हम बदलें तो दुनिया बदलें

December 2001

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आखिर मनुष्य बदलता क्यों नहीं? उसके चरित्र, चिंतन, और व्यवहार में वह श्रेष्ठता क्यों नहीं आ पाती, जिसके लिए कहा जाता है कि वह ईश्वर का अंशधर है? उसमें ईश्वरीय चेतना विद्यमान है, यह सत्य है, तो उसकी झलक-झाँकी मिलनी चाहिए, वैसी पवित्रता भी दीखनी चाहिए, लेकिन यथार्थ में यह सब दृष्टिगोचर होते नहीं, क्यों? यह प्रश्न सभ्यता और समाज के विकासकाल से दार्शनिकों के मन में उभरते और उन्हें आँदोलित करते रहे हैं।

यदि गहराई में उतरकर इस विचार करें, तो हम पाएंगे कि यहाँ सब कुछ परिवर्तनशील है। स्थिर कुछ भी नहीं। ब्रह्माँड बदल रह है। दुनिया एक जैसी कभी नहीं रहती। समाज गतिशील है। वृक्ष वनस्पतियाँ भी समय के साथ-साथ पनपते बढ़ते, फलते-फूलते और आयु पूरी करके सूख जाते हैं। जीवधारियों की भी ऐसी ही गति है। स्वयं मनुष्य शरीर भी बदला रहता है। बचपन, यौवन, वार्द्धक्य और मरण यह अवस्थाएं वहाँ भी देखी जाती हैं। एक व्यक्तित्व की मूलसत्ता ही अपरिवर्तनशील क्यों है? जीवन से मृत्यु तक आखिर मनुष्य का स्वभाव बदलता क्यों बने रहते हैं। उसमें उदात्तता का समावेश क्यों नहीं हो पाता? प्रकृति के साथ यह विरोधाभास कैसा है?

मूर्द्धन्य मनीषी हेमिंग्वे से एक बार किसी ने पूछा कि मार्क्स ने जो साम्यवाद का दर्शन दिया है, उसकी सफलता के बारे में आप क्या सोचते है? उनका कहना था कि यह उत्तर जानने की तुलना में यह अच्छा होगा कि उन-उन देशों में जाकर देखा जाए कि किस तरह के कठोर नियंत्रण पर वहाँ की व्यवस्था टिकी हुई है। जहाँ पर छोटी-सी गलती के लिए प्राणहरण जैसे दंड का विधान है, वहाँ भी घोटाले और भ्रष्टाचार हो रहे हैं। भुखमरी और चोरी की समस्या वहाँ भी आम देशों की तरह है। जिस एकरूपता और समता को लेकर यह व्यवस्था बनाई गई थी और सोचा गया था कि रोटी, कपड़ा तथा मकान की दृष्टि से सब समान होंगे, वह आकाँक्षा पूरी कहाँ हो पाई? आदमी वहाँ भी बदल नहीं सका। जो कुछ बदलाव जैसा समाजवादी देशों में दीखता है। वह नियमन हटा नहीं कि अव्यवस्था फैली। इसलिए समाज को बदलने का वह प्रयास भी असफल रहा, ऐसा कहना गलत नहीं होगा। सचाई तो यह है कि मनुष्य जब तक नहीं बदलता, तब तक समाज के बदलने की कल्पना करना अर्थहीन है।

आज से पूर्व इस निमित्त कई क्राँतियाँ हुई। भगवान महावीर ने इसके लिए अहिंसा का दर्शन दिया। भगवान बुद्ध ने धर्मचक्र प्रवर्तन जैसी महाक्रांति की, पर दोनों ही क्राँतियाँ समाज और संसार के कुछ हिस्से को ही प्रभावित कर सकीं और सामयिक बनी रहीं। उस समय विशेष के गुजर जाने के बाद स्थिति पूर्ववत हो गई। मनुष्य और समाज में जो कुछ परिवर्तन दिखलाई पड़ रहा था, वह अस्थाई बना रहा। यह परिवर्तन की सबसे बड़ी विडंबना है। बौद्ध और जैन दर्शन अब भी हैं, पर वे अज मत-मताँतर से अधिक कुछ भी नहीं है। उसमें बदलाव करने की शक्ति नहीं रही। ऐसा क्यों हुआ?

इस पर विचार करने से ज्ञात होगा कि भगवान बुद्ध और महावीर के जमाने में जो कुछ कायाकल्प जैसा दीख पड़ा, वह आरोपित था, वह उनकी तेजस्विता का प्रभाव था। उसके कारण उनके अनुयायियों को कायाँतर का एक छद्म आवरण अपने ऊपर डालना पड़ा। वे न रहे, प्रत्यक्ष रूप से उनकी छत्रछाया न रही, तो वह कृत्रिम परिवर्तन भी समाप्त हो गया और सब कुछ पहले जैसा हो गया। इसलिए जब तक आदमी की मूलसत्ता में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होता, तब तक बदलाव स्थाई नहीं हो सकता। मनुष्य के समग्र परिवर्तन के लिए मानवी अंतराल का संपूर्ण बदलाव जरूरी है। चाहे जिस भी काल में यह पूर्ण बदलाव आए, वहाँ मानवी अंतःकरण में क्राँति अवश्य घटित होगी। इससे कम में बदलाव एक खिलवाड़ बनकर रह जाएगा।

अब प्रश्न है कि यह बदलाव आए कैसे? क्या यह स्वयमेव घटित होगा? कोई पराशक्ति इसे कर गुजरेगी या परमेश्वर की अनुकंपा से संपन्न हो जाएगा? नहीं, ऐसी बात नहीं है। परिवर्तन जहाँ वहीं, जिस स्तर पर भी होता है, वहाँ उसके पीछे कोई-न-कोई निमित्त कारण अवश्य होता है। धरती पर दिन-रात नियमित रूप से होते रहते है। उसका कारण पृथ्वी अपनी धुरी पर हर 24 घंटे में एक बार घूम जाना है। रेडियो का बजना, पंखे का घूमना, रेफ्रिजरेटर में बर्फ का जमना, इन सबके मूल में उनमें प्रवाहित होने वाली विद्युत धारा है। स्विच के दबते ही जब बिजली दौड़ती है, तो सारे यंत्र अपने-अपने कार्य करने लगते हैं और उसका प्रवाह बंद होते ही सभी निष्क्रिय दशा में आ जाते हैं। इसी प्रकार चक्रवात, भूकंप, ज्वालामुखी-विस्फोट जैसे विनाशकारी परिवर्तनों के पीछे भी सुनिश्चित भौतिक कारण है। तात्पर्य यह कि बिना कारण के कोई कार्य या परिवर्तन यहाँ संभव नहीं। इसलिए जब मानवी अंतराल के परिवर्तन की बात आती है और उत्कर्ष की दिशा में कदम बढ़ाने का सवाल सामने आता है, तो यहाँ भी प्रयास और पुरुषार्थ को सदैव स्मरण रखना होगा। निजी पराक्रम के बिना यह शक्य न हो सकेगा। जो इसके लिए प्रकृति प्रवाह पर आश्रित रहना चाहते और अपने पूर्णत्व की कल्पना करते हैं, उनकी बात और है। वे कितने जन्मों में और कितने लंबे काल में उक्त लक्ष्य को प्राप्त करेंगे, प्राप्त कर सकेंगे भी या नहीं, कहीं उनकी उन्नति, अवनति की दिशा में न मुड़ जाए और वे जन्मों पीछे किन्हीं निकृष्ट योनियों में न चले जाएं, इस संबंध में सही-सही कुछ भी कह पाना मुश्किल है। अतएव परिवर्तन संबंधी सहज प्रवाह वाली अवधारणा बहुत ही अनिश्चित और अविवेकपूर्ण है। विवेकवान लोग इतने लंबे काल तक इंतजार नहीं कर सकते और न यह खतरा मोल ले सकते हैं।

अब एक ही विकल्प शेष रहता है कि अपने को बदलने के लिए हम स्वयं से संघर्ष करें। आत्मपरिष्कार की साधना किसी महाभारत से कम नहीं है। उसमें क्षण-क्षण में मनोभूमि में आने वाली बुराइयों और दुष्प्रवृत्तियों से लोहा लेना और उन्हें परास्त करना पड़ता है। इसके लिए स्वयं को एक सतर्क सैनिक की भूमिका निभानी पड़ती है और कुविचारों के, दुर्भावनाओं के आते ही उन्हें धर दबोचना पड़ता है, ताकि उनकी मलिनता पटल पर हावी न होने पाए।

रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि लोटे की चमक को बनाए रखने के लिए उसे बार-बार माँजना पड़ता है, नित्य प्रति उसकी रगड़ाई करनी पड़ती है। इससे कम में चमक बनी नहीं रह सकती है। हाँ, यदि वह सोने का हो, तो बात दूसरी है। मनुष्यों के साथ विडंबना यह है कि स्वर्ण मनोभूमि वाले देवपुरुष करोड़ों में इक्के-दुक्के ही होते हैं, शेष सभी को जागरुक रहकर अंतःकरण की धुलाई-सफाई करनी पड़ती है, तभी ईश्वरीय आलोक की वास्तविक झाँकी आदमी में प्रकट होती है। इससे पूर्व उसकी आभा कषाय-कल्मषों के कारण दृश्यमान नहीं हो पाती। मनुष्य के जन्म-जन्माँतरों के संस्कार उस पर छाए रहते हैं। इन्हें घटाए-मिटाए बिना हम ईश्वर का राजकुमार कहलाने के अधिकारी नहीं बनते। ईश्वर के पुत्र को ईश्वर जैसा होना चाहिए। मानवी गरिमा उस दिव्यता को धारण करने में ही है, उससे पृथक रहने या उसकी जगह मलिनता आरोपित करने में नहीं। यह कृत्रिमता है, स्वाभाविक नहीं।

मानवी चेतना का सहज स्वभाव अपनी मूल सत्ता से एकाकार हो जाना है। यह कैसे हो? इसके लिए प्रबल पराक्रम करना पड़ेगा और वह सारे उपाय-उपचार पड़ेंगे, जिससे चेतना की गति ऊर्ध्वमुखी हो। यदि यह ऊर्ध्वमुखता निरंतर बनाए रखी गई, उसमें किसी प्रकार का अवरोध-अड़चन न आने दी गई, तो परमेश्वर की प्राप्ति सुनिश्चित है। यह मनुष्य का चरम विकास है। इस अवस्था को प्राप्त किए बिना आदमी में किसी भी स्तर का बदलाव आधा-अधूरा और अधकचरा ही कहा जाएगा। व्यक्ति का वास्तविक कायाकल्प और यथार्थ परिवर्तन भगवत्प्राप्ति के बाद ही पूरा होता है। यह समग्र परिवर्तन और संपूर्ण विकास है, पर इसके लिए यह शर्त सदा याद रखनी होगी कि परमात्मा को पाने के लिए परमात्मा जैसी पवित्रता चाहिए। इससे कम में न तो कभी कोई समाज बदला है, न आगे बदलने की उम्मीद है। धरती पर सतयुगी वातावरण की संभावना को साकार करने का एकमात्र आधार यही है कि मनुष्य अपनी क्षुद्रता को त्यागे, काम-क्रोध, ईर्ष्या-द्वेष को तिलाँजलि दे और उच्च आदर्शवादिता अपनाए। साधारण से असाधारण एवं मानव से महामानव बनने का यही मूलमंत्र है।

आदमी के लिए असंभव कुछ भी नहीं। वह जिस भी किसी कार्य के लिए ठान लें, वहाँ सफलता अवश्यंभावी है। उसके संकल्प में इतना बल है कि पर्वत को भी समतल बना दे, फिर अपने आपे को बदलना क्योंकर कठिन होना चाहिए? वह सरल से सरलतम है और कठिन से कठिनतम भी। यह तो अपनी-अपनी दृष्टि है। जो उसे दुरूह मानकर भगवान भरोसे बैठे रहते हैं, उनके लिए तो क्या कहा जा सकता है लेकिन जो अपनी सहायता आप करने को तत्पर हैं, ईश्वर केवल उन्हीं की सहायता करता है। इसलिए उत्कृष्टता की दिशा में हम एक कदम आगे बढ़ाएं, परमात्मा हमें अनेक कदम आगे बढ़ने में मदद करेंगे, यह सुनिश्चित है।


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