आँधी ने मंद वायु से कहा, शक्तिवान बनने में ही गौरव है, मैं जब अपने वेग के साथ चलती हूँ, तो पेड़-पौधे उखाड़ जाते हैं, तालाबों का पानी उछलने लगता है, प्राणियों की मेरे सामने ठहरने की हिम्मत नहीं होती है।, सभी अपना बचाव करने के लिए छिपते फिरते हैं। जिंदगी ऐसी जीनी चाहिए कि लोग जिसका लोहा मानें और डरते रहें।
मंद वायु बोली, दीदी तुम सामर्थ्यवान हो, जो चाहो सो कर सकती हो, पर मुझे तो सेवा में आनंद आता है। धीमी चलती हूँ ताकि किसी को कष्ट न हो, निरंतर बहती हूँ ताकि सेवा के आनंद से क्षणभर के लिए भी वंचित न रहना पड़े। मुरझाए चेहरों पर शीतल सुगंधित पंखा झलते हुए जो संतोष प्राप्त होता है, मेरे लिए वही बस है। तुम्हें शक्ति का हर्ष प्रिय लगता है, पर मेरे लिए तो सेवायुक्त समर्पण ही सब कुछ है। आँधी अपनी भूल समझ मौन रह गई।