रास्ना 13. बालछड़ (जटामाँसी( 14. सहजन (मुनगा) की छाल 15. मेथी के बीज 16. तेज पत्रक 17. धमासा 18. गुग्गल 19. विदारीकंद 20. केवाकंद 21. अखरोट की छाल, फल (मींगी) 22. पोंठ 23. देवदार 24. एरंड की जड़ 25. सुरंजना मीठी 263. विधारा 27. काली हल्दी 28. गिलोय 29. खिरेटी 30. अमलतास फल का गूदा 31. बकायन की आँतरिक छाल 32. मेढ़ासिंगी 33. ऊंटकटारा की जड़ 34. पोहकरमूल 35. पीपरामूल 36. तगर 37. कायफल।

उपर्युक्त सभी चीजों को बराबर मात्रा में लेकर कूट-पीस कर जौकुट पाउडर बना लिया जाता है। हवन करते समय इसी सामग्री में पहले से तैयार की गई काँमन-हवन सामग्री नंबर-1 को भी समान मात्रा मिला लेते हैं। इस नंबर-1 सामग्री को अगर, तगर, देवदार, रक्त चंदन, सफेद चंदन, गुग्गल, लौंग, जायफल और असंगध की बराबर मात्रा लेकर बनाया जाता है। वातव्याधि में हवन करते समय आहुतियाँ प्रदान करने का मंत्र सूर्य गायत्री मंत्र प्रयुक्त होगा। सूर्य गायत्री मंत्र इस प्रकार हैं- ‘ऊं भूर्भुवः स्वः भास्कराय विद्महे, दिवाकराय धीमहि, तन्नः सूर्यः प्रचोदयात्।

यहाँ एक बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि शीघ्र लाभ के हवन के साथ-साथ उपर्युक्त 37 चीजों से बने पाउडर को खाना भी अनिवार्य है। इसके लिए इन 37 चीजों से बने जौकुट पाउडर की कुछ मात्रा को अधिक बारीक पीसकर कपड़छन कर लेना चाहिए और एक काँच के बर्तन या प्लास्टिक के डिब्बे में अलग रख लेना चाहिए। हवन के पश्चात इस पाउडर को सुबह-शाम एक-एक चम्मच शहद के साथ रोगी व्यक्ति को नित्य नियमित रूप से खिलाना चाहिए। ‘काँमन हवन सामग्री नंबर 1’ को खाने में प्रयुक्त नहीं करते, वरन् मात्र हवन में ही प्रयुक्त करते हैं। कुछ लोगों को पाउडर खाने में प्रायः अरुचिकर लगता है, अतः ऐसी स्थिति में उक्त पाउडर का क्वाथ बनाकर पीना चाहिए।

क्वाथ बनाने का सही तरीका यह है कि उक्त 37 चीजों से बने जौकुट पाउडर या सूक्ष्मीकृत चूर्ण की 30 ग्राम से 50 ग्राम तक की मात्रा में भिगो लेकर शाम को स्टील के एक वर्तन में लगभग एक लीटर पानी में भिगो देना चाहिए और सुबह उसे गैस चूल्हे, स्टोव या सामान्य चूल्हे पर मंद आँच में उबलने देना चाहिए। जब एक चौथाई पानी रह जाए, तो काढ़े को उतारकर ठंडा होने तक छोड़ देना चाहिए। इसके बाद महीन कपड़े से अच्छी तरह दबाकर छान लेना चाहिए। इसकी आधी मात्रा सुबह एवं आधी मात्रा शाम को एक चुटकी भर पिप्पली चूर्ण मिलाकर पी लेना चाहिए।

साइटिका रोग प्रायः कब्ज बने रहने, अमीवाइसिस होने अर्थात् पेट में आँव बनते रहने के कारण अधिक कष्टप्रद होता है। अतः अच्छा होगा कि हवन करने और चूर्ण या क्वाथ लेने से पूर्व सबसे पहले पेट की सफाई कर ली जाए। इसके लिए रात्रि में सोते समय कैस्टर ऑयल अर्थात् एरंड तेल-10 मिली. (2 छोटे चम्मच) एक गिलास गुनगुने जल में अच्छी तरह मिलाकर रोगग्रस्त व्यक्ति को पी लेना चाहिए। पेट साफ हो जाने पर दवा का प्रभाव शीघ्र होता है। भोजनोपराँत कोई पाचक द्रव्य जैसे महाशंखवटी आदि ली जा सकती है।

सरसों तेल-1 कि. 2. मेथी बीज-8. ग्राम 3. धतूरा बीज-80 ग्राम 4. कनेर जड़-80 ग्राम 5. कुचला-80 ग्राम 6. आक की जड़-80 ग्राम 7. भाँग की पत्ती (निजमा)-80 ग्राम 8. लहसुन-40 ग्राम 9. अतीस-15 ग्राम 10. कायफल-100 ग्राम 11. मिर्च बीज-12 ग्राम 12. अजवायन-15 ग्राम 13. कलिहारी-5 ग्राम 14. भिलावा-10 ग्राम 15. कंटकारी-10 ग्राम 16. प्रियंगुबीज-5 ग्राम 17. तंबाकू-2 ग्राम 18. शंखिया-2 ग्राम 19. अफीम-2 ग्राम।

उक्त 19 चीजों को कूट-पीसकर बारीक कर लें। तदुपराँत सभी को एकसार करके तेल में डालकर मंद आँच में पकने दें। जब ये सभी औषधियाँ तेल में अच्छी तरह से जल जाएं, तब कड़ाही उतारकर ठंडा होने दें। इसके बाद छानकर अलग बर्तन में रख लें और उस तेल में 1. पिपरमिंट-40 ग्राम 2. कपूर-80 ग्राम 3. अजवायन सत-40 ग्राम और 4. मेथाइल सेलिसिक एसिड-30 ग्राम डालकर अच्छी तरह मिला दें। तेल प्रयोग हेतु तैयार है। कड़ाही में नीचे जो अवशेष या कीट (जला हुआ पदार्थ) बचता है, उसे भी सुरक्षित रख लेना चाहिए।

मालिश करते समय हाथ को बार-बार अंगीठी में गर्म करते रहना चाहिए। इससे तुरंत लाभ मिलता है। मालिश करने के बाद सुरक्षित अवशेष को हलका कुनकुना करके पीड़ित अंग पर फैलाकर ऊपर से कपड़ा बाँध देना चाहिए। यह क्रम साइटिका के दर्द मिटने तक रोज करते रहना चाहिए। यह तेल सभी प्रकार की वातव्याधियों में लाभकारी है। खट्टी एवं ठंडी चीजें दही, अचार, छाछ, उड़द की दाल, कार्बाइड से पके हुए फल आदि का सेवन नहीं करना वातव्याधि से छुटकारा पाने का सर्वोत्तम उपाय है।


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