‘दर्शं नु विश्व दर्शतं दर्श रथमपि क्षमि, एता जुषत में गिरः’ ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के पच्चीसवें सूक्त के इस अठारहवें मंत्र में दिव्य द्रष्ट ऋषि इस सत्य को घोषित करता है, ‘कि मैंने उस अदृश्य को देखा है। पृथ्वी पर अवतरित उसके सुवर्ण रथ को देखा है। उसने मेरी कविता स्वीकार कर ली है।’ निश्चित रूप से अदृश्य दर्शन की दिव्य दृष्टि भविष्यत् के दृश्य को देखने और उसे अपनी कविता का रूप देने में सक्षम है। 16वीं सदी में फ्राँस में जन्मे माइकल डी नास्त्रेदमस ऐसे ही दिव्य द्रष्ट थे। उन्होंने अपनी अतीन्द्रिय चेतना से भविष्य की झलक पायी और उसे अपनी कविताओं में पिरोया। ऐसी ही एक कविता में उन्होंने कहा था-
11 सितम्बर 2001 को अमेरिका के न्यूयार्क शहर में हुए आतंकवादी हमले में नास्त्रेदमस की कविता में निहित पीड़ादायक सच साकार हो गया। इस हमले में वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर की गगनचुम्बी इमारतें ही धराशायी नहीं हुई, इन्सान के भीतर भी बहुत कुछ टूटा, बिखरा और बहा। समूचे विश्व मानस में यह सवाल भी गहराया और घहराया कि आखिर पृथ्वी का, मानव जाति का भविष्य क्या है? इस सवाल के जवाब के लिए आज ज्यों-त्यों बातें बनाने से काम नहीं चलेगा। इसके लिए सार्थक-प्रामाणिक प्रतिपादन चाहिए।
युग निर्माण आन्दोलन एवं विचार क्रान्ति अभियान के प्रवर्तक परम पूज्य गुरुदेव का जीवन एवं उनके कथन इस कसौटी पर सबसे अधिक खरे उतरते हैं। उन्होंने वर्षों पहले ही आज की परिस्थितियों की विस्तृत व्याख्या एवं विवेचना प्रस्तुत कर दी थी। साथ ही मानवता के उज्ज्वल भविष्य का सुखद चित्राँकन भी किया था। विचारशीलों की जिज्ञासा हो सकती है, कि आखिर उनके इन कथनोँ का आधार क्या है? तो उत्तर उन्हीं के शब्दों में- ‘इस कथन प्रतिपादन के पीछे उच्चस्तरीय अध्यात्म की अनुभूतियाँ हैं, जिनमें घटित होने वाले घटनाक्रम का उल्लेख नहीं है, वरन् विश्व की भवितव्यता का निरूपण है। और बताया गया है कि प्रचण्ड प्रवाह किस दिशा में चल पड़ा है और वह भविष्य में जाकर कब, किस लक्ष्य तक पहुँच कर रुकेगा।’
तथ्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए वह कहते हैं- ‘प्रस्तुत भविष्यवाणियों का पहला आधार है- अदृश्य जगत् का वह सूक्ष्म प्रवाह जो कुछ नयी उथल-पुथल करने के लिए अपने उद्गम से चल पड़ा है और अपना उद्देश्य पूरा करके ही रहेगा।’ वह आगे बताते हैं- ‘दूसरा आधार है- हमारा निज का संकल्प जो किसी उच्चस्तरीय सत्ता की प्रेरणा से महाकाल की चुनौती की तरह अवधारित किया गया है।’ (अ.ज्यो. फरवरी 1987, पृ. 63-64)
आज जिस विश्व व्यापी आतंकवाद से समूचा विश्व जूझ रहा है। परम पूज्य गुरुदेव ने उसे अपने जीवन काल में ही उपजते, पनपते, विस्तार करते और मिटते देख लिया था। उनके अनुसार यह सब तृतीय विश्वयुद्ध एवं खण्ड प्रलय जैसी विकट परिस्थितियों के बदले होने वाली चिह्न पूजा है। इस सम्बन्ध में उनके शब्द है- ‘(तृतीय विश्व युद्ध की) यह सम्भावना सार्थक नहीं होने दी जाएगी। अधिक से अधिक इतना हो सकता है कि प्रलय जैसा कुहराम मचाने वाली घटाएँ कहीं हल्की-भारी चिह्न पूजा करके वापस लौट जाएंगी।’
वह आगे कहते हैं- ‘महायुद्ध के स्थान पर उसका छुट-पुट स्वरूप आतंकवादी लुक-दुप आक्रमणों के रूप में दृष्टिगोचर होता रहेगा। यह नयी पद्धति इस युग की नयी देन होगी। आमने-सामने की लड़ाई शूरवीरों को शोभा देती थी, पर जब नीति मर्यादा का कोई प्रश्न ही नहीं रहा तो ‘मारो और भाग जाओ’ की छापामार नीति ही काम देगी। .........किन्तु यह भय मन में से निकाल ही देना चाहिए कि सर्वनाशी तृतीय महायुद्ध मानवी अस्तित्व को मिटाकर रहेगा। ....इस सम्बन्ध में हमें इतना ही समझ लेना चाहिए कि घटाएँ उठेंगी, घुमड़ेंगी और गरजेंगी तो बहुत, पर इतनी वर्षा होने के आसार नहीं हैं, जिसमें सर्वत्र प्रलय के भयानक दृश्य दिखने लगें।’ (अ. ज्यो. फरवरी 1987, पृ. 38)
फिर भी परम पूज्य गुरुदेव की दृष्टि में इस क्रम में सर्वाधिक उथल-पुथल वाला समय होगा- बीसवीं सदी के अन्त और इक्कीसवीं सदी के आगमन का समय। उनके अनुसार- यह जब अपनी परिपूर्ण स्थिति में होंगे, तब उनके बदलने में काफी देर लगेगी। यह समय क्रमिक गति से बदलेगा। परिवर्तन की धीमी गति से चलती हुई प्रक्रिया दिखाई देगी। इन्हें देखकर यह तो अनुमान लगाया जा सकता है कि समय की गति किस दिशा में चल पड़ी है। इस समय की गति को नयी दिशा में मोड़ने वाला समय क्या होगा? परिजनों के इस सवाल के उत्तर में यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है कि जो अखण्ड ज्योति के नियमित पाठक हैं, उन्होंने अखण्ड ज्योति वर्ष 1989 के जून अंक के पृ. 57 का ध्यान होगा। इस पृष्ठ में प्रकाशित समाचार डायरी में एक शीर्षक प्रकाशित हुआ था निन्यानवे का फेर- क्या आखिरी फेर? इस शीर्षक के अंतर्गत चार्ल्स बर्लिट्ज की पुस्तक डूम्जडे; 1999 का उल्लेख है। इस पुस्तक के लेखक ने बाइबिल की भविष्यवाणियों एवं चिरपुरातन बेबीलोन की सभ्यता के अध्ययन द्वारा प्राप्त ज्योतिर्विज्ञान की गणना पर आधारित कैलेण्डर के निष्कर्षों का हवाला देते हुए लिखा है कि हमारे तारामण्डल का (वर्तमान) एक चक्र सितम्बर 2001 में पूरा होता है। और यही वह घड़ी है जब एक नए युग के जन्म की सम्भावनाएँ बनती हैं।
हालाँकि परम पूज्य गुरुदेव के अनुसार- ‘युग परिवर्तन की प्रक्रिया भी विश्व व्यवस्था को देखते हुए आश्चर्यजनक गति से बदलेगी। पर उस परिवर्तन की तीव्रता को यथा समय समझ सकना हर किसी के लिए कठिन पड़ेगा। इस सच्चाई को हृदयंगम करने में बहुत जोर लगाना पड़ेगा। 31 दिसम्बर सन् 2000 में रात्रि को सोते समय जो नजारे देखकर सोएँगे- वे 1 जनवरी सन् 2001 में सर्वथा बदले हुए दीखें, यह नहीं हो सकेगा। गति की तीव्रता को पहचानना सरल नहीं होता। धीमापन तो और भी अधिक समझने में जटिल होता है।’ (अ. ज्यो. फरवरी 1987, पृ.59)
इतने पर भी एक सत्य तो सर्व प्रत्यक्ष होकर उज्ज्वल भविष्य का अहसास दिलाएगा ही। वह सत्य यह होगा कि बुराई के पक्षधरों को, आतंकवादियों को ढूंढ़ने से भी शरण खोजे न मिलेगी। उनके मित्र भी उनसे किनारा काटेंगे। हितैषी उनसे दूर हटने में ही अपना कल्याण समझेंगे। समूचा विश्व उनके खिलाफ एक जुट होगा। आतंकवाद के खिलाफ एक कारगर जंग छिड़ेगी। इस सत्य को बताते हुए वह आगे कहते हैं- ‘एक-एक करके सभी संकट टल जाएँगे।’ (अ. ज्यो. जून 1984, पृ. 18)
इन सब परिस्थितियों की परिणति बताते हुए पूज्य गुरुदेव के शब्द हैं- ‘सघन तमिस्रा का अन्त होगा। ऊषाकाल के साथ उभरता हुआ अरुणोदय अपनी प्रखरता का परिचय देगा। जिन्हें तमिस्रा चिरस्थायी लगती हो, वे अपने ढंग से सोचे, पर हमारा दिव्य दर्शन उज्ज्वल भविष्य की झाँकी करता है। इस पुण्य प्रयास में सृजन की पक्षधर देवशक्तियाँ प्राण-पण से जुट गयी हैं। इस सृजन प्रयास के एक अकिंचन घटक के रूप में हमें भी कुछ कारगर अनुदान प्रस्तुत करने का अवसर मिल रहा है।’ (अ. ज्यो. जून 1984, पृ. 18)। परम पूज्य गुरुदेव का यह दिव्य दर्शन इन्हीं दिनों साकार होने को है। इन दिनों होने वाले विश्व घटना क्रम इसी भविष्य कथा की भूमिका लिखने में लगे हैं।